रविवार, 22 नवंबर 2009

अमेरिका की अड़ंगेबाजी..

अमेरिका ने परमाणु अप्रसार संधि पर भारत से आश्वासन पत्र मांगा है। यह पत्र ऐसे समय में मांगा गया है जब भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह स्टेट गेस्ट के रुप में अमेरिका की यात्रा करने वाले थे और खर्च हो चुके ईंधन के पुनर्प्रसंस्करण के संबंध में भारत और अमेरिका के शीर्ष अधिकारियों में बातचीत हो रही थी। अमेरिकी अधिकारियों की शर्त से भारतीय अधिकारी अचंभे में पड़ गए। भारत यदि अमेरिका को इस तरह का आश्वासन पत्र नहीं देगा तो ओबामा प्रशासन असैन्य परमाणु के व्यापार में लगी हुई अमेरिकी कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंस पार्ट एट टेन जारी नहीं करेगा।

भारत-अमेरिका के बीच परमाणु करार पर हस्ताक्षर हुए एक साल हो गए हैं और दोनों देशों के बीच इस मुद्दे को लेकर अविश्वसनीयता बनी हुई है। ओबामा प्रशासन ने अमेरिकी संसद को अभी भी लिखकर नहीं दिया है कि भारत से हुआ परमाणु करार अमल में लाया जा चुका है। ओबामा प्रशासन भारत सिर्फ आश्वासन पत्र ही नहीं चाहता है वरन उसकी ओर से अन्य कई बाधाएं खड़ी की जा रही है। परमाणु करार पर अमेरिकी संसद द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी कंपनियों को परमाणु क्षेत्र में भारत से सहयोग करने के पहले अभी कई औपचारिकताएं पूरी की जानी हैं। ओबामा प्रशासन के अलावा अभी भारत को भी कई औपचारिकताएं पूरी करनी हैं। अमेरिका भारत से यह आश्वासन भी चाहता है कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों के संबंध में जो सूचनाएं दी हैं वे अमेरिका को दी गई सूचनाओं से अलग नहीं हैं।


भारत अमेरिका से हुए असैन्य परमाणु करार के 123 समझौतों के निर्विघ्न लागू होने के प्रति पूरी तरह से आशान्वित रहा लेकिन अब लगता है कि यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है जितना भारत समझता रहा। अमेरिका नए-नए अड़ंगे लगाता रहेगा ताकि भारत परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य हो जाए। परमाणु अप्रसार पर नया आश्वासन पत्र मांगना इसी सिलसिले की एक कड़ी है। यह गैरजरुरी अड़ंगेबाजी इसलिए भारत को चकित करती है क्योंकि भारत अमेरिका को बार-बार मौखिक आश्वासन देता रहा है कि वह भविष्य में कोई परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। ऐसा आश्वासन राजग सरकार ने पोखरण-2 के बाद ही विश्व को दे दिया था। भारतीय वैज्ञानिकों ने भी कहा था कि भारत को अब परमाणु परीक्षण करने की जरुरत नहीं है। अमेरिकी अधिकारियों को कई बार यह बताया जा चुका है कि भारत के लिए परमाणु हथियारों का निर्माण क्यों जरुरी है।


भारत कम से कम दो पड़ोसी शत्रु राष्ट्रों से घिरा हुआ है जो परमाणु तथा अन्य सैन्य हथियार का जखीरा खड़ा करते जा रहे हैं। पाकिस्तान जैसे छोटे से देश के पास भी भारत से ज्यादा परमाणु बम हैं। चीन उसे शस्त्र सज्जित करने में लगा हुआ है। इटली के सहयोग से पाकिस्तान चालक रहित विमान भी बनाने जा रहा है। वह चीन से अत्याधुनिक लड़ाकू विमान भी हासिल कर रहा है। चीन भी सैनिक क्षमता में भारत से मीलों आगे है और वह म्यानमार, श्रीलंका तथा पाकिस्तान में नौसेनिक अड्डा बनाकर भारत की जबरदस्त नाकेबंदी करने के फिराक में है। ऐसी स्थिति में भारत परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करके अपना हाथ कैसे कटा सकता है?


ओबामा प्रशासन को उन परिस्थितियों पर गौर करना चाहिए जिनके कारण भारत को परमाणु हथियारों के निर्माण के लिए बाध्य होना पड़ा है। चीन के एक औऱ मित्र राष्ट्र उत्तर कोरिया ने भी ओबामा प्रशासन की परवाह किए बिना परमाणु बम बना लिया है। अमेरिका की धौंसपट्टी से वह जरा भी विचलित नहीं है। ईरान भी उसी ओर अग्रसर है। चीन औऱ पाकिस्तान दोनों ही देश भारत के लिए बड़े खतरें हैं। ओबामा प्रशासन को इस तथ्य से अवगत होना चाहिए। लेकिन राष्ट्रपति एक तरफ परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर के लिए भारत की गरदन मरोड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीन से दोस्ती का प्रयास कर रहे हैं और पाकिस्तान को भरपूर आर्थिक सहायता दे रहे हैं। यह जानते हुए कि पाकिस्तान उसका उपयोग सैन्य विस्तार में कर रहा है। जिसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ ही होना है।


अमेरिका से असैन्य परमाणु करार राष्ट्रपति बुश के समय हुआ था। हो सकता है कि इसीलिए ओबामा इस संधि के प्रति ज्यादा गंभीर न हों और इसका इस्तेमाल भारत से सौदेबाजी के लिए कर रहे हों। अपनी इसी नीति के तहत उन्होंने चीन को भारत औऱ पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने का निमंत्रण दिया है। जिसे अस्वीकार कर भारत ने ओबामा को अपनी दृढ़ता से अवगत करा दिया है। साथ ही यह संदेश भी दिया है कि अमेरिका से दोस्ती की इच्छा का यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारत उसकी दादागीरी बर्दाश्त कर लेगा। भारत विकास और सैनिक क्षमता में वृद्धि का विकल्प खुला रखने के लिए स्वतंत्र है। वैसे इस बात की प्रबल संभावना है कि ओबामा और मनमोहन सिंह वार्ता की मेज पर इस अहं मुद्दे को सुलझाने में कामयाब हो जाएंगे।