शनिवार, 26 सितंबर 2009

राहुल का जन-संवाद

कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव युवा नेता राहुल गांधी ने जन संवाद की जो परंपरा कायम की है, वह लगातार जारी है। वे जिस प्रदेश में जाते हैं, वहां के ग्राम्य जीवन को नजदीक से देखते हैं। गरीब किसानों, खेतिहर मजदूरों की बस्तियों में जाते हैं। उनकी जीवन पद्धति का अवलोकन करते हैं, उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अध्ययन करते हैं, उनके यहां खाना खाते हैं, उनकी खाट पर सोकर रात बिताते हैं। उनके साथ क्षेत्र में हो रहे विकास कार्य सरकारी आकड़ों की निगाहों से नहीं देखते अपनी नजरों से देखते हैं। उसकी धड़कनों को महसूस करते हैं। नब्जों पर सीधे अंगुलियां रखते हैं। यह राहुल गांधी की अपनी राजनीतिक शैली हैं- जनता से सीधे संवाद करने की। यह शैली महात्मा गांधी की है। कुछ हद तक राहलु गांधी ने उसे अपनाई लेकिन उनके लिए यह जानलेवा साबित हुई। अब राहुल ने इसी शैली को अपने तरीके से अपनाया है और इसे विशिष्ठता प्रदान की है।

ऐसे समय में जब नेताओं और जनता के बीच संवाद लगभग टूट चुका हो, दूरी लगातार बढ़ रही हो, राहुल का जनता से जुड़ने का प्रयास गौर करने लायक है। नेता जनता की स्थिति नौकरशाही की आखों से देखते हैं। नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए झूठों आकड़ों में विकास की तलाश करते हैं। तमाम प्रलोभन देकर बसों में भर कर दूर दूर से लाई गई भीड़ को देखकर अपनी लोकप्रियता का अंदाज लगाते हैं। वे इस जमीनी हकीकत की पड़ताल करने की कोशिश नहीं करते कि जिन विकास योजनाओं पर जनता का धन पानी की तरह बहाया गया उसका लाभ आमजन को मिला या नहीं। मिला तो कितना मिला? कितना हिस्सा भ्रष्टाचारियों की जेब में गया और कितना हिस्सा जनता के हिस्से आया? बहुत सी योजनाएं तो सिर्फ कागजों में सिमट कर रह जाती हैं। उसका सारा धन बिचौलिए हड़प जाते हैं। गरीब के झोपड़ों तक विकास नहीं पहुंच पाता। विकास की हकीकत का पता तभी चल सकता है जब भुक्तभोगियों के बीच जाया जाए और उनसे जाना जाए। सबकुछ अपनी आखों से देखा जाए।


राहुल गांधी की राजनीतिक शैली राजनीति के मौजूदा ढर्रे में गुणात्मक परिवर्तन लाने जा रही है। आकाशी नेता जमीन से जुड़े लोगों को रास नहीं आएगा। दिल्ली औऱ लखनऊ के वातालुकूनित कमरे में बैठकर राजनीति करने के दिन लदने जा रहे हैं। वही नेता सफल होगा जो जनता के बीच जाकर उसका विश्वास जीतेगा और उसके सुखदुख में साझीदार होगा। जनता की कठिनाइयों को उसकी समस्याओं को समझेगा और उसे महसूस कराएगा कि वह जनता को मुसीबतों से उबारने के लिए वाकई ईमानदार प्रयास कर रहा है।


जातिवाद की राजनीति भी ज्यादा दिनों तक नहीं चलने वाली है। जिस तेजी से लोगबाग जागरुक हो रहे हैं उससे साफ दिखने लगा है कि निकट भविष्य में ही जातिवाद,संप्रदायवाद और क्षेत्रवाद के औजार भोथरे हो जाएंगे, रह जाएगा सिर्फ कर्मवाद। कर्मवाद ही नेताओं की योग्यता का मापदंड रह जाएगा। जब कोई प्रत्याशी चुनाव मैदान मे उतरेगा तो उसके जीवन का लेखा जोखा खंगाला जाएगा। राहुल गांधी राजनीति को इसी दिशा की ओर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी कोशिश है कि जनता और नेताओं के बीच सीधा संवाद स्थापित हो और बिचौलिए बीच से हट जाएं। स्थितियों का आंकलन नौकरशाही से न किया जाए। राजनीति की दशा और दिशा भवनात्मक आवेग से तय न हो। जन सेवा के व्यावहारिक और बुनियादि सिद्धांतों से निर्धारित हो।


जब राहुल गांधी व्यापक रुप से जनता को कांग्रेस से जोड़ने में कामयाब हो जाएंगे तो क्षेत्रीय और जातिवादी पार्टियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और उसके साथ ही सौदेबाजी और भयादोहन की राजनीति भी समाप्त हो जाएगी। वोटर को अपनी वास्तविक ताकत का अहसास होने लगेगा और उसके भयादोहन की संभावनाएं भी समाप्त हो जाएंगी। लेकिन ये काम आसान नहीं है। जिस दल दल में उत्तर प्रदेश की जनता फंस चुकी है, उससे बाहर निकलना बहुत कठिन है। यह लंबे समय तक धैर्यपूर्वक सतत प्रयास की मांग करता है। परिवार, जाति, कुनबे और क्षेत्र की राजनीति करने वाले छुटभैये नेताओं के मायावी तिलिस्म को तोड़ना आसान नहीं होगा। उनके मजबूत गढ़ों में सेंध लगाने का जो तरीका राहुल ने अपनाया है, उसमें ढेर सारी संभावनाएं छिपी हुई हैं।


यह अकारण नहीं है कि राहुल गांधी का पूर्वी उत्तर प्रदेश का गुपचप और आकस्मिक दौर यहां के निजाम को हजम नहीं हो पाया है। औस उसने सुरक्षा के नाम पर केंद्र सरकार से गहरा एतराज जताया है। उत्तर प्रदेश की मुख्या मायावती यह कैसे सहन कर सकती हैं कि उन्हें संभलने का मौका दिए बिना कोई उनके गढ़ में घुस आए और उन छिद्रों को खोज निकालने जो गढ़ को ध्वस्त करने में मददगार हो सकते हैं। मायावती कई बार राहुल के इस तरह के कार्यों की आलोचना कर चुकी हैं औऱ उसे ‘नाटक’ करार दे चुकी है। खासतौर पर अपने दलित वोट बैंक में सेंध वह कत्तई बर्दाश्त नहीं कर सकतीं। यही वोट बैंक तो उनकी प्राणवायु है। लेकिन राहुल गांधी को इसकी परवाह किए बिना अपनी विशिष्ट राजनीतिक शैली में अपना अभियान आगे बढाना चाहिए। क्योंकि नई राजनीति की यही मांग है।