पूर्वी उत्तर प्रदेश की 16 संसदीय सीटों पर सिर्फ 48 फीसदी मतदाताओं ने अपने मतदान के अधिकार का इस्तेमाल किया। यानी मतदान आधे से भी कम हुआ। सबसे ज्यादा 52 .20 फीसदी वोट मिर्जापुर संसदीय़ क्षेत्र में पड़े और सबसे कम 40.3 फीसदी सलेमपुर में। वाराणसी संसदीय क्षेत्र में कुल 15.61 लाख मतदाता हैं लेकिन इनमे से आधे ने भी वोट नहीं डाले। इस सीट पर भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच कांटे का संघर्ष रहा। इस हिसाब से देखें तो मात्र 10-15 फीसदी वोट पाने वाला प्रत्याशी जीत जाएगा। और पूरे संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व लोकसभा में करेगा। सोचिए क्या वास्तव में उसे पूरी जनता का प्रतिनिधि होने का हकदार माना जाएगा?
यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की गंभीर खामी है। जिस पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। जिसे किसी संसदीय क्षेत्र की पचास फीसदी जनता भी नहीं चाहे, वह देश की सबसे बड़े सभा में प्रतिनिधि के तौर पर बैठे। यह भारी विडंबना है। आखिर कोई राजनीतिक पार्टी इस दिशा में पहल क्यों नहीं करती? क्या उसे यह व्यवस्था रास आ रही है? चुनाव आयोग और देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने बार-बार सुझाव दिए हैं कि मौजूदा चुनाव प्रक्रिया को बदलने की आवश्यकता है। इस तरह के सुझाव भी आए कि चुनाव में जीत के लिए कम से कम पचास फीसदी मत प्राप्त करने को जरुरी कर दिया जाए। यदि सभी प्रत्याशियों में से कोई भी पचास फीसदी का आंकड़ा नहीं छू पाए तो चुनाव रद्द कर दिया जाए। लेकिन इस व्यवस्था में किसी राजनीतिक पार्टी ने रूची नहीं दिखाई।
राजनीतिक पार्टियां जिस तरह से जाति, धर्म, क्षेत्र और संप्रदाय की राजनीति कर रही हैं उसमें मौजूदा व्यवस्था ही उन्हें लाभप्रद लग रही है। बसपा तो इसी गणित पर अपनी समूची राजनीति ही केंद्रित कर रही है। अपनी बिरादरी के वोट ले लो, दलित वोट हम तुम्हें दे रहे हैं, बस चुन लिए जाओगे। इसी से मिलती जुलती राजनीति सपा की भी है। उसने यादवों और मुसलमानों का वोट बैंक बना रखा है। जिस प्रतद्याशी को यादव जाति और मुस्लिम समुदाय के वोट मिल गए वह विजयी हो गया। लेकिन भाजपा और कांग्रेस ने जातिवाद की राजनीति से खुद को बाहर रखा हुआ है। इसी का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण इलाकों में उनके पैर जम नहीं पा रही है। जहां मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ी जातियों के वोटों पर पूरी तरह से पकड़ बना रखा है और ये ही मत ज्यादा हैं।
जहां ये समीकरण काम नहीं करते वहां बाहुबलियों और धनबलियों को मैदान में उतार दिया जाता है। वे अपने काम भर की यानि दस-पंद्रह फीसदी वोट धौंस दिखा कर हासिल कर लेते हैं या खरीद लेते हैं। जब पचास फीसदी वोट हासिल करना जरुरी हो जाएगा तब धन और बाहुबल से चुनाव जीतना आसान नहीं रह जाएगा। लेकिन सबसे अहम सवाल तो ये है कि चुनावों में मतदाताओं की दिलचस्पी खत्म क्यों होती जा रही है? इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि उन्हें कहीं भी आशा की किरण नहीं देखाई दे रही है। मतदाता तो फटेहाल रह जाता है। उसकी समस्याएं पहले से भी ज्यादा जटिल हो जाती हैं। लेकिन उसके द्वारा चुना गया मालामाल हो जाता है। वह मतदाताओं की बजाए अपने और अपने परिजनों के हितों को पूरा करने में लग जाता है। मतदाताओं को बस आश्वासनों की घुट्टी पिलाई जाती है। छोटे से छोटे काम के लिए भी जनप्रतिनिधियों को घूस देना पड़ता हैं।
नौकर शाही भी जनप्रतिनिधियों के ही आगे पीछे घूमते नजर आती है। आम जनता को कोई तवज्जो नहीं देती। वह जन प्रतिनिधियों का ख्याल रखती हैं और जनप्रतिनिधि उनका खयाल रखते हैं। दोनों में तालमेल इस कदर बन जाता है कि वो एक दूसरे को लाभ पहुंचाते रहते हैं सांसद निधि की रकम इसी बंदरबाट में खर्च हो जाती है। जनता की समस्या जहां की तहां रह जाती है। मतदाता स्वयं को ठगा महसूस करने लगता है। इन्ही कारणों से लोगों नें चनाव के प्रति वितृष्णा पैदा होती जा रही है। मतदाताओं को सभी प्रत्याशी एक ही थैली के चट्टे बट्टे लगने लगते हैं। कोई सांपनाथ लगता है कोई नागनाथ।
वाराणसी के पिंडरा विधानसभा क्षेत्र में एक गांव खटौरा के सभी मतदाताओं ने इस चुनाव का बहिष्कार कर दिया। उनके गांव की सड़क नहीं बन पा रही है। न सांसद निधि और न विधायक निधि से और न ही प्रधानमंत्री सड़क योजना के तहत। विकास कार्य करने वाली कोई संस्था उस सड़क की ओर मुड़ कर नहीं देख रही है। ग्राम पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक सभी बेखबर हैं। जर्जर सड़क दो जानें ले चुकी है। बरसात के दिनों में उस पर दो फुट पानी जमा हो जाता है। गांव के लोग किस मुसीबत से सड़क पार करते होंगे, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। फिर वे लोग क्यों डाले वोट?
इसके अलावा मतदान या प्रतिशत कम करने में नेताओं, प्रशासन, और नौकरशाही की मिली जुली फितरत भी कम जिम्मेदार नहीं है। प्रत्याशी या राजनीतिक दल अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उन मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से कटवा देते हैं, जिनके बारे में उन्हें आशंका होती है कि वे उनके खिलाफ मत देंगे। इस चुनाव में शासन ने अपने प्रभाव से बड़ी संख्या में सवर्ण मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब करवाए हैं। बाहुबली अपने विरोधी मतों को घरों से निकलने नहीं देते। लेकिन कुल मिलाकर सबसे बडा़ कारण इस चुनावी प्रक्रिया के प्रति मतदाताओं की लगातार बढ़ती उदासीनता ही है। इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
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1 टिप्पणी:
congress brahmano ki party rahi aur shuru mein usko bhi daliton ke vote milte the ....tab kisi ko jati ki rajneeti nahi lagi ...ab sab bol bol kar haanfe ja rahe hain...
BJP to poori vyavsayi varg ki party hai ....dharm ke peechhe mari jati hai ....aap kaise kah sakte hain usne khud ko alag rakha hai .....
are jab ye system chal hi raha hai to kisi ek ko doshi kyun thahraya ja raha hai
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