बुधवार, 1 अप्रैल 2009
मेरे जिंदा होने की गवाही
मेरा दिमाग एकदम खाली..
मेरे हाथ एकदम लूले..
मेरे पैर एकदम लंगड़े..
मेरे अंदर अपना कुछ नहीं होता
मेरी संवेदनाएं भी मरी हुई होती हैं
तुम्हें आत्मसात करने की
भूख मर जाती है
मैं बस किसी ठूंठे वृक्ष की तरह
निरुत्तर हो जाता हूं
हर तरफ से चुका हुआ
हर तरफ से परित्यक्त
गर्म लाशों की भीड़
मुझे झकझोर देती है
और मैं भाग खड़ा होता हूं
मेरे चौतरफा
मुझसे टकराने वाली चीखें
मुझे घेर कर खड़ी हो जाती हैं
हजार हजार आखों से
घूरा जाता हूं
ढेर सारी तल्ख निगाहें
मेरे जिस्म पर
फफोले की तरह उग आती हैं
मेरी मांसपेशियां छिन्न भिन्न होकर
बिखर जाती हैं
मैं उन्हें सहेजकर
खूंटी पर टांगता जाता हूं
वे ही तो खूंटी पर टंगी-टंगी
मेरे जिंदा होने की गवाही देती रहती हैं।
नोट-:
ये कविता मेरे नए उपन्यास एक थी रुचि से है।
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