गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

चौथे मोर्चे की अहमियत

पिछले लोकसभा चुनाव में सिर्फ दो मोर्चे थे। एक का नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी और दूसरे का नेतृत्व भाजपा। इस लोकसभा चुनाव में दो मोर्चे और खुल गए हैं। तीसरा और चौथा मोर्चा। तीसरे मोर्चे का नेतृत्व माकपा के हाथ में है। चौथे मोर्चे का नेतृत्व मुलायम सिंह के हाथ में हैं। इस मोर्चे में मुलायम सिंह यादव के अलावा लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान हैं। मुलायम सिंह यादव का वजूद सिर्फ उत्तर प्रदेश तक है और लालू प्रसाद यादव का बिहार तक। रामविलास पासवान भी सिर्फ बिहार तक ही सिमटे हैं। यद्यपि इन्होंने राष्ट्रीय दलित मोर्चा गठित किया है जिसमें महाराष्ट्र की रिपब्लिकन पार्टी भी है। लेकिन इस मोर्चे का अस्तित्व लोजपा के रुप में बिहार तक ही है। पासवान इसके भी राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं चौथा मोर्चा उत्तर प्रदेश की अस्सी और बिहार की 40 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है। यानि कुल मिलाकर 180 सीटों पर। उत्तर प्रदेश में मोर्चे का मुख्य मुकाबला मायावती के ही बसपा से है। यानि सपा और बसपा ही मुख्य प्रतिद्मवदी हैं। बसपा के पहले उत्तर प्रदेश में सपा की ही सरकार थी। अपराध, अराजकता, लूट खसोट सरकारी धन का अपव्यय इस सरकार की खास विशेषताएं थी। लचर कानून व्यवस्था और लगातार बढ़ती जनसमस्याओं के कारण ही पिछले विधानसभा चुनावों में बसपा ने इसे सत्ता से बेदखल कर दिया। पहली बार बसपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिला।

हांलाकि विभिन्न कारणों से मायावती की लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है. लेकिन अभी भी बसपा सपा के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं। अमर सिंह के वर्चस्व के कारण मुलायम सिंह के पुराने साथियों बेनी प्रसाद वर्मा और राज बब्बर ने पहले ही मुलायम सिंह का साथ छोड़ दिया था। अब कल्याण सिंह से दोस्ती के कारण आजम खां सरीखे नेता मुलायम सिंह से नाराज चल रहे हैं और कई ने उनका साथ छोड़ दिया है। अभी तक मुलायम सिंह के साथ चिपके मुस्लिम मतदाताओं ने भी उनका साथ छोड़ दिया है। इससे सपा की स्थिति पहले से कमजोर हुई है। जहां तक बसपा का सवाल है। तो उसे भी ब्राह्मण मतदाताओं की नाराजगी की कीमत चुकानी होगी। भदोही विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में पराजय से खीजी मायावती द्वारा सिर्फ ब्राह्मण नेताओं के खिलाफ कार्रवाई से ब्राह्मण वर्ग नाराज हुआ है और लोकसभा के इस चुनाव में उसका झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ा है। वरुण गांधी पर रासुका लगाने से सवर्ण मतदातादाओ में भी बसपा की स्थिति कमजोर हुई है। जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा। इस प्रकार बसपा को मुस्लिम मतदाताओं का जितना लाभ होने की संभावना हैं उससे कहीं ज्यादा हिंदू मत खोने का खतरा पैदा हो गया है।

लेकिन सपा और बसपा में ये अंतर हैं ही कि सपा जहां उत्तर प्रदेश तक सिमटी है वहीं बसपा ने देश भर में लगभग 500 उम्मीदवार खड़े किए हैं। बसपा का जनाधार बिहार में भी बढ़ रहा है जिससे रामविलास पासवान परेशान हैं। जबकि उनकी ज़ड़े उत्तर प्रदेश में नहीं जम पा रही हैं। इसिलए ‘दलित प्रधानमंत्री की दौड़ में वो मायावती से पीछे हैं। बिहार में मुख्य मुकाबला लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार के जदयू के बीच है लालू और रामविलास पासवान मिलकर नीतीश कुमार से लड़ रहे हैं। नीतीश कुमार के साथ भाजपा भी है। नीतीश कुमार के शासनकाल में कानून का शासन स्थापित हुआ है और लालू के समय की अराजकता खत्म हुई है। इससे बिहार की जनता को सुकून मिला है। लालू के शासनकाल में सरकारी खजाने की बेतहाशा लूट अब बंद हुई है। और बिहार विकास की पटरी पर दौड़ चला है। इससे जनता की समस्याएं कम हुई हैं और उसका जीवन अपेक्षाकृत सुखद हुआ है। इससे लालू और पासवान का रास्ता बेहद कठिन हो गया है।

कांग्रेस को यदि बिहार में मनमुताबिक सफलता नहीं भी मिली तो राजद और लोजपा को नुकसान पहुंचाएगी ही। दरअसल चौथे मोर्चे के नेता अच्छी तरह जानते हैं कि देश का नेतृत्व करने का अवसर उनके हाथ नहीं आ सकता इसिलिए वो किंग मेकर की भूमिका में ही आना चाहते हैं। मोर्चे के नेता मुलायम सिंह और लालू यादव बार बार दोहरा रहे हैं कि यूपीए की सरकार बनने की स्थिति में वे उसमें शामिल होंगे। फिलहाल इन नेताओं का मकसद ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना है। ताकि सरकार गठित होने के समय जमकर सौदेबाजी की जा सके। ज्यादा मंत्री पद और लाभ के विभाग हथियाए जा सके। इसीलिए उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं। चौथे मोर्चे के नेताओं को ये भी उम्मीद है कि तीसरे मोर्चे को इतनी सीटें नहीं मिलेगी कि वो सरकार बनाने का दावा पेश कर सके। तीसरे मोर्चे में बसपा और माकपा के अलावा कोई बड़ा दल नहीं हैं।

पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चे को पहले जैसी सफलता इस बार नहीं मिलनी है। बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का चुनावी समझौता उसे नुकसान पहुंचाएगा तो केरल में आपसी कलह। आंध्र प्रदेश में चंद्र बाबू नायडू को चिंरजीवी जबरदस्त झटका पहुंचाने जा रहे हैं। इसलिए बहुत ज्यादा संभावना इसी बात की है कि इस बार फिर यूपीए में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरेगी और जो पार्टियां अपनी सीटें बढ़ाने के चक्कर में यूपीए से बाहर हो गई हैं वो फिर उसमें शामिल होकर कोशिश करेंगी कि राजग फिर सत्ता में ना आने पाए। हो सकता है कि इस बार माकपा भी यूपीए में शामिल हो जाए जो पिछली बार बाहर से समर्थन दे रही थी। यदि ऐसा नहीं भी हुआ तो सपा का सरकार में शामिल होना तय है और यही माकपा की भरपाई करेगी।
दक्षिण की छोटी छोटी पार्टियां भी यूपीए सरकार का अंग बनेगी। फिलहाल मायावती के प्रधानमंत्री बनने के आसार बिल्कुल नहीं दिखाई देते।

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