बुधवार, 29 अप्रैल 2009

अशुभ संकेत

एक अखबार के पत्रकार जरनैल सिंह ने पत्रकार वार्ता के दौरान गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता क्या फेंका कि भारतीय नेताओं पर जूते फेंकने का सिलसिला चल पड़ा। लोकसभा में विपक्ष के नेता और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी भी नहीं बच पाए तथा मौजूदा प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह भी नहीं। प्रधानमंत्री पर अहमदाबाद में इंजीनियरिंग के एक छात्र ने उस समय जूता फेंका जब वह एक सार्वजनिक सभा को संबोधित कर रहे थे। यह अलग बात है कि जूता उनके मंच से तकरीबन 20 मीटर दूर गिरा। इसके अलावा संसद सदस्य नवीन जिंदल और अभिनेता जितेंद्र पर भी जूते उछाले जा चुके हैं। हो सकता है चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक कुछ और नाम भी इस सूची में दर्ज हो जाएं।
क्या इस तरह की घटनाओं और मतदान में लगातार आ रही कमी के बीच कोई संबंध है? क्या नेताओं और लोकतंत्र की विश्वसनीयता दिन प्रतिदिन कम हो रही है और आम आदमी का इस व्यवस्था से मोहभंग हो रहा है? वास्तविकता यही है। लोकतंत्र का मुखौटा लगाए सामंतवाद और परिवारवाद देश में तेजी से पांव पसार रहा है। आम जनता मुसीबतों में उलझती जा रही है और नेता मालामाल हो रहे हैं। नामांकन पत्र के साथ जब कोई प्रत्याशी अपनी संपत्ति का ब्यौरा दाखिल करता है तो मतदाताओं की आखें फटी रह जाती हैं। वह यह देखकर हैरान रह जाता है कि कोई प्रत्याशी अपनी लखपति से कम नहीं है। करोड़पति भी है और अरबपति भी।

ऐसे नेता भी हैं जिनकी तिजोरियां राजनीति में पदार्पण के वक्त या तो खाली थीं या बमुश्किल हजार पांच सौ रुपए ही रहे होंगे। लेकिन कुछ ही सालों में वे तिजोरियां नोटों की गड्डियों से भर गईं। उनमें करोड़ों अरबों रुपए भर गए, उन्होंने अरबों रुपए की संपत्ति अर्जित कर ली। पूरे परिवार को राजनीति में उतारकर सबको मालामाल होने का आसान अवसर प्रदान किया। ऐसे नेताओं के लिए राजनीति जन-सेवा का माध्यम नहीं व्यवसाय बन गई- पुश्तैनी व्यवसाय। पीढ़ी दर पीढ चलने वाला लाभप्रद व्यवसाय।
जनता को सिर्फ भाषणों के लॉलीपॉप दिखाने वाले नेता स्वयं विलासिता में आकंठ डूबे हुए हैं। जनता का काम सिर्फ इतना रह गया है कि वह नेताओं को संसद या विधानसभा में भेजती रहे और खुद फटेहाल बनी रहे। आम आदमी को लच्छेदार भाषण पिलाने वाले इन बहुरुपिए, बाहुबली और धनबली नेताओं को सिर्फ अपने हितों की चिंता रहती है। 'माननीय' बनने के बाद इनका आपराधिक खेल चलता रहता है। संसद या विधानसभा के भीतर और बाहर इनकी चाल और चरित्र एख जैसा है। व्यापारी गुंडा टैक्स देते-देते परेशान है और व्यापारी नेता सत्तासुख भोगने में मशगूल हैं। एक टैक्स सरकार को चुकाता है व्यापारी और दूसरा बाहुबलियों को जिन्हें राजनीतिक पार्टियां संरक्षण देती हैं या लोकसभा या विधानसभा में भेजती हैं।
आम आदमी का फर्ज सिर्फ इतना है कि वह नेताओं की जय-जयकार करता रहे, उसके हितों की रक्षा के लिए धरना-प्रदर्शन करता रहे, पुलिस की लाठियां और गोलियां खाता रहे। जब लोकसभा या विधानसभा में जाने की बात आए तो कोई धनपशु, कोई बाहुबली, कोई फिल्म स्टार, कोई व्यवसायी या कोई ऐसा व्यक्ति आकर खड़ा हो जाए जिसे राजनीति बाप-दादा से विरासत में मिली हो। जनता को सिर ढकने के लिए, पीने के लिए साफ पानी, जीवित रहने के लिए अन्न और दवाएं, गुंडो, बदमाशों और लुटेरों से सुरक्षा, उचित दाम पर खाद, सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी, पहनने के लिए वस्त्र, सस्ती शिक्षा और रोजमर्रा की जरुरत की चीजें उपलब्ध नहीं हो रही हैं।


खाद और बीच पर सब्सिडी देने से सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ता है। उद्यमियों को सेज के लिए किसानों की जमीन जबरद्स्ती छीन ली कर दे दी जाती है लेकिन उजड़े हुए किसानों को पुर्नस्थापित नहीं किया जाता। नेता इतने छिछले होते जा रहे हैं कि वे निर्लज्जतापूर्वक जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐश कर रहे हैं और उससे अपनी तिजोरियां भर रहे हैं। वे इस कदर दिममागी दिवालियेपन के शिकार होते जा रहे हैं कि संसद में बोलने के लिए उनके पास कुछ नहीं रहता। वे प्राय हर छोटे बड़े मुद्दे पर वहां जूतम पैजार करते नजर आते हैं। देश में इतनी समस्याएं हैं लेकिन इस चनाव में उन्हें जनता के सामने रखने के लिए कोई मुद्दा नहीं मिल रहा है।


वे सिर्फ एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। गाली गलौच की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं। संसद की लाइब्रेरी में अब अध्ययन या सूचनाएं एकत्रित करने कोई नहीं जाता संसद का सत्र बिना तर्कपूर्ण बहस मुसाहिबे के बीत जाता है। जरुरी सवालों पर भी विचार नहीं हो पाते। जन प्रतिनिधियों के वेतन और विधायकों के वेतन और भत्तों में बढ़ोत्तरी की बात आती है तो सभी पक्षों में अभूतपूर्व एकता दिखाई पड़ती है और संबंधित बिल मिनटों में बिना विरोध के पास हो जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने विधायकों के भत्ते बढ़ाने वाला विधेयक 'सुख सुविधा निधि संशोधन विधेयक 2005'
मात्रा आधा मिनट में पारित कर दिया। इससे सरकार पर 17 करोड़ 58 लाख रुपए का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ा। सांसद निधि की रकम एक करोड़ से बढ़कर दो करोड़ हो गई। इसी प्रकार विधायक निधि की रकम 50 लाख से बढ़ाकर एक करोड़ 25 लाख रुपए हो गई।
सभी जानते हैं कि इस निधि का पचास प्रतिशत जनप्रतिनिधियों की जेब में जाता है। स्थानीय निकायों को आर्थिक स्वायत्तता देने से भ्रष्टाचार बढ़ा है। विकास और जनकल्याण के कार्यों के लिए सरकारें धन का अभाव का रोना रोती हैं लेकिन फिजूलखर्ची या गैर योजनागत व्यय दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। देश की जनता अब जागरुक हो रही है। शिक्षा का प्रसार बढ़ने से उसकी सोचने समझने की शक्ति में भी इजाफा हो रहा है। वह अपने नेताओं के विकृत वास्तविक चेहरे को पहचानने लगी है। इस व्यवस्था और इसे चलाने वाले नेताओं-नौकरशाहों के प्रति उसके मन में वितृष्णा पैदा होने लगी है। लोकतंत्र के भविष्य के लिए ये संकेत शुभ नहीं है। इसकी परिणति खूनी क्रांति में भी हो सकती है।

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

चुनाव आयोग की निष्पक्षता संदिग्ध

चुनाव आयोग ने एक ही तारीख के आसपास दो फैसले लिए। पहला फैसला बहुमत से लिया गया, जबकि दूसरा सर्वसम्मति से। पहला मुद्दा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के संबंध में था। जिसमें चुनाव आयुक्त नवीन चावला और वाईएस कुरैशी एक तरफ थे और मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी दूसरी तरफ। हाल ही में सोनिया गांधी ने बेल्जियम सरकार से प्रतिष्ठित अवॉर्ड प्राप्त किया। मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी का कहना था कि इस बात की जांच होनी चाहिए कि अवॉर्ड प्राप्त करते समय सोनिया गांधी ने बेल्जियम के संविधान के प्रति निष्ठा व्यक्त की है या नहीं। यदि ऐसा किया होगा तो लोकसभा से उनकी सदस्यता की जानी चाहिए। लेकिन चावला और कुरैशी ने मुख्य चुनाव आयुक्त की इस राय से असहमति व्यक्त की और ये मामला अंतिम स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया। राष्ट्रपति के लिए इस पर स्वीकृति की मुहर लगाने में कोई कठनाई नहीं होगी। क्योंकि उनके पास बहुमत से किया गया फैसला स्वीकृति के लिए भेजा गया है।

चुनाव आयोग ने अपने दूसरे फैसले के मुताबिक बीजेपी के युवा नेता और पीलीभीत संसदीय क्षेत्र से प्रत्याशी वरुण गांधी के भदोही दौरे पर प्रतिबंध लगा दिया। भदोही में चुनाव प्रचार के अंतिम दिन वरुण को कई सभाएं संबोधित करनी थी और कई रोड शो भी करने थे। उल्लेखनीय है कि पीलीभीत में विवादास्पद भाषण देने के कारण उत्तर प्रदेश सरकार ने उनपर रासुका लगा दिया था। वरुण गांधी अदालत में ये शपथपत्र दाखिल करने के बाद पेरोल पर छूटे हैं कि वो अब भड़काऊ भाषण नहीं देंगे। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट का था जिसका पालन वरुण गांधी ने किया और जेल से बाहर आए। फिर उनके चुनाव दौरे पर प्रतिबंध क्यों लगाया गया। क्या चुनाव आयोग को उनके भाषण और आचरण की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए थी। क्या वरुण गांधी को उनके शपथपत्र के मुताबिक सुधरने का मौका नहीं देना चाहिए था। भाजपा नेताओं ने चुनाव आयोग के इस फैसले को पक्षपात पूर्ण और अन्यायपूर्ण बताया।

केंद्र की कांग्रेस सरकार संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग के लिए खासा बदनाम रही है। पहले चुनाव आयोग एक सदस्यीय हुआ करता था। जो केंद्र की कांग्रेस सरकार के इशारे पर नाचा करता था। पहली बार शेषन ने इस मिथक को तोड़ा था। लेकिन राजग सरकार ने चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया। यूपीए सरकार बनने के बाद चुनाव आयोग में नवीन चावला की नियुक्ति कर दी गई। जो अपने कांग्रेस प्रेम के लिए बदनाम रहे हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त गोपालस्वामी ने चावला पर आरोप लगाया कि उन्होंने आयोग के एक गुप्त निर्णय से कांग्रेस को अवगत कराया था। लेकिन गोपालस्वामी की इस शिकायत की कोई नोटिस यूपीए सरकार ने नहीं ली।

अब गोपालस्वामी ने अवकाश ग्रहण कर लिया और कांग्रेस के हमदर्द नवीन चावला मुख्य चुनाव आयुक्त बन गए हैं। गौरतलब है कि नवीन चावला चुनाव आयुक्त नियुक्त हुए थे तब तत्कालिक मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने उन्हें हटाने की शिफारिश राष्ट्रपति से की थी। लेकिन कांग्रेस की कृपा चुनी गई राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल उसे कैसे मंजूर करती। जाहिर है गोपालस्वामी की सिफारिश नामंजूर कर दी गई। लेकिन ऐसा किस आधार पर किया गया। क्या तर्क दिए गए इसका खुलासा करने के लिए राष्ट्रपति भवन और केंद्र सरकार तैयार नहीं है।
केंद्र सरकार का कहना है कि ये दो व्यक्तियों के बीच गोपनीय वैधानिक पत्राचार का मामला है इसलिए इसका खुलासा नहीं किया जा सकता। भाजपा के महासचिव अरुण जेटली ने एक जनहित याचिका दायर कर केंद्रीय विधि मंत्रालय के प्रशासनिक विभाग से गोपालस्वामी की सिफारिशों और उस पर सरकार की अनुसंशाओं का ब्योरा देने का आग्रह किया था। लेकिन केंद्र सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया।

केंद्र सरकार के पत्र से मिलता जुलता पत्र राष्ट्रपति भवन से भी मिला था। देखा जाए तो केंद्र सरकार ने सूचना के अधिकार को ताक पर रख दिया। जिस व्यक्ति का चरित्र दागदार हो उसकी नियुक्ति चुनाव आयुक्त जैसे महत्वपूर्ण पद पर किया जाना जनहित का गंभीर मामला है। इसपर कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए औऱ इसके लिए सुप्रीम कोर्ट उचित मंच है। भाजपा नेता संभवत इस मंच का उपयोग करें।
चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की निष्पक्षता असंदिग्ध होनी ही चाहिए। लेकिन इस लोकसभा चुनाव में कई फैसले ऐसे लिए गए जो चुनाव आयोग की इमानदारी पर सवालिया निशान खड़े करते हैं। वरुण गांधी को चुनावी दौरे से रोकना तो बिल्कुल असंगत है।

इससे भी ज्यादा भड़काऊ भाषण देने वाले दक्षिण के कई नेता छुट्टा घूम रहे हैं। चुनाव आयोग ने उनपर नकेल डालने की कोई कोशिश नहीं की। अब जब यूपीए सरकार ने नवीन चावला जैसे संदिग्ध व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया है तो भविष्य में देश की जनता को और भी चौकन्ना रहना होगा। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी नवीन चावला और कुरैशी की निष्पक्षता को कठघरे में खड़ा किया है।
नियुक्ति के समय से ही विपक्षी पार्टियां चावला के चरित्र को दागदार बताती आ रही है। सवाल है कि कांग्रेस के शासनकाल में ही महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर दागदार क्यों बिठाए जाते हैं।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

वही डफली, वही राग

मुसमानों को रिझाने के लिए वोट के सौदागर छिछले किस्म के वही पुराने राजनीतिक नुस्खे बार-बार दुहराते हैं। बिहार के दो केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान ने सुर में सुर मिलाते हुए वही पुरानी डफली फिर बजानी शुरू की है जिस पर वे कभी राग मल्हार गाया करते थे। मुस्लिम वोट कांग्रेस की ओर न खिसकने पाए इसिलए इन नेताओं ने फिर दुहराया है कि अयोध्या में बाबरी ढांचा के विध्वंस के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है क्योंकि उस समय केंद्र में कांग्रेस यानि पी.वी. नरसिम्हाराव की सरकार थी।

ऐसा कहते हुए इन नेताओं ने इस बात का ध्यान नहीं दिया कि बाबरी विध्वंस के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार थी जिसके मुखिया कल्याण सिंह थे। इन्हीं कल्याण सिंह को चौथे मोर्चे के एक घटक समाजवादी पार्टी ने गले लगाया है ताकि उत्तर प्रदेश के लोध वोट उसे मिल सके। इन नेताओं ने बाबरी विध्वंस के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि उसी कांग्रेस के नेतृत्व में गठित सरकार में ये मंत्री हैं और विगत पांच वर्षों से सत्ता का सुख भोग रहे हैं।

नैतिकता का तकाजा तो ये था कि इस तरह का ओछा बयान देने से पहले लालू और पासवान अपने मंत्री पदों से इस्तीफा दे देते। जिस तरह से कुछ अन्य मंत्रियों ने लोकसभा चुनाव से पहले अपने पदों से दिया था ताकि चुनाव में वो कांग्रेस के मुकाबले खड़े हो सकें। मजे की बात ये है कि चौथे मोर्चे के सभी नेता अभी भी अपना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को और अपनी सरकार यूपीए को बता रहे हैं। इस तरह ये दोस्ती और जंग एक साथ चला रहे हैं।

दरअसल ये सत्ता के सारे विकल्प खुले रखना चाहते हैं। लालू यादव का फॉर्मूला है कि यदि कांग्रेस यूपीए सरकार का नेतृत्व करने लायक सीटें नहीं जुटा पाई तो वो तीसरे मोर्चे और अपने मोर्चे के घटक दलों के सहयोग से खुद सरकार बनाएंगे। और इस प्रकार वो प्रधानमंत्री बन सकेंगे, जिसकी आकांक्षा वो कई अवसरों पर व्यक्त भी कर चुके हैं। बदकिस्मती से यदि तीसरे मोर्च के साझीदार देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गए तो उनकी गृहमंत्री बनने की अभिलाषा पूरी हो जाएगी। यदि दुबारा यूपीए सरकार बनती है तो कांग्रेस की पहले की अपेक्षा कमजोर स्थिति उनके लिए गृहमंत्री का रास्ता साफ कर देगी। लेकिन ये तभी संभव होगा जब मुस्लिम मतदाता लालू के साथ चिपके रहे या चौथे मोर्चे की स्थिति काफी मजबूत हो।

सपा, राजद और लोजप जैसे क्षेत्रिय दलों से मुसलमानों का मोहभंग होने लगा है। उनमें जैसे-जैसे जागरुकता बढ़ रही है। वैसै ही वैसे वो अपने हितों के प्रति सजग होने लगे हैं और उन्हें लगने लगा है कि इन दलों के नेता उन्हें भ्रमित रखकर सिर्फ अपना हित साधने में लगे हुए हैं। ये वोटकामी लोग उनका भला नहीं कर सकते हैं। वास्तविकता भी यही है। बार बार बाबरी विध्वंस का मामला उठाने और इसके लिए कभी भाजपा और कभी कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराने का उद्देश्य आखिर क्या हो सकता है।
यदि कांग्रेस ही इसके लिए जिम्मेदार थी तो लालू और पासवान आखिर क्यों इस सरकार में बने हुए हैं। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार कायम रखने या नई दरारे पैदा करने का षणयंत्र आखिर कब तक चलेगा। मुसलमानों को देश की मुख्यधारा से अलग रखने का प्रयास आखिर क्यों कर रहे हैं ये तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता। वे बार बार ऐसे मुद्दे क्यों उठा रहे हैं जिससे मुस्लिम समुदाय के घाव हरे हों।

देश का लगभग हर व्यक्ति जान चुका है कि बाबरी विध्वंस का जिम्मेदार कौन है। अब सवाल ये है कि आखिर इस विवादास्पद मसले को सुलझाया कैसे जाए। कट्टरवाद के उभार को कैसे रोका जाए। देश के गरीब लोगों में सबसे ज्यादा गरीब मुस्लिम तबका ही है। उनकी गरीबी कैसे दूर की जाए। क्या उपाय किया जा सकता है कि आम मुसलमान मुल्लाओं मौलवियों के चंगुल से निकलकर आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर सके और आधुनिक समाज का अंग बन सके। मुस्लिमों में जितनी अशिक्षा गरीबी बेरोजगारी होगी उतना ही उनका भावनात्मक शोषण होगा। कट्टरवादी, आतंकवादी, पोंगापंथी, पुरातनपंथी उन्हें अपने चंगुल में फंसाएंगे और सभ्य तथा जिम्मेदार नागरिक बनने से महरुम करेंगे।

सत्ता के लोभी और स्वार्थी नेता कभी नहीं चाहते कि देश के नागरिकों में जागरुकता आए, सुशिक्षित बने, अच्छे बुरे का पहचान करने का विवेक पैदा हो। क्योंकि यदि ऐसा होगा तो वे जाति, क्षेत्र और धर्म के नाम पर आम जन का भावनात्मक दोहन नहीं कर पाएंगे। उन्हें वोट लेने के लिए अपने भीतर गुणवत्ता विकसित करनी पड़ेगी। अपनी योग्यता सिद्ध करनी पड़ेगी। जनता के सामने आदर्श प्रस्तुत करना पड़ेगा और जनता के तमाम सवालों का जवाब देना पड़ेगा। उन्हें बताना पड़ेगा कि उन्होंने अपने पांच सालों के कार्यकाल में जनता की भलाई और उनके उत्थान के लिए क्या क्या किया? उनके पास अकूत दौलत कहां से आई?

इसलिए जब मुसलमानों की बात आती है तो वोट की राजनीति करने वाले लालू और पासवान जैसे तमाम नेता नकारात्मक मुद्दे उठाते हैं। और बहुसंख्यक समाज के प्रति नफरत तथा खौफ पैदा करते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय को समझाते हैं कि देखो तुम्हारी सुरक्षा का ठेका सिर्फ हमारे पास है। उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कभी नहीं करते।

लालू को यह बताना चाहिए कि उन्होंने अपने 20 वर्षों के बिहार के शासन के दौरान मुसलमानों को आधुनिकता से जोड़ने के लिए या उनके अन्य हितों के लिए क्या काम किया?

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

मतदाताओं की उदासीनता

पूर्वी उत्तर प्रदेश की 16 संसदीय सीटों पर सिर्फ 48 फीसदी मतदाताओं ने अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया। यानी मतदान आधे से भी कम हुआ। सबसे ज्यादा 52 .20 फीसदी वोट मिर्जापुर संसदीय़ क्षेत्र में पड़े और सबसे कम 40.3 फीसदी सलेमपुर में। वाराणसी संसदीय क्षेत्र में कुल 15.61 लाख मतदाता हैं लेकिन इनमे से आधे ने भी वोट नहीं डाले। इस सीट पर भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच कांटे का संघर्ष रहा। इस हिसाब से देखें तो मात्र 10-15 फीसदी वोट पाने वाला प्रत्याशी जीत जाएगा। और पूरे संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व लोकसभा में करेगा। सोचिए क्या वास्तव में उसे पूरी जनता का प्रतिनिधि होने का हकदार माना जाएगा?
यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की गंभीर खामी है। जिस पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। जिसे किसी संसदीय क्षेत्र की पचास फीसदी जनता भी नहीं चाहे, वह देश की सबसे बड़े सभा में प्रतिनिधि के तौर पर बैठे। यह भारी विडंबना है। आखिर कोई राजनीतिक पार्टी इस दिशा में पहल क्यों नहीं करती? क्या उसे यह व्यवस्था रास आ रही है? चुनाव आयोग और देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने बार-बार सुझाव दिए हैं कि मौजूदा चुनाव प्रक्रिया को बदलने की आवश्यकता है। इस तरह के सुझाव भी आए कि चुनाव में जीत के लिए कम से कम पचास फीसदी मत प्राप्त करने को जरुरी कर दिया जाए। यदि सभी प्रत्याशियों में से कोई भी पचास फीसदी का आंकड़ा नहीं छू पाए तो चुनाव रद्द कर दिया जाए। लेकिन इस व्यवस्था में किसी राजनीतिक पार्टी ने रूची नहीं दिखाई।
राजनीतिक पार्टियां जिस तरह से जाति, धर्म, क्षेत्र और संप्रदाय की राजनीति कर रही हैं उसमें मौजूदा व्यवस्था ही उन्हें लाभप्रद लग रही है। बसपा तो इसी गणित पर अपनी समूची राजनीति ही केंद्रित कर रही है। अपनी बिरादरी के वोट ले लो, दलित वोट हम तुम्हें दे रहे हैं, बस चुन लिए जाओगे। इसी से मिलती जुलती राजनीति सपा की भी है। उसने यादवों और मुसलमानों का वोट बैंक बना रखा है। जिस प्रतद्याशी को यादव जाति और मुस्लिम समुदाय के वोट मिल गए वह विजयी हो गया। लेकिन भाजपा और कांग्रेस ने जातिवाद की राजनीति से खुद को बाहर रखा हुआ है। इसी का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण इलाकों में उनके पैर जम नहीं पा रही है। जहां मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ी जातियों के वोटों पर पूरी तरह से पकड़ बना रखा है और ये ही मत ज्यादा हैं।
जहां ये समीकरण काम नहीं करते वहां बाहुबलियों और धनबलियों को मैदान में उतार दिया जाता है। वे अपने काम भर की यानि दस-पंद्रह फीसदी वोट धौंस दिखा कर हासिल कर लेते हैं या खरीद लेते हैं। जब पचास फीसदी वोट हासिल करना जरुरी हो जाएगा तब धन और बाहुबल से चुनाव जीतना आसान नहीं रह जाएगा। लेकिन सबसे अहम सवाल तो ये है कि चुनावों में मतदाताओं की दिलचस्पी खत्म क्यों होती जा रही है? इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि उन्हें कहीं भी आशा की किरण नहीं देखाई दे रही है। मतदाता तो फटेहाल रह जाता है। उसकी समस्याएं पहले से भी ज्यादा जटिल हो जाती हैं। लेकिन उसके द्वारा चुना गया मालामाल हो जाता है। वह मतदाताओं की बजाए अपने और अपने परिजनों के हितों को पूरा करने में लग जाता है। मतदाताओं को बस आश्वासनों की घुट्टी पिलाई जाती है। छोटे से छोटे काम के लिए भी जनप्रतिनिधियों को घूस देना पड़ता हैं।
नौकर शाही भी जनप्रतिनिधियों के ही आगे पीछे घूमते नजर आती है। आम जनता को कोई तवज्जो नहीं देती। वह जन प्रतिनिधियों का ख्याल रखती हैं और जनप्रतिनिधि उनका खयाल रखते हैं। दोनों में तालमेल इस कदर बन जाता है कि वो एक दूसरे को लाभ पहुंचाते रहते हैं सांसद निधि की रकम इसी बंदरबाट में खर्च हो जाती है। जनता की समस्या जहां की तहां रह जाती है। मतदाता स्वयं को ठगा महसूस करने लगता है। इन्ही कारणों से लोगों नें चनाव के प्रति वितृष्णा पैदा होती जा रही है। मतदाताओं को सभी प्रत्याशी एक ही थैली के चट्टे बट्टे लगने लगते हैं। कोई सांपनाथ लगता है कोई नागनाथ।
वाराणसी के पिंडरा विधानसभा क्षेत्र में एक गांव खटौरा के सभी मतदाताओं ने इस चुनाव का बहिष्कार कर दिया। उनके गांव की सड़क नहीं बन पा रही है। न सांसद निधि और न विधायक निधि से और न ही प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत। विकास कार्य करने वाली कोई संस्था उस सड़क की ओर मुड़ कर नहीं देख रही है। ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक सभी बेखबर हैं। जर्जर सड़क दो जानें ले चुकी है। बरसात के दिनों में उस पर दो फुट पानी जमा हो जाता है। गांव के लोग किस मुसीबत से सड़क पार करते होंगे, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। फिर वे लोग क्यों डाले वोट?
इसके अलावा मतदान या प्रतिशत कम करने में नेताओं, प्रशासन, और नौकरशाही की मिली जुली फितरत भी कम जिम्मेदार नहीं है। प्रत्याशी या राजनीतिक दल अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उन मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से कटवा देते हैं, जिनके बारे में उन्हें आशंका होती है कि वे उनके खिलाफ मत देंगे। इस चुनाव में शासन ने अपने प्रभाव से बड़ी संख्या में सवर्ण मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब करवाए हैं। बाहुबली अपने विरोधी मतों को घरों से निकलने नहीं देते। लेकिन कुल मिलाकर सबसे बडा़ कारण इस चुनावी प्रक्रिया के प्रति मतदाताओं की लगातार बढ़ती उदासीनता ही है। इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

चुनाव का पहला चरण- उत्तर प्रदेश

छिटपुट नक्सली हिंसा के बीच 15 वीं लोकसभा के लिए पहले दौर का मतदान खत्म हो चुका है। चुनाव का पहला दौर पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिर्फ 16 संसदीय क्षेत्रों के लिए था। जिसमें 271 प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला मतदाताओं ने किया। इनमें से चुने जाने हैं सिर्फ सोलह। इक्का दुक्का निर्दलीय भले जीत जाएं लेकिन ज्यादातर सीटों पर मुख्य मुकाबला समाजवाद पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में ही रहा। लेकिन लगभग सभी सीटों पर त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय संघर्ष ही देखा गया। कहीं तीसरे कोण पर भाजपा थी तो कहीं कांग्रेस। लेकिन 16 में से कम से कम 10 सीटें बसपा और सपा के बीच ही बंटेगी। दो चार ज्यादा भी हो सकती है। वाराणसी और गोरखपुर में भाजपा को उम्मीद ज्यादा है। कांग्रेस के बारे में कोई निश्चित संभावना नहीं व्यक्त की जा सकती। उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस जीतने के लिए लड़ भी नहीं है। उसकी निगाह 2014 के लोकसभा चुनाव पर है। यह चुनाव वो इसलिए लड़ रही है कि कम से कम प्रदेश के कोने-कोने तक उसका संदेश पहुंचे। लगभग खत्म हो चुके संगठनात्मक ढांचे को प्रणवायु मिले और उसे समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियों की बैसाखी की जरूरत न पड़े। इसलिए कांग्रेस के मतो में कुछ प्रतिशत का इजाफा होगा तो वह इतने से संतुष्ट रहेगी।
कल्याण सिंह से दोस्ती करते समय मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की लोकप्रियता का लाभ उठाना और भाजपा को गहरी चोट पहुंचाना उनका मकसद है। इस तरह मुलायम सिंह एक सांप्रदायिक नेता की सहायता एक तथाकथित सांप्रदायिक पार्टी भाजपा को नेस्तनाबूद करने का सपना आखों में पाले हुए इस चुनाव में कूदे थे। पहले दौर के इस चुनाव में कल्याण सिंह की लोकप्रियता कसौटी पर कसी गई है। ये कितनी खरी उतरी है इसका पता परिणाम आने के बाद ही चलेगा। इस बात का भी परिणाम सामने आएगा कि कल्याण सिंह से हाथ मिलाने का कितना असर मुलायम सिंह के मुस्लिम वोटों पर पड़ेगा। किसने प्रतिशत मुस्लिम वोट कांग्रेस और बसपा के खाते में गए हैं।
प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमों ने एक तरफ माफिया डॉन मुख्तार को पार्टी का वाराणसी से उम्मीदवार बनाया और दूसरी तरफ वाराणसी की ही सभा में उन्होंने मुख्तार को क्लीन चिट दी। उन्होंने साफ कहा कि मुख्तार अंसारी अपराधी नहीं है। मायावती की धारणा है कि मुख्तार का व्यापक प्रभाव पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों पर है। इसका लाभ उन्हें पूर्वांचल में मिलेगा।
यह चुनाव यह स्पष्ट करेगा कि जिन 16 सीटों के लिए मतदान हुआ है उनपर बसपा को कितने प्रतिशत मुस्लिम मतों का लाभ मिला है। मुख्तार अंसारी ने सिर्फ अपने संसदीय सीट वाराणसी में ही मुसलमानों को अपने पक्ष में किया है या अन्य सीटों पर भी बसपा को मिलने वाले मुस्लिम मतों में इजाफा हुआ है। मायावती ने भाजपा के फायरब्रांड युवा नेता। वरुण गांधी पर रासुका लगाकर जेल में डाल दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के परिणाम स्वरुप वरुण पेरोल पर जेल से बाहर आ गए। इससे मायावती की जबरदस्त किरकिरी हुई और वरुण गांधी के प्रति मतदाताओं के मन में सहानुभूति का ज्वार उमड़ा है। भाजपा नेताओं के साथ ही राजनीति के विश्लेषकों का भी कहना है कि वरुण की बेवजह गिरफ्तारी और उनपर रासुका तामील करने का लाभ भाजपा को भी मिलेगा।
वरुण गांधी की पीलीभीत में भारी मतों से जीत तो तय है ही। उनकी मां मेनका गांधी भी आंवला संसदीय क्षेत्र से जीत जाएंगी। देखने की बात ये होगी कि पहले चरण में यूपी की जिन 16 सीटों पर मतदान हुआ उनमें भाजपा को इसका कितना लाभ मिला। मतदान स्थलों का दौरा करने वाले कुछ पत्रकारों को भाजपा की स्थिति में सुधार अवश्य देखने को मिला। लेकिन इसका निर्णायक प्रभाव किस हद तक पड़ेगा इसका पता तो मतों की गिनती के बाद ही लगेगा। वैसे भाजपा उत्तर प्रदेश की 16 सीटों पर अपनी स्थिति मजबूत बता रही है।
इतना तो तय है कि बसपा की लोकप्रियता इस चुनाव में वैसी नहीं रह गई है जैसी विधानसभा के चुनाव में थी। वरुण गांधी को रासुका में निरुद्ध करने का नकारात्मक प्रभाव तो उस पर पड़ा ही है। भदोही विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में पराजय की खीझ सिर्फ दो ब्राह्मण नेताओं पर उतारने का प्रतिकूल असर भी ब्राह्मण मतदाताओं पर पड़ा है। पहले चरण के मतदान में ब्राह्मण मतदाताओं का रुझान भाजपा की तरफ देखने में आया है। जौनपुर संसदीय क्षेत्र से इंडियन जस्टिस पार्टी के उम्मीदवार बहादुर सोनकर की हत्या का असर कम से कम सजातीय मतों पर तो पड़ा ही है। पुलिस भले ही इसे आत्महत्या बता रही हो। लेकिन स्थानीय लोग इसपर यकीन नहीं कर रहे। उनका पक्का विश्वास है कि उनकी हत्या की गई है और इसे अंजाम दिया है बसपा प्रत्याशी धनंजय सिंह के गुर्गों ने। क्योंकि सोनकर उन्हें ही क्षति पहुंचा रहे थे। इसके बावजूद बसपा की स्थिति अन्य पार्टियों के मुकाबले अच्छी दिखी। आजमगढ़ अकबर अहमद डंपी पिछले उपचुनाव के नतीजे दोहरा सकते हैं।
माना जा रहा है कि उंट किसी भी करवट बैठ सकता है।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

हिंदुस्तान के मार्क्सवादी

सन 1964 में हिंदुस्तान के कम्युनिस्टों ने जब लोकतांत्रिक तरीके से देश की सत्ता पर काबिज होने की रणनिती तय की तब से लेकर आज तक तारीख तक उन्होंने काफी पापड़ बेले। जब देश में आपातकाल लागू हुआ तब इसका समर्थन किया, क्योंकि उन्हें सत्ता के करीब पहुंचने का सुनहरा मौका हाथ लगता दिखाई दिया। लेकिन इंदिरा गांधी को किसी की बैसाखी मंजूर नहीं थी। इसका प्रमाण वह 1969 में कांग्रेस के दो टुकड़े करके दे चुकी थी। जब कम्युनिस्ट उन्हें फटे हुए लबादे की तरह बोझ लगने लगे तो उन्होंने एक झटके में उन्हें उतार फेंका और अपना रास्ता खुद बनाने का फैसला कर लिया।

बाद का इतिहास दोहराने की गुंजाइश यहां नहीं है। कहने का मकसद सिर्फ ये है कि जब जब केंद्र सरकार कमजोर दिखी। तब तब मार्क्सवादियों ने उसे अपने कंधे का सहारा दिया और गृह तथा विदेश नीति को प्रभावित करने की कोशिश की। एक तरफ वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग बने रहे। दूसरी तरफ माओवादी, नक्सलवादी आदि नामों से ऐसे हथियारबंद संगठन तैयार किए हैं जिनका मानना है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। यह विश्वास चीन के कॉमरेड माओ का था। ये हिंसक संगठन नेपाल से लेकर आंध्र प्रदेश तक खून की होली खेल रहे हैं।

अपने देश में मार्क्सवादियो ने जब मनमोहन सरकार का समर्थन किया तब उनका उद्देश्य यही था कि यह कमजोर सरकार उनके इशारे पर नाचती रहेगी और उसकी नीतियां मार्क्सवादियों की मुट्ठी में कैद रहेगी। वे मनमोहन सरकार को वामपंथी खेमे की ओर झुके रहने को विवश करती रहेंगी। चाहे भले चीन भारत से ज्यादा ताकतवर होता चला जाए। लेकिन जब मनमोहन सरकार ने मार्क्सवादियों की समर्थन वापसी की धमकी का परवाह किए बिना अमेरिका से परमाणु डील की तो मार्क्सवादियों का भ्रम टूट गया।

उन्होंने अपनी गोटियां इस तरह बिछानी शुरु कर दी कि केंद्र में कांग्रेस की अमेरिका परस्त सरकार की जगह ऐसी सरकार बने जिसमें न केवल वो शामिल हों वरन उनकी नकेल उनके हाथ में हो। मार्क्सवादियों ने तीसरा मोर्चा गठित करने का प्रयास शुरू किया। उन्हें उत्तर प्रदेश में बसपा का भविष्य काफी उज्ज्वल दिखाई दिया। सो मायावती से संपर्क साधा। मायावती तीसरे मोर्चे में शामिल हुई और मोर्चे की नेता घोषित कर दी गई। माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने उनमें प्रधानमंत्री बनने की संभावना भी देखी।

इससे पहले मुलायम सिंह यादव तीसरा मोर्चा छोड़ कर यूपीए सरकार का समर्थन कर चुके थे। माकपा ने तमिलनाडु ने जयललिता का भी समर्थन प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, उड़ीसा में नवीन पटनायक और कर्नाटक में देवगौड़ा तीसरे मोर्चे के साथ हो गए। मायावती को तीसरे मोर्चे में शामिल करने का एक उद्देश्य माकपा का यह भी था कि बसपा के सहयोग से उत्तर प्रदेश की धरती पर पांव जमाने का अवसर प्राप्त हो।
मायावती बेहद चालाक नेता है। वो जानती थी कि माकपाइयों के आदत उंगली पकड़कर गला पकड़ने की है। सो उन्होंने माकपा को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं दी। इससे प्रकाश करात थोड़ा निराश हुए लेकिन उनका पहला मकसद मनमोहन सिंह को दुबारा प्रधानमंत्री बनने से रोकना है। इसलिए माकपा ने महाराष्ट्र के मराठा छत्रप शऱद पवार को प्रधानमंत्री पद का सपना दिखाया। शरद पवार ने बयान दे दिया कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद के लिए यूपीए के नहीं कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। यूपीए का उम्मीदवार तो चुनाव परिणाम आने के बाद चुना जाएगा।
उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से चुनावी समझौता करके इस पीछड़े और गरीब राज्य की उर्वर जमीन में पांव जमाने का मौका माकपा को मिल गया है। माओवादी हरबा-हथियार के साथ पहले से ही सक्रिय हैं। मार्क्सवादी उड़ीसा में अपने लिए अच्छी संभावनाएं देख रहे हैं। उड़ीसा की सामाजिक आर्थिक और भौगोलिक स्थितियां भी उनके अनुकूल हैं।
माकपा ने बिहार में माओवादियों से चुनावी समझौता भी किया है। केरल में कांग्रेस मोर्चे और वाम मोर्चे के बीच बराबरी का मामला है। पिछली बार वाममोर्चा सत्ता में आया था इस बार कांग्रेस मोर्चा की बारी है।
अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक कम्युनिस्ट सिर्फ बंगाल और त्रिपुरा में पैर जमा पाए हैं। बंगाल में ममता बैनर्जी ने वाममोर्चे की नींद हराम कर रखी है। वह एक एक कदम आगे बढ़ रही हैं। नंदीग्राम और सिंगुर ने मार्क्सवादियों के राक्षसी अत्याचार ने ममता के त्रृणमूल कांग्रेस का जड़े और गहराई तक पहुंचा दी हैं। नंदीग्राम मुस्लिम बहुल इलाका है। वहां की मुस्लिम महिलाओं पर माकपा कैडर ने अमानवीय जुल्म ढाए। इस घटना से बंगाल के मुसलमान वामपंथियों से खफा हैं। बंगाल में मुस्लिम आबादी 30 फीसदी है। पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने वाममोर्चे को तगड़ा झटका दिया।
लोकसभा चुनाव कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस मिलकर लड़ रहे हैं। इससे मार्क्सवादियों की नींद उड़ गई है।
आंध्र प्रदेश में फिल्म स्टार चीरंजीवी ने चंद्रबाबू नायडू की आशाएं धूमिल कर दी हैं। हांलाकि कांग्रेस की चिंता भी बढ़ गई है। लेकिन असली तुषारपात तीसरे मोर्चे की आकाक्षांओं पर ही होना है। दारोमदार बंगाल, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और तमिलनाडु पर है। दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि चुनाव परिणाम आने के बाद कौन सी पार्टी तीसरे मोर्चे के साथ रहेगी। कौन सी उस दल के साथ चली जाएगी जिसे सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरने पर राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगी। बहरहाल माकपा ने सत्ता सुख भोगने का मन बना लिया है। यदि तीसरे मोर्चे को अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो वह यूपीए सरकार में शामिल हो जाएगी।

अभद्रता की पराकाष्ठा


जब अलजरीरा के एक पत्रकार ने अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूता फेंका था तो भरतीय मीडिया का मुख्य स्वर कुल मिलाकर सकारात्मक था। पत्रकार के प्रति सहानुभूति थी, हमदर्दी थी और प्रशंसा के भाव थे। इस व्यापक समर्थन से वह हीरो बन गया था। मीडिया ने उसे पत्रकारिता के बुनियादी सरोकारों, पेशेगत नैतिकता और धर्म तथा पत्रकारिता के सिद्धांतों की याद नहीं दिलाई थी। उस पत्रकार के आक्रोश को अमेरिका की कथित अमानवीय चेहरे और ज्यादतियों से जोड़ा था। उसके किए को स्वभाविक और जायज ठहराने की कोशिश हुई थी।


यदि भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंकने की प्रेरणा भारतीय पत्रकार जरनैल सिंह को मिली हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किसी बुरी और अनैतिक घटना को भी जब व्यापक समर्थन मिलता है, उसे सिद्धांतों का जामा पहनाया जाता है, उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की जाती है तो उसकी पुनरावृत्ति की संभावना जन्म ले लेती है। क्योंकि यह एक आदर्श नजीर बन जाती है। व्यक्ति को महिमामंडित हो जाने की। अल जजीरा के जिस पत्रकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूता फेंका था उसके पेशेवर कर्तव्य और उत्तर दायित्व पर उसका धर्म हावी हो गया था। वह एक तरह से धार्मिक उन्माद से ग्रस्त था। उसका पत्रकारिता कर्म कोरी भावुकता के हवाले हो गया था। वो पत्रकार कम था धार्मिक ज्यादा था। इसलिए उसने अपनी नादान हरकत दोहराने का संकल्प व्यक्त किया था।


यही बात जरनैल सिंह के साथ भी थी। वह यह भूल गया था कि एक पत्रकार को अपनी भावुकता पर काबू पाते हुए वस्तुनिष्ठ तथ्यों के आधार पर समाचार संकलित करना चाहिए। समाचार संतुलित, निष्पक्ष और संदेह से परे होना चाहिए। एक पत्रकार के लिए व्यक्तिगत निष्ठा का कोई महत्व नहीं होता। खास तौर पर तब जब वह अपने कर्तव्यपथ पर चल रहा हो। यानि समाचार संकलित कर रहा हो। निजी जीवन और पत्रकार जीवन में बुनियादी तौर पर बहुत फर्क होता है। पत्रकार की निजी दृष्टी उसकी पत्रकारिता पर हावी नहीं होनी चाहिए। जरनैल सिंह ने जब गृह मंत्री पर जूता फेंका तब उसने पत्रकारिता के सारे सिद्धांतो, मुल्यों, प्रतिमानों और मानदंडों की धज्जियां उड़ा दी थी। जिस पत्रकार की लेखनी में धार होती है, जिसके पास शब्द होते हैं, शैली होती है वह इस तरह की ओछी हरकत नहीं कर सकता।


हर पत्रकार का कोई न कोई धर्म तो होता ही है। लेकिन पत्रकारिता धर्म को अपने निजी धर्म से उपर रखता है। ऐसा करने में असमर्थ व्यक्ति को पत्रकारिता छोड़ देनी चाहए। फिर तो वह अपना विरोध दर्ज कराने के तमाम लोकतांत्रिक- गैर लोकतांत्रिक तौर तरीकों में से कोई भी चुनने को स्वतंत्र हो जाता है। यह जरनैल सिंह का पत्रकार ही था कि जिसने उन्हें उनके किए का परिणाम भुगतने से बचा लिया, वर्ना वे जेल के सीखचों में होते। वैसै पत्रकारिता की ढाल के पीछे अपने आपको सुरक्षित रखकर तमाम तरह के अनापशनाप धंधे करने वाले पत्रकारों की कमी नहीं है लेकिन पत्रकारिता की विश्वसनीयता बचाए रखने के लिए जहां तक संभव हो इससे बचना चाहिए।


इस बात से असहमत होना कठिन है कि सीबीआई केंद्र सरकार दबाव में या फिर निर्देश पर काम करती है। केंद्र सरकार लाख सफाई दे कि सीबीआई के कार्यों में वह हस्तक्षेप नहीं करती। लेकिन किसी को उसपर यकीन नहीं होता। सीबीआई का इस्तेमाल केंद्र सरकारों ने जिस तरह अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किया है। उसने सीबीआई की विश्वसनीयता को तार तार कर दिया है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब सपा नेता मुलायम सिंह यादव और उनके परिजनों के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सीबीआई रवैया उस समय बदल गया सपा ने परमाणु डील पर केंद्र सरकार का समर्थन किया। इस रवैये पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को फटकारा था।


जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट देने से पहले सीबीआई प्रमुख ने गृहमंत्री से गुफ्तगू की थी, यह खबर मीडिया में छपी थी। सिख विरोधी दंगे में जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की संलिप्तता को लेकर किसी के मन में संदेह नहीं है। इसलिए सीबीआई भले जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट दे दे। लेकिन जनता उन्हें किसी भी हालत में निर्दोष नहीं मान सकती। इससे सिख समुदाय की भावनाएं आहत हुई हैं। उनमें आक्रोश है। यह स्वाभाविक है। गृहमंत्री औऱ सीबीआई संदेह के कठघरे में खड़े हैं। सीबीआई को यह गलत निर्णय लेने के लिए इस लिए बाध्य किया गया ताकि जगदीश टाइटलर को लोक सभा का उम्मीदवार बनाया जा सके। लेकिन सिख समुदाय ने इतना व्यापक और गहरा आक्रोश है कि यह निर्णय केंद्र सरकार और कांग्रेस के गले की फांस बन गया। सिख संगठन अपने तरीके से आक्रोश व्यक्त भी कर रहे हैं।


लेकिन जरनैल सिंह ने आक्रोश व्यक्त करने का जो तरीका अपनाया उससे पत्रकारिता कलंकित हुई है। यदि यह सिलसिला चल पड़ा तो इस पवित्र पेशे का क्या होगा इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। समाचार संकलन के बहुत सारे श्रोत मुश्किल में पड़ सकते हैं। मान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी परीक्षा की जटिलता से गुजरना पड़ सकता है। जो स्वतंत्रता उन्हें इस समय प्राप्त है उस पर ग्रहण लग सकता है। पत्रकारों के हित में यही होगा कि वो पत्रकारिता की मर्यादा और अपनी सीमाएं बखूबी समझें। कर्तव्यबोध का दामन न छोड़े और अपनी कलम पर भरोसा रखे।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

लालू-राबड़ी के बहाने


हिंदुओं को रिझाने के लिए भाजपा के युवा प्रत्याशी वरुण गांधी ने जो काम अपने चुनाव क्षेत्र पीलीभीत में किया, मुसलमानों को रिझाने के लिए वही काम राजद सुप्रीमों और रेलमंत्री लालू यादव ने किशनगंज की सार्वजनिक सभा में किया। वरुण अपना चुनाव प्रचार कर रहे थे और लालू चर्चित मुस्लिम नेता तस्लीमुद्दीन के नामांकन के बाद एक सभा को संबोधित कर रहे थे। मंच पर लोजपा नेता रामविलास पासवान विराजमान थे। लाल यादव ने वरुण गांधी की आलोचना करते हुए कहा कि यदि मैं गृहमंत्री होता तो मुसलमानों के खिलाफ टिप्पणी करने वाले वरुण गांधी की छाती पर रोलर चलवा देता।

वरुण गांधी युवा हैं और राजनीति के लिए नए हैं। लेकिन लालू यादव के पास तो राजनीति का लंबा अनुभव है। वो विचारों और अनुभव दोनों से ही परिपक्व नेता हैं। उनके मुंह से इस तरह की ओछी बाते शोभा नहीं देती। जिससे एक तानाशाह की गंध निकलती हो। इस तरह के भड़काऊ और लिजलिजी भाषा का इस्तेमाल वही कमअक्ल नेता करता है जिसके पास विचारों का अकाल होता है। उसकी लट्ठमार भाषा सिर्फ अनपढ़ और जाहिल लोगों को लुभाती है।

बिहार में लालू यादव के 20 सालों के शासनकाल में इस तरह के लोगों की भारी भरकम फौज खड़ी हो गई है। किशनगंज मुस्लिम बहुल इलाका है। वहां के लिए तस्लीमुद्दीन जैसे माफिया उम्मीदवार और लालू जैसे छिछोरे वक्ता दोनों ही उपयुक्त हैं। देश का सौभाग्य है कि लालू यादव गृह मंत्री नहीं हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने गृह मंत्रालय की पुरजोर मांग की थी। इसके लिए वो कुछ दिनों तक कोपभवन में भी रहे। लेकिन उन्हें रेल मंत्रालय पर राजी किया गया।

कांग्रेस के नेता उनकी उजड्डता और वैचारिक दिवालियेपन से अच्छी तरह से परिचित थे। यदि उन्हें गृहमंत्री बना दिया जाता तो पूरा देश बिहार जैसी अराजकता की आग में झुलस रहा होता। और लालू अपने राजनीतिक विरोधियों पर रोलर भले ही न चलवाते लेकिन उस जैसा ही कोई ऐसा काम जरुर करते जो उससे ज्यादा खतरनाक हो सकता था। और उसके नीचे दबी रियाया न चीख पाती, न सांस ले पाती। एक तानाशाह की तरह लालू यादव बदहाली और पीड़ा से छटपटाती जनता की असहायता पर अट्टाहास कर रहे होते।

तो क्या वरुण गांधी जैसा ही कार्य करने के लिए लालू यादव पर भी रासुका लगा देना चाहिए?

ऐसा न तो संभव है और नहीं उचित। फिर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मायावती हो भी नहीं सकते। नीतीश कुमार वोट की राजनीति सिद्ध करने लिए इतना घिनौना खेल नहीं खेल सकते जितना मुस्लिम वोटों के लिए यूपी में मायावती ने खेला है। लालू यादव पढ़े लिखे हैं। इसलिए जो कुछ अनापशनाप बोलते हैं एक सोची समझी रणनीति के तहत ही बोलते हैं। शक्ल से भले ‘लल्लू’ लगते हों।

लेकिन उनकी धर्मपत्नी राबड़ी देवी अपने पति का अनुकरण में कभी कभी मात खा जाती है। लेकिन उन्हें भी राजनीति का कम अनुभव नहीं है। बिहार की मुख्यमंत्री रह चुकी है। लेकिन वो अपने कहे के फलितार्थों का आकलन करने में चूक जाती हैं। वो इन दिनों सारण संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार अपने पति लालू यादव को विजय दिलाने में जुटी है। लेकिन वह लालू की नकल में कुछ ऐसी बातें कर गईं कि कानूनी शिकंजे में फंस गईं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जदयू के प्रदेश अध्यक्ष लल्लन सिंह को लेकर गाली-गलौज पर उतर आईं जो तमाम लोगों की तरह चुनाव आयोग को भी नागवार लगा। और उसने उनके भाषण की सीडी तलब की है।

फिलहाल उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली गई है। राबड़ी देवी के खिलाफ जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 125 और आईपीसी की धारा 171 के तरह मामला दर्ज किया गया है। राबड़ी देवी की सभा की सीडी मिलने के बाद चुनाव आयोग अलग कार्रवाई करेगा। बिहार की इस पूर्व मुख्यमंत्री के खिलाफ एक और मामला दायर किया गया है।

राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर खुलेआम आरोप लगा दिया कि मुख्यमंत्री ने कोर्ट और मीडिया को मुठ्ठी में कर रखा है। इस आपत्तिजनक आरोप पर एक अधिवक्ता आशुतोष रंजन पांडे ने पटना उच्च न्यायालय में मानहानि का आपराधिक मामला दायर कर दिया है।

भाजपा लीगल सेल के संयोजक अवधेश कुमार पांडे ने भी एक याचिका दायर करके राबड़ी देवी पर अवमानना का मुकदमा चलाने का आग्रह किया है। पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की दो सदस्यीय खंडपीठ के समझ दायर याचिका में कहा गया है कि राबड़ी देवी के आपत्तिजनक भाषण को स्वयं संज्ञान में लेते हुए न्यायालय को उनके खिलाफ कोर्ट की अवमानना का मामला चलाना चाहिए। लालू यादव भी कानून के घेरे में आ गए हैं और उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए गए हैं।

लेकिन बौद्धिक समाज के लिए चिंता की बात ये है कि क्या ऐसे ही सतही सोच भाषाहीन नेता देश का नेतृत्व करते रहेंगे? यदि कोई पार्टी या नेता कथित धर्म निरपेक्षता और फासीवाद से संघर्ष के नाम पर असंगत भाषा का प्रयोग करके वोट बैंक की ओछी राजनीति करेगा तो प्रतिद्वंदी क्यों पीछे रहेगा? एक मुस्लिम समाज का भयादोहन करके उसका अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने का प्रयास करेगा। तो दूसरा हिंदु समाज को अपने पक्ष में गोलबंद करने का प्रयास क्यों नहीं करेगा?

यदि हम मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति को सही ठहराएंगे। तो हिंदू वोटबैंक की राजनीति को किस आधार पर गलत कह सकेंगे? जाहिर है कि दोनों समुदायों को अपने पीछे गोलबंद करने के लिए उनके भीतर नफरत और खौफ के बीज बोने ही होंगे। यही कार्य आजादी के पूर्व अंग्रेजों ने किया और आजादी के बाद विभिन्न राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं। बल्कि आजाद भारत के नेता एक कदम आगे बढ़कर हिंदू और मुस्लिम समाज के भीतर जातिगत झगड़े पैदा करने की कोशिश में जुट गए हैं। हिंदू समाज तो बंट ही चुका है, मुस्लिम समाज को अगड़े औऱ पीछड़े तबकों में बांटने की कोशिश शुरू हो गई है। कैसा होगा हमारे लोकतंत्र का स्वरुप?

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

शरद पवार की महत्वाकांक्षा

राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के नेता और केंद्र सरकार में कृषि मंत्री शरद पवार का कहना है मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद के लिए यूपीए के उम्मीदवार नहीं, कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। यूपीए तो अपना नेता चुनाव आने के बाद चुनेगा। अभी तो यूपीए के कई घटक दल अलग अलग चुनाव लड़ रह रहे हैं।

यह देखा जाना बाकी है कि कौन पार्टी यूपीए में शामिल होती है और कौन राजग में। पवार ने अपनी पार्टी का घोषणापत्र जारी किया जिसमे कहा गया है कि सत्ता में आने के बाद कानून में परिवर्तन किया जाएगा। ताकि प्रधानमंत्री पद पर चुना गया व्यक्ति पांच साल तक बना रहे। इस व्यवस्था का संकेत साफ है कि यदि शरद पवार प्रधानमंत्री चुने गए तो पांच साल तक फिर कुर्सी पर बने रहेंगे। पवार ने आशा व्यक्त की है कि अगली सरकार केंद्र में यूपीए की ही बनेगी।

शरद पवार तीसरे मोर्चे के संपर्क में हैं। मोर्चे के नेता माकपा के महासचिव प्रकाश करात से उनकी बातचीत चलती रहती है। प्रकाश करात ने जबसे उन्हें प्रधानमंत्री पद का लॉलीपाप पकड़ाया है तबसे वो मगन है। चुनाव परिणाम यदि तीसरे मोर्चे को सत्ता के समीप ले जाते हैं तो पवार को इस मोर्चे के साथ होने में देर नहीं लगेगी। प्रकाश करात तीसरे मोर्चे को सुदृढ करने या कांग्रेस का खेल बिगाड़ने के लिए तुरूप के पत्ते चल रहे हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती के दिल में भी प्रधानमंत्री बनने का बीज डाल दिया है जो धीरे धीरे अंकुरित होने लगा है।

उत्तर प्रदेश में अपने दम पर चुनाव लड़ने की मायावती की घोषणा से यद्यपि तीसरा मोर्चा निराश हुआ है। लेकिन उसे यह उम्मीद तो है ही कि यूपीए का विकल्प बनने में मायावती महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती हैं। वैसे मायावती ने ये मान लिया है कि उनके सितारे उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जरुर बिठाएंगे।

शरद पवार तो इतने आश्वस्त हैं कि उन्होंने गुजरात में कांग्रेस से चुनावी समझौता तोड़ दिया है। गुजरात की सीमाएं महाराष्ट्र से लगती हैं, इसलिए शरद पवार मान बैठे हैं कि गुजरात में उनका प्रभाव कांग्रेस से कई गुना ज्यादा है। गुजरात में यदि उनकी पार्टी अच्छा प्रदर्शन करती है तो उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावनाए बढ़ जाएंगी क्योंकि तीसरे मोर्चे का समर्थन तो मिलेगा ही।

उड़ीसा में बीजू जनता दल के तीसरे मोर्चे के साथ होने से शरद पवार का हौसला और बढ़ा है। वहां नवीन पटनायक की सरकार वामपंथियों की बैसाखी पर ही टिकी है क्योंकि लोकसभा चुनाव में नवीन पटनायक की पार्टी और भाजपा में चुनावी समझौता न होने पर भाजपा पटनायक सरकार से बाहर हो गई और लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला कर लिया। भाजपा को उम्मीद है कि वह उड़ीसा में कर्नाटक की स्थिति दुहराएगी। इसमें दो राय नहीं कि संघ और विहिप की कोशिश से उड़ीसा के आदिवासी इलाकों भाजपा की स्थित पहले की अपेक्षा मजबूत हुई है। लेकिन नवीन पटनायक इतने भी कमजोर नहीं है कि उड़ीसा से उनका बोरिया बिस्तर ही गोल हो जाए। बहरहाल भाजपा ने एक दांव चला है जो उसके उलट भी पड़ सकता है और पक्ष में भी पड़ सकता है।

लेकिन शरद पवार दो नावों पर पैर जरुर रखे हुए हैं। वो हाल ही में उड़ीसा में आयोजित तीसरे मोर्चे की रैली में उन्होंने फोन से भाषण दिया था। सफाई ये दी थी कि ये रैली तीसरे मोर्चे की नहीं बल्कि बीजद की थी। हांलाकि रैली तो वास्तव में तीसरे मोर्चे की ही थी। पवार की सफाई कांग्रेस को भ्रम में रखने की चाल थी।

कांग्रेस को यकीन है कि चुनाव के बाद यदि तीसरे मोर्चे को अपेक्षित परिणाम नहीं हासिल होगा तो राजग को सत्ता में आने से रोकने के लिए भाकपा या तो यूपीए में शामिल हो जाएगी या बाहर से समर्थन देगी। उसके साथ के छोटे छोटे क्षेत्रीय दल भी यूपीए में शामिल हो जाएंगे। कांग्रेस को यह भी विश्वास है कि यूपीए में सबसे बड़ा दल होने की वजह से उसके द्वारा प्रस्तावित व्यक्ति प्रधानमंत्री पद पर चुन लिया जाएगा।

लेकिन कांग्रेस को शायद इस बात का एहसास नहीं है कि यहीं से प्रकाश करात, शरद पवार, नवीन पटनायक और तीसरे मोर्चे के अन्य नेताओं का खेल शुरु हो जाएगा। माकपा किसी कीमत पर नहीं चाहेगी कि घोर अमेरिका परस्त मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने। वह इस पद के लिए भी शरद पवार का नाम उछाल देगी। जिसरे तीसरे मोर्चे के सांसदों का समर्थन तो मिलेगा ही कांग्रेस में शरद पवार के समर्थकों का भी समर्थन मिलेगा। शरद पवार का यह बयान इसी राजनीतिक गणित पर आधारित है कि डॉक्टर मनमोहन सिंह कांग्रेस के उम्मीदवार हो सकते हैं यूपीए के नहीं।

माकपा का पूरा प्रयास होगा मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर आसान होने से रोकने का। इसके लिए उसे शरद पवार से उपयुक्त कोई दूसरा उम्मीदवार नहीं मिल सकता है जो कांग्रेस में भी सेंधमारी की क्षमता रखता हो। माकपा प्रधानमंत्री पद के चुनाव में खड़मंडल पैदा करने के इरादे से ही यूपीए में शामिल हो सकती है। विभिन्न राज्यों में कांग्रेस की स्थिति देखते हुए माकपा की इस धारणा को बल मिलता है कि मनमोहन सिंह को फिर प्रधानमंत्री बनाने से रोकने के लिए कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी पर दबाव बनाया जा सकता है। यदि मनमोहन सिंह की जगह दूसरा कोई प्रधानमंत्री हुआ तो सरकार को अमेरिका की अपेक्षा रुस की तरफ आसानी से झुकाया जा सकता है। जैसा जवाहर लाल नेहरू या इंदिरा गांधी के जमाने में था।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

भाजपा का घोषणापत्र


भारतीय जनता पार्टी ने 15वीं लोकसभा चुनाव के लिए जारी अपने घोषणापत्र में शायद ही कोई विषय छोड़ा हो। राम भक्तों से लेकर गरीब आदमी तक को और युवाओं से लेकर महिलाओं तक को खुश करने की कोशिश की है। खास बात ये है कि इस घोषणा पत्र में मुस्लिम तुष्टिकरण का सवाल उठाए बिना हिंदुत्व के एजेंडे को प्रमुखता दी गई है।

अयोध्या में राम मंदिर बनाने, रामसेतु को बचाने के लिए वैकल्पिक मार्ग की व्यवस्था करने और गौहत्या पर पूरे देश में प्रतिबंध लगाने का वायदा किया गया है। गंगा के साथ ही सभी बड़ी नदियों की सफाई पर ध्यान दिया जाएगा और कश्मीर से धारा 370 हटाने के लिए प्रभावी कार्रवाई की जाएगी।

घोषणापत्र में गरीबों पर भी पूरा ध्यान दिया गया है। बीपीएल परिवार को प्रतिमाह 35 किलो चावल या गेहूं मात्र दो रुपए प्रतिकिलो के हिसाब से दिया जाएगा। किसानों को सिर्फ 4 फीसदी ब्याज पर ऋण मुहैया कराए जाएंगे और इस समय उनपर जितने भी ऋण हैं उन्हें माफ कर दिया जाएगा।

असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए ‘कार्मिक बैंक’ खोले जाएंगे ताकि उन्हें उचित समय पर सहायता मिल सके। शहरी गरीबों के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जाएंगे और गरीब कारोबारियों को चार फीसदी ब्याज पर ऋण दिलाया जाएगा। आयकर सीमा तीन लाख करके छोटे नौकरी पेशा लोगों को राहत दी जाएगी। महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों के लिए आयसीमा साढ़े तीन लाख रुपए सालाना होगी। निगमित क्षेत्रों और व्यापार से होने वाली आय को छोड़कर बैंकों में जमा सभी तरह की राशियों पर मिलने वाले ब्याज को आयकर से मुक्त कर दिया जाएगा।

खुदरा क्षेत्र में एफडीआई पर रोक लगाने का वायदा भी किया गया है। राजग सरकार यदि सत्त में आई तो आतंकवाद रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाएगी। समुद्री सीमा की सुरक्षा की जाएगी और खुफिया तंत्र को प्रभावशाली बनाया जाएगी। देश में सक्रिय उग्रवादियों से सख्ती के साथ निपटा जाएगा। और सीमापार से संचालित आतंकवाद तथा देश में अलगाववादी गुटो को मिलने वाले धन के श्रोतों को बंद किया जाएगा।

एक अरसे से लंबित सेना की एक रैंक-एक पेंशन की मांग को लागू किया जाएगा और सभी सुरक्षा बलों के जवानों को मिलने वाला वेतन आयकर से मुक्त होगा। इसके अलावा भाजपा ने सेना के लिए अगल वेतन आयोग गठित करने का आश्वासन भी दिया है।

भाजपा के घोषणा पत्र में महिलाओं के हितों का भी ध्यान रखा गया है। विधायिका में महिलाओं के लिए 35 फीसदी आरक्षण के लिए कानून बनाया जाएगा। पूरे देश में ‘लाड़ली लक्ष्मी’ कार्यक्रम लागू किया जाएगा। बीपीएल परिवार की स्कूल जाने वाली हर छात्रा को मुफ्त में साईकिल दी जाएगी। युवकों को आगे लाने के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जाएगा। सन 2014 तक सभी व्यक्तियों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए व्यापक कार्यक्रम चलाए जाएंगे।

पेंशन को करमुक्त कर दिया जाएगा। और यात्री सुविधाओं की उम्र 65 वर्ष से घटाकर साठ वर्ष कर दी जाएगी। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि भाजपा के चुनाव घोषणा पत्र को विस्तृत आयाम दिया गया है। बीपीएल परिवार को तीन रुपए प्रति किलो अनाज देने की घोषणा कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में की है। भाजपा ने एक कदम आगे बढ़कर 2 रुपए प्रतिकिलो अनाज देने की घोषणा की। इसके लिए राजग सरकार को भारी सब्सिडी देनी पड़ेगी।

किसानों की कर्जमाफी की योजना तो मौजूदा केंद्र सरकार ने भी लागू की थी। लेकिन आधे-अधूरे मन से। इससे सरकार पर भारी वित्तीय बोझ पड़ा था। यही कार्य करने का वायदा भाजपा ने भी किया है। केंद्र सरकार खाद और बीज पर सब्सिडी लगातार घटाती जा रही है। इसलिए एक तो ये महंगे होते जा रहे हैं। दूसरी ओर इनकी उपलब्धता कम होती जा रही है। खाद के लिए जुटी किसानों की बेसब्र भीड़ पर पुलिस बेरहमी से लाठियां बरसाती है।

खेती के काम आने वाले जिंसों के दामों में बेतहाशा वृद्धी होती जा रही है। इसलिए ये घाटे का सौदा बन गई है। कर्ज में डूबे किसानों को आत्महत्याएं तक करनी पड़ रही है। इसलिए सिर्फ बैंक का ऋण माफ कर देने से काम नहीं चलेगा। इस दिशा में ऐसा ठोस उपाय करना पड़ेगा कि खेती घाटे से उबर कर लाभ की स्थिति में आ जाए और किसान आत्मनिर्भर हो जाए।

प्राय देखा गया है कि सरकारें जो योजनाएं चलाती हैं, जमीनी स्तर पर उन्हें लागू करना बेहद कठिन होता है। ये जनहित की योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। बीपीएल परिवारों को सस्ते दर पर अनाज दिए जाने वाली योजना का यही हाल है। अनाज केंद्र सरकार देती है, उसे गरीबों तक पहुंचाने वाली मशीनरी राज्य सरकार की होती है। केंद्र सरकार ने इस योजना के मॉनिटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं की है। इसमें लाभ का मार्जिन बहुत ज्यादा है। इसलिए कोटेदार से लेकर खाद्य विभाग के कर्मचारियों और अफसरों तथा खाद्य मंत्रालय तक इस सस्ते अनाज की चोरबाजारी से होने वाली आय का बंटवारा होता है। गरीब परिवार अभिशप्त होते हैं।

इसी प्रकार भाजपा मंदिर और कश्मीर से धारा 370 हटाने के बारे में दिए गए आश्वासनों को लागू नहीं कर सकती। इसके लिए भाजपा को केंद्र में अपने दम पर पूर्ण बहुमत से लेकर दो तिहाई बहुमत वाली सरकार चाहिए। मिलीजुली सरकारों के बल पर ये आश्वासन पूरे नहीं किए जा सकते।

यही हाल गोवंश की हत्या पूरे देश में रोकने से संबंधित मुद्दे का भी है। कोई सरकार देश के विभिन्न हिस्सों में व्यक्तियों के खानपान को नियंत्रित नहीं कर सकती। दूर क्यों जाएं जिस उत्तर प्रदेश में गोकशी पूरी तरह प्रतिबंधित है। उसमें भी गोमांस का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है।

आवश्यकता इस बात की है कि कल्याणकारी योजनाओं को व्यवहारिक धरातल पर भी परखा जाए। और उनपर निगरानी के लिए ऐसी मशीनरी विकसित की जाए जो उसका दुरुपयोग रोक सके। प्राय देखा गया है कि राजनीतिक पार्टियां चुनावों के मौकों पर जो घोषणाएं करती है, उनका क्रियान्वयन संभव नहीं हो पाता। होता भी है तो आधा अधूरा।

सरकार और जनता के बीच का भ्रष्ट तंत्र पूरी मलाई हजम कर जाता है। इसे रोकने के लिए सरकार को अपने कार्यविधि में गुणात्मक परिवर्तन लाना होगा। यदि भाजपा के घोषणा पत्र में किए गए सारे वायदे पूरे हो जाएं तो देश में सचमुच राम राज्य आ जाए। लेकिन जनता जानती है कि उसके नसीब में यह नहीं हैं।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

स्विस बैंकों में कालाधन और भाजपा

स्विस बैंकों में जिन देशों का काला धन जमा है। उनमें भारत सबसे उपर है। स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीयों के 735 खरब रुपए स्विस बैंकों में जमा हैं। इसके बाद रुस (4.7 खरब डॉलर), ब्रिटेन (3.9 खरब डॉलर), यूक्रेन (1 खरब डॉलर) औऱ चीन 96 अरब डॉलर का नंबर आता है।

यूरोपीय यूनियन और अमेरिका के भारी विरोध के कारण स्विटजरलैंड इस बात पर राजी हुआ है कि वह अपने यहां के बैंकों की गोपनीयता उजागर करेगा। उसने यह भी कहा है कि वह टैक्स चोरी करने वाले विदेशियों को नहीं बचाएगा। जिन भारतीयों ने पिछले साठ सालों में स्विस बैंकों में अकूत काला धन जमा किया है। उनमें राजनेता व्यवसायी, नौकरशाह और माफिया शामिल हैं। भारतीयों की जो धनराशी स्विस बैंकों के गोपनीय खातों में जमा है वो हमारे बजट का आठ गुना और विदेशी कर्ज का 13 गुना है। इसे 42 करोड़ भारतीयों के बीच एक एक लाख रुपए बांटा जा सकता है। यह धन भारतीय जनता की गाढ़ी कमाई और लूट का है।

राजीव गांधी ने एक बार कहा था कि देश के विकास कार्यों में खर्च के लिए एक रुपया दिया जाता है तो उसमें से 15 पैसा ही इस्तेमाल में आता है। बाकी पैसा भ्रष्टाचारियों की जेब में चला जाता है। लूट की यही रकम स्विस बैंकों में जमा हैं। बाबा रामदेव ने देश के बेईमान औऱ भ्रष्ट लोगों के इस काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने की मांग की है। विपक्ष के कुछ नेताओं ने उन भारतीयों के नाम सार्वजनिक किए जाने की मांग सरकार से की है। जिनकी काली कमाई स्विस बैंकों में जमा है।

भारतीय जनता पार्टी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाने का निश्चय किया है यह उसके घोषणा पत्र से जाहिर होता है। भाजपा के मुताबिक आजादी के बाद देश में सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस का ही शासन रहा है इसलिए सर्वाधिक काला धन उसी के शासन काल में स्विस बैंकों में जमा हुआ। बीच बीच में देश के काले धन को सार्वजनिक करने की मांग उठती रही है। लेकिन तत्कालीन सरकारों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।

भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मांग की थी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जी-20 सम्मेलन में भारतीयो के काले धन का मुद्दा उठाना चाहिए। वे जनता को आश्वासन देते हैं कि यदि भाजपा सरकार सत्ता में आई तो स्विस बैंकों में जमा काला धन स्वदेश लाएगी। इस बारे में कानूनी और आधिकारिक स्तर पर कार्रवाई की जाएगी। भारतीय नागरिकों को मजबूर कर दिया जाएगा कि वे काले धन को अपने देश में लाएं।

आडवाणी ने कहा कि 2007 में भारतीयों के स्विस बैंको में 285 लाख करोड़ रुपए जमा थे। इसे यदि देश में लाया गया होता तो विकास की कई जरुरते पूरी हो सकती थी। उन्होंने विदेशों में जमा धन को आतंक, अपराध और काला धन का गठजोड़ बताया। कहा कि हमें इससे निपटने के लिए साहस और सूझबूझ के साथ आगे बढ़ना है। आडवाणी ने कहा कि चुनाव आयोग को सभी उम्मीदवारों से हलफनामा दायर करवाना चाहिए जिसमें वे विदेशों में जमा धन का खुलासा करें।

स्विस बैंकों की एक खूबी यह है कि वे ग्राहकों के खातों के स्टेटमेंट की जगह खाताधारकों के नामों की जगह नंबरों और कोड का इस्तेमाल करते हैं। यदि यह स्टेटमेंट किसी के हाथ लग भी जाए तो पता नहीं चल सकता कि खाता धारक कौन है।
विश्व भर के व्यापारी और राजनेता स्विस बैंकों की इस गोपनीयता का गलत फायदा उठा रहे हैं। मजे की बात तो यह है कि पूंजीवादी देशों के काले धन तो स्विस बैंकों में हैं ही स्वयं को ईमानदार बताने वाले रुस और चीन के बाशिंदो के खाते भी हैं।

वैश्विक आर्थिक मंदी से निपटने के लिए अमेरिका ने स्वस बैंकों मे जमा अपने देश के लोगों की अकूत दौलत वापस लाने का निश्चय किया और स्विस सरकार पर दबाव बनाया। उसने स्विटजरलैंड को काली सूची में डालने की धमक भी दी । इसके बाद ही स्विस सरकार ने स्विस बैंकों की गोपनीयता को दूर करने का संकेत दिया है। यूरोपीय औऱ पश्चिमी सरकारों के अलावा भारत सरकार ने भी इस दिशा में वैधानिक कार्रवाई शुरु कर दी है।

लेकिन भाजपा को यह मुद्दा चुनाव हथियार के रुप में कारगर लगा। बहरहाल हम बता दें कि स्विटजरलैंड की अर्थव्यवस्था मुख्य रुप से अपने यहां के बैंकों में जमा काले धन और पर्यटन पर ही निर्भर है। जिस दिन उसके बैंकों से दुनिया भर के लोगों का जमा काला धन निकल जाएगा उस दिन उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। तो क्या वह स्विस बैंकों में धन जमा करने वाले के नाम सार्वजनिक कर अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार लेगा?

विश्वभर के उद्योगपतियों, राजनेताओं और अपराधियों ने स्विटजरलैंड की गोपनीय बैंकिंग प्रणाली के कारण ही वहां के बैंकों में धन जमा किया है। स्विस सरकार इससे कोई मतलब नहीं है कि जो धन उसके बैकों में जमा किया जा रहा है वह कर चोर का है या लूट और बेईमानी का। आमतौर पर कोई बैंक यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता है कि खाता धारक जो धन अपने खाते में जमा कर रहा है उसका स्त्रोत क्या है। यह कार्य बैंकिंग प्रणाली के दायरे के बाहर है। फिर स्विस सरकार को कैसे बाध्य किया जा सकता है कि वह अपने बैंकों के खाताधारकों की फेहरिस्त संबंध देशों की सरकारों को दे।

कोई भी खाताधारक अपना धन बैंक की विश्वसनीयता के मद्देनजर ही जमा करता है। वास्तव में जो सरकारें स्विटजरलैंड पर गोपनीयता भंग करने का दबाव डाल रही है। उनके देश के जिन प्रभावशाली लोगों के गोपनीय खाते स्विस बैंकों में हैं उनमें बड़े-बड़े राजनेता और उद्योगपति भी हैं। इन लोगों का अपने देश की सरकार में घुसपैठ भी है और प्रभाव भी। इसी तरह बड़े –बड़े उद्योगपतियों के बल पर वहां की सरकारें टिकी हुई हैं।

अमेरिका सरकार में तो कई ऐसे मंत्री हैं जिनके बड़े-बड़े उद्योग भी हैं। वहां कानून बनाने और बिगाड़ने में इन उद्योगपतियों का खासा दखल होता है। जिस नौकरशाही के भरोसे सरकारें चलती हैं उनकी काली कमाई का बड़ा हिस्सा स्विस बैंकों में जमा है। मकसद यह कि स्विस बैंको से काला धन वापस लाना इतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है। स्विटजरलैंड की सरकार भी इस मामले में फूंक फूंक कर कदम रखेगी।

संभावना है कि खाताधारक देशों की सरकारों और स्विस सरकार के बीच लंबी और कई दौर की बातचीत के बाद ही कोई ऐसा हल निकलेगा जिससे स्विटजरलैंड की अर्थव्यवस्था भी महफूज रहे औऱ स्विस बैंकों से कालाधन भी बाहर आए। एक रास्ता यह भी हो सकता है कि सरकारें अपने देश के उद्योगपतियों और राजनेताओं को इस बात के लिए राजी करें। एक ऐसा वातावरण बने जिसमें कालाधन जमा करने वाले भी अपने आपको सुरक्षित महसूस करें।

जहां तक लोकसभा के चुनाव का सवाल है तो भाजपा इस सवाल को जोरशोर से जनता के बीच ले जाने की तैयारी में है। वह अच्छी तरह जानती है कि जनता समस्या की जटिलता जाने बगैर भावात्मक रुप से स्विस बैंकों में जमा काले धन के खिलाफ उसके साथ होगी।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

चौथे मोर्चे की अहमियत

पिछले लोकसभा चुनाव में सिर्फ दो मोर्चे थे। एक का नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी और दूसरे का नेतृत्व भाजपा। इस लोकसभा चुनाव में दो मोर्चे और खुल गए हैं। तीसरा और चौथा मोर्चा। तीसरे मोर्चे का नेतृत्व माकपा के हाथ में है। चौथे मोर्चे का नेतृत्व मुलायम सिंह के हाथ में हैं। इस मोर्चे में मुलायम सिंह यादव के अलावा लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान हैं। मुलायम सिंह यादव का वजूद सिर्फ उत्तर प्रदेश तक है और लालू प्रसाद यादव का बिहार तक। रामविलास पासवान भी सिर्फ बिहार तक ही सिमटे हैं। यद्यपि इन्होंने राष्ट्रीय दलित मोर्चा गठित किया है जिसमें महाराष्ट्र की रिपब्लिकन पार्टी भी है। लेकिन इस मोर्चे का अस्तित्व लोजपा के रुप में बिहार तक ही है। पासवान इसके भी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं चौथा मोर्चा उत्तर प्रदेश की अस्सी और बिहार की 40 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है। यानि कुल मिलाकर 180 सीटों पर। उत्तर प्रदेश में मोर्चे का मुख्य मुकाबला मायावती के ही बसपा से है। यानि सपा और बसपा ही मुख्य प्रतिद्मवदी हैं। बसपा के पहले उत्तर प्रदेश में सपा की ही सरकार थी। अपराध, अराजकता, लूट खसोट सरकारी धन का अपव्यय इस सरकार की खास विशेषताएं थी। लचर कानून व्यवस्था और लगातार बढ़ती जनसमस्याओं के कारण ही पिछले विधानसभा चुनावों में बसपा ने इसे सत्ता से बेदखल कर दिया। पहली बार बसपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिला।

हांलाकि विभिन्न कारणों से मायावती की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है. लेकिन अभी भी बसपा सपा के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं। अमर सिंह के वर्चस्व के कारण मुलायम सिंह के पुराने साथियों बेनी प्रसाद वर्मा और राज बब्बर ने पहले ही मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था। अब कल्याण सिंह से दोस्ती के कारण आजम खां सरीखे नेता मुलायम सिंह से नाराज चल रहे हैं और कई ने उनका साथ छोड़ दिया है। अभी तक मुलायम सिंह के साथ चिपके मुस्लिम मतदाताओं ने भी उनका साथ छोड़ दिया है। इससे सपा की स्थिति पहले से कमजोर हुई है। जहां तक बसपा का सवाल है। तो उसे भी ब्राह्मण मतदाताओं की नाराजगी की कीमत चुकानी होगी। भदोही विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में पराजय से खीजी मायावती द्वारा सिर्फ ब्राह्मण नेताओं के खिलाफ कार्रवाई से ब्राह्मण वर्ग नाराज हुआ है और लोकसभा के इस चुनाव में उसका झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ा है। वरुण गांधी पर रासुका लगाने से सवर्ण मतदातादाओ में भी बसपा की स्थिति कमजोर हुई है। जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा। इस प्रकार बसपा को मुस्लिम मतदाताओं का जितना लाभ होने की संभावना हैं उससे कहीं ज्यादा हिंदू मत खोने का खतरा पैदा हो गया है।

लेकिन सपा और बसपा में ये अंतर हैं ही कि सपा जहां उत्तर प्रदेश तक सिमटी है वहीं बसपा ने देश भर में लगभग 500 उम्मीदवार खड़े किए हैं। बसपा का जनाधार बिहार में भी बढ़ रहा है जिससे रामविलास पासवान परेशान हैं। जबकि उनकी ज़ड़े उत्तर प्रदेश में नहीं जम पा रही हैं। इसिलए ‘दलित प्रधानमंत्री की दौड़ में वो मायावती से पीछे हैं। बिहार में मुख्य मुकाबला लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार के जदयू के बीच है लालू और रामविलास पासवान मिलकर नीतीश कुमार से लड़ रहे हैं। नीतीश कुमार के साथ भाजपा भी है। नीतीश कुमार के शासनकाल में कानून का शासन स्थापित हुआ है और लालू के समय की अराजकता खत्म हुई है। इससे बिहार की जनता को सुकून मिला है। लालू के शासनकाल में सरकारी खजाने की बेतहाशा लूट अब बंद हुई है। और बिहार विकास की पटरी पर दौड़ चला है। इससे जनता की समस्याएं कम हुई हैं और उसका जीवन अपेक्षाकृत सुखद हुआ है। इससे लालू और पासवान का रास्ता बेहद कठिन हो गया है।

कांग्रेस को यदि बिहार में मनमुताबिक सफलता नहीं भी मिली तो राजद और लोजपा को नुकसान पहुंचाएगी ही। दरअसल चौथे मोर्चे के नेता अच्छी तरह जानते हैं कि देश का नेतृत्व करने का अवसर उनके हाथ नहीं आ सकता इसिलिए वो किंग मेकर की भूमिका में ही आना चाहते हैं। मोर्चे के नेता मुलायम सिंह और लालू यादव बार बार दोहरा रहे हैं कि यूपीए की सरकार बनने की स्थिति में वे उसमें शामिल होंगे। फिलहाल इन नेताओं का मकसद ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना है। ताकि सरकार गठित होने के समय जमकर सौदेबाजी की जा सके। ज्यादा मंत्री पद और लाभ के विभाग हथियाए जा सके। इसीलिए उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। चौथे मोर्चे के नेताओं को ये भी उम्मीद है कि तीसरे मोर्चे को इतनी सीटें नहीं मिलेगी कि वो सरकार बनाने का दावा पेश कर सके। तीसरे मोर्चे में बसपा और माकपा के अलावा कोई बड़ा दल नहीं हैं।

पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चे को पहले जैसी सफलता इस बार नहीं मिलनी है। बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का चुनावी समझौता उसे नुकसान पहुंचाएगा तो केरल में आपसी कलह। आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबू नायडू को चिंरजीवी जबरदस्त झटका पहुंचाने जा रहे हैं। इसलिए बहुत ज्यादा संभावना इसी बात की है कि इस बार फिर यूपीए में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरेगी और जो पार्टियां अपनी सीटें बढ़ाने के चक्कर में यूपीए से बाहर हो गई हैं वो फिर उसमें शामिल होकर कोशिश करेंगी कि राजग फिर सत्ता में ना आने पाए। हो सकता है कि इस बार माकपा भी यूपीए में शामिल हो जाए जो पिछली बार बाहर से समर्थन दे रही थी। यदि ऐसा नहीं भी हुआ तो सपा का सरकार में शामिल होना तय है और यही माकपा की भरपाई करेगी।
दक्षिण की छोटी छोटी पार्टियां भी यूपीए सरकार का अंग बनेगी। फिलहाल मायावती के प्रधानमंत्री बनने के आसार बिल्कुल नहीं दिखाई देते।

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

मेरे जिंदा होने की गवाही



मेरा दिमाग एकदम खाली..

मेरे हाथ एकदम लूले..

मेरे पैर एकदम लंगड़े..

मेरे अंदर अपना कुछ नहीं होता

मेरी संवेदनाएं भी मरी हुई होती हैं

तुम्हें आत्मसात करने की

भूख मर जाती है

मैं बस किसी ठूंठे वृक्ष की तरह

निरुत्तर हो जाता हूं

हर तरफ से चुका हुआ

हर तरफ से परित्यक्त

गर्म लाशों की भीड़

मुझे झकझोर देती है

और मैं भाग खड़ा होता हूं

मेरे चौतरफा

मुझसे टकराने वाली चीखें

मुझे घेर कर खड़ी हो जाती हैं

हजार हजार आखों से

घूरा जाता हूं

ढेर सारी तल्ख निगाहें

मेरे जिस्म पर

फफोले की तरह उग आती हैं

मेरी मांसपेशियां छिन्न भिन्न होकर

बिखर जाती हैं

मैं उन्हें सहेजकर

खूंटी पर टांगता जाता हूं

वे ही तो खूंटी पर टंगी-टंगी

मेरे जिंदा होने की गवाही देती रहती हैं।

नोट-:
ये कविता मेरे नए उपन्यास एक थी रुचि से है।