शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

हिंदुस्तान के मार्क्सवादी

सन 1964 में हिंदुस्तान के कम्युनिस्टों ने जब लोकतांत्रिक तरीके से देश की सत्ता पर काबिज होने की रणनिती तय की तब से लेकर आज तक तारीख तक उन्होंने काफी पापड़ बेले। जब देश में आपातकाल लागू हुआ तब इसका समर्थन किया, क्योंकि उन्हें सत्ता के करीब पहुंचने का सुनहरा मौका हाथ लगता दिखाई दिया। लेकिन इंदिरा गांधी को किसी की बैसाखी मंजूर नहीं थी। इसका प्रमाण वह 1969 में कांग्रेस के दो टुकड़े करके दे चुकी थी। जब कम्युनिस्ट उन्हें फटे हुए लबादे की तरह बोझ लगने लगे तो उन्होंने एक झटके में उन्हें उतार फेंका और अपना रास्ता खुद बनाने का फैसला कर लिया।

बाद का इतिहास दोहराने की गुंजाइश यहां नहीं है। कहने का मकसद सिर्फ ये है कि जब जब केंद्र सरकार कमजोर दिखी। तब तब मार्क्सवादियों ने उसे अपने कंधे का सहारा दिया और गृह तथा विदेश नीति को प्रभावित करने की कोशिश की। एक तरफ वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग बने रहे। दूसरी तरफ माओवादी, नक्सलवादी आदि नामों से ऐसे हथियारबंद संगठन तैयार किए हैं जिनका मानना है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। यह विश्वास चीन के कॉमरेड माओ का था। ये हिंसक संगठन नेपाल से लेकर आंध्र प्रदेश तक खून की होली खेल रहे हैं।

अपने देश में मार्क्सवादियो ने जब मनमोहन सरकार का समर्थन किया तब उनका उद्देश्य यही था कि यह कमजोर सरकार उनके इशारे पर नाचती रहेगी और उसकी नीतियां मार्क्सवादियों की मुट्ठी में कैद रहेगी। वे मनमोहन सरकार को वामपंथी खेमे की ओर झुके रहने को विवश करती रहेंगी। चाहे भले चीन भारत से ज्यादा ताकतवर होता चला जाए। लेकिन जब मनमोहन सरकार ने मार्क्सवादियों की समर्थन वापसी की धमकी का परवाह किए बिना अमेरिका से परमाणु डील की तो मार्क्सवादियों का भ्रम टूट गया।

उन्होंने अपनी गोटियां इस तरह बिछानी शुरु कर दी कि केंद्र में कांग्रेस की अमेरिका परस्त सरकार की जगह ऐसी सरकार बने जिसमें न केवल वो शामिल हों वरन उनकी नकेल उनके हाथ में हो। मार्क्सवादियों ने तीसरा मोर्चा गठित करने का प्रयास शुरू किया। उन्हें उत्तर प्रदेश में बसपा का भविष्य काफी उज्ज्वल दिखाई दिया। सो मायावती से संपर्क साधा। मायावती तीसरे मोर्चे में शामिल हुई और मोर्चे की नेता घोषित कर दी गई। माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने उनमें प्रधानमंत्री बनने की संभावना भी देखी।

इससे पहले मुलायम सिंह यादव तीसरा मोर्चा छोड़ कर यूपीए सरकार का समर्थन कर चुके थे। माकपा ने तमिलनाडु ने जयललिता का भी समर्थन प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू, उड़ीसा में नवीन पटनायक और कर्नाटक में देवगौड़ा तीसरे मोर्चे के साथ हो गए। मायावती को तीसरे मोर्चे में शामिल करने का एक उद्देश्य माकपा का यह भी था कि बसपा के सहयोग से उत्तर प्रदेश की धरती पर पांव जमाने का अवसर प्राप्त हो।
मायावती बेहद चालाक नेता है। वो जानती थी कि माकपाइयों के आदत उंगली पकड़कर गला पकड़ने की है। सो उन्होंने माकपा को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं दी। इससे प्रकाश करात थोड़ा निराश हुए लेकिन उनका पहला मकसद मनमोहन सिंह को दुबारा प्रधानमंत्री बनने से रोकना है। इसलिए माकपा ने महाराष्ट्र के मराठा छत्रप शऱद पवार को प्रधानमंत्री पद का सपना दिखाया। शरद पवार ने बयान दे दिया कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद के लिए यूपीए के नहीं कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। यूपीए का उम्मीदवार तो चुनाव परिणाम आने के बाद चुना जाएगा।
उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से चुनावी समझौता करके इस पीछड़े और गरीब राज्य की उर्वर जमीन में पांव जमाने का मौका माकपा को मिल गया है। माओवादी हरबा-हथियार के साथ पहले से ही सक्रिय हैं। मार्क्सवादी उड़ीसा में अपने लिए अच्छी संभावनाएं देख रहे हैं। उड़ीसा की सामाजिक आर्थिक और भौगोलिक स्थितियां भी उनके अनुकूल हैं।
माकपा ने बिहार में माओवादियों से चुनावी समझौता भी किया है। केरल में कांग्रेस मोर्चे और वाम मोर्चे के बीच बराबरी का मामला है। पिछली बार वाममोर्चा सत्ता में आया था इस बार कांग्रेस मोर्चा की बारी है।
अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक कम्युनिस्ट सिर्फ बंगाल और त्रिपुरा में पैर जमा पाए हैं। बंगाल में ममता बैनर्जी ने वाममोर्चे की नींद हराम कर रखी है। वह एक एक कदम आगे बढ़ रही हैं। नंदीग्राम और सिंगुर ने मार्क्सवादियों के राक्षसी अत्याचार ने ममता के त्रृणमूल कांग्रेस का जड़े और गहराई तक पहुंचा दी हैं। नंदीग्राम मुस्लिम बहुल इलाका है। वहां की मुस्लिम महिलाओं पर माकपा कैडर ने अमानवीय जुल्म ढाए। इस घटना से बंगाल के मुसलमान वामपंथियों से खफा हैं। बंगाल में मुस्लिम आबादी 30 फीसदी है। पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने वाममोर्चे को तगड़ा झटका दिया।
लोकसभा चुनाव कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस मिलकर लड़ रहे हैं। इससे मार्क्सवादियों की नींद उड़ गई है।
आंध्र प्रदेश में फिल्म स्टार चीरंजीवी ने चंद्रबाबू नायडू की आशाएं धूमिल कर दी हैं। हांलाकि कांग्रेस की चिंता भी बढ़ गई है। लेकिन असली तुषारपात तीसरे मोर्चे की आकाक्षांओं पर ही होना है। दारोमदार बंगाल, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और तमिलनाडु पर है। दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि चुनाव परिणाम आने के बाद कौन सी पार्टी तीसरे मोर्चे के साथ रहेगी। कौन सी उस दल के साथ चली जाएगी जिसे सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरने पर राष्ट्रपति सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगी। बहरहाल माकपा ने सत्ता सुख भोगने का मन बना लिया है। यदि तीसरे मोर्चे को अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो वह यूपीए सरकार में शामिल हो जाएगी।

3 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

आप का विश्लेषण अच्छा है। लेकिन संतुलित नहीं। इस में माकपा का विरोध नजर आता है।

श्यामल सुमन ने कहा…

कम्यूनिस्टों खासकर माकपा के प्रति एक पक्षीय बिश्लेषण है जबकि सिक्के के दूसर पहलू को भी देखा जाना चाहिए।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

अनुनाद सिंह ने कहा…

"कहने का मकसद सिर्फ ये है कि जब जब केंद्र सरकार कमजोर दिखी। तब तब मार्क्सवादियों ने उसे अपने कंधे का सहारा दिया और गृह तथा विदेश नीति को प्रभावित करने की कोशिश की। एक तरफ वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंग बने रहे। दूसरी तरफ माओवादी, नक्सलवादी आदि नामों से ऐसे हथियारबंद संगठन तैयार किए हैं जिनका मानना है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। यह विश्वास चीन के कॉमरेड माओ का था। ये हिंसक संगठन नेपाल से लेकर आंध्र प्रदेश तक खून की होली खेल रहे हैं।"

उपरोक्त बात की सत्यता की गवाही खुद इतिहास दे रहा है।
इसके अतिरिक्त कम्युनिस्टों से सबसे बड़ा खतरा यह है कि वे देश को सदा गरीब बनाये रखना चाहते हैं ताकि उनका वोट बैंक बना रहे। वे भारत हित का ध्यान रखने वालों में सबसे पीछे खड़े मिलते हैं।