बुधवार, 25 जून 2008

दिल्ली मिलने से रहा यूपी भी जा रहा मुलायम के हाथ से

सपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने भी एक मोर्चा बनाया है। इनमें जो दल शामिल हैं उनमें तेलगु देशम को छोड़ कर किसी का भी अपने प्रदेश में जनाधार नहीं है। उत्तर प्रदेश में तो सपा के अलावा किसी भी अन्य दल का मानो निशान भी नहीं है। आंध्र प्रदेश में तेलगु देसम की कांग्रेस से कड़ी प्रतिस्पर्धा है। सपा महाराष्ट्र में शायद एक- दो सीट निकाल ले लेकिन उसके अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में बसपा से कड़ा मुकाबला है। फिलहाल जो राजनीतिक समीकरण है उसमें बसपा सपा से मीलों आगे है। ऐसी स्थिति में लोक सभा का अगला चुनाव मुलायम सिंह के लिए काफी बोझिल पड़ेगा।

लेकिन उनके निकटतम सहयोगी अमर सिंह ने भरोसा दिलाया है कि राजनीतिक जोड़-तोड़ में अपनी निपुणता के चलते वे मुलायम सिंह को देश का अगला प्रधानमंत्री बना देंगे। अमर सिंह ने कांग्रेस से नजदीकी कायम कर ली है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से साठ-गांठ कर बसपा का मुकाबला करने की योजना बना रहे हैं। सीटों के बटवारे को लेकर एकता न भी संभव हो तो चुनाव के बाद जोड़-तोड़ कर यदि कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी तो मुलायम सिंह और अमर सिंह केंद्रीय मंत्रीमंडल में होंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री शिवराज पाटील से अमर सिंह की लंबी वार्ता हो चुकी है। जैसा की अमर सिंह की आदत है कि वह हर चाल में पहले अपनी गोटी लाल कर लेते हैं, इस वार्ता में भी उन्होंने अपना निजी हित साध लिया केंद्र सरकार से जेड श्रेणी की सुरक्षा ले ली। भविष्य में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा इसका आंकलन आज कि तारीख में नामुमकिन है किन्तु अमर सिंह का अपना हित तो सध ही गया।

जहां तक कांग्रेस का सवाल है 2004 के लोक सभा चुनाव के बाद जितने भी चुनाव हुए सभी में उसे पराजय ही हाथ लगी है। कर्नाटक विधान सभा चुनाव में उसकी हार को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। भाजपा नें कर्नाटक के रास्ते दक्षिण भारत के किले में प्रवेश कर लिया है। कर्नाटक में कांग्रेस कि हार को यदि हम भविष्य के लिए संकेत माने तो अगले लोक सभा चुनाव में उसके आसार अच्छे नहीं दिखाई देते। कांग्रेस की गठबंधन की सरकार केंद्र में बने इसके लिए स्वयं कांग्रेस को भाजपा से ज्यादा सीटें प्राप्त करनी होगी। पिछले चुनाव में मात्र 7 या 9 सीटों से पिछड़ने के कारण भाजपा के गठबंध की सरकार बनने से रह गई थी। लगातार चुनावी पराजयों से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है। उसे सोनिया गांधी के करिश्माई नेतृत्व पर भी भरोसा नहीं रह गया है। राहुल गांधी के अपरिपक्व नेतृत्व के प्रति जनता में कोई खास रुझान नहीं है। सोनिया गांधी पता नहीं क्यों प्रियंका को आगे लाना नहीं चाहतीं जबकि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उनका आकर्षक व्यक्तित्व कांग्रेस की गिरती साख को रोक सकती है या अगले चुनाव में उसकी नैया पार लगा सकती है। लेकिन सोनिया अपने पुत्र मोह के कारण प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाना नहीं चाहती। उन्हे भय है कि प्रियंका राहुल गांधी को पीछे धकेल देंगी। बहरहाल ये नेहरु परिवार का अपना अंदरुनी मामला है लेकिन एक बात तो सच हैं ही कि सोनिया गांधी के कांग्रेस नेतृत्व संभालने के समय कांग्रेस जनो में जो उत्साह था वह अब नहीं दिखाई दे रहा है।

केंद्र सरकार के तमाम उपायों के बावजूद महंगाई के लगातार बढ़ने और पेट्रोलियम पदार्थों में भारी बढोतरी से कांग्रेस के ग्राफ में काफी गिरावट आई है जिसकी भरपाई अगले आम चुनाव में होना बेहद कठिन लग रहा है। इसका असर उन दलों पर पड़ना स्वभाविक है जो पिछला चुनाव कांग्रेस से मिलकर लड़े थे। ये दल अगले चुनाव में क्या रणनीति अपनाते हैं, इस बारे में फिलहाल दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु इनमें से कुछ यदि भाजपा गठबंधन में शामिल हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

उधर मुलायम के लाख प्रयास के बावजूद वामपंथी दल उनके तृतीय मोर्चे में शामिल नहीं हो रहे हैं तो इसका कारण यह है की वे इसके फायदे नुकसान के गणित से पूरी तरह वाकिफ हैं वे जानते हैं कि एक तो मुलायय उन्हें उत्तर प्रदेश में ज्यादा सीटे देंगे नहीं, दूसरे जो सीटे देंगे भी उस पर सपा के भरोसे जीत हासिल नहीं की जा सकती क्योंकि सपा का अपना जनाधार भी काफी खिसक गया है। दूसरे शब्दों में कहे तो अमर सिंह ने मुलायम सिंह कि स्वयं की लोकप्रियता काफी कम कर दी है। अब उनकी छवि जमीनी नेता कि जगह हाई टेक नेता की रह गई है। सपा नेताओं में भी उत्साह कि जगह निराशा ने घर कर लिया है। इसके विपरीत बसपा समर्थक उत्साह से लबालब हैं। कांग्रेस और सपा मिलकर भी बसपा का मुकाबला करने के स्थिति में नहीं है इसलिए वामपंथी दलों में सपा गठबंधने में शामिल होने में कोई रुची नहीं है। सपा कि अलोकप्रियता का इससे बढ़ कर उदाहरण क्या हो सकता है कि कुछ माह पहले उत्तर प्रदेश में हुए लोक सभा और विधान सभा के उप चुनावों में बसपा में न केवल सभी सीटों पर विजय दर्ज की वरन वे सीटें भी जीती जिन पर सपा काबिज थी।

मुलायम सरकार कि धमा चौकड़ी के विपरीत मायावती के एक साल के शासन काल में ना केवल हर क्षेत्र में सुधार के लक्षण दिखाई दे रहें हैं वरन सामाजिक सौहार्द का माहौल भी बना है। सबसे बड़ी बात यह है की मायावती अपनी पार्टी के उन नेताओं को भी कानून का पाठ पढा़ रहीं हैं जो सत्ता के मद में आ कर गैर कानूनी हरकतें कर रहें हैं। हाल ही में उन्होंने अपनी पार्टी के सचिव और झारखण्ड के प्रभारी राम दक्षपाल को जेल में डलवा दिया। जिन्होंने दलितों पर गोली चलवा कर एक की जान ले ली और कई को घायल कर दिया। पार्टी के सांसद रमाकांत यादव तो सरकार बनाने के पहले ही जेल में बंद हैं। उन्हें मायावती ने अपने आवास से गिरफ्तार करवाया था। कुल मिलाकर उनके सरकार के प्रति जनता का रुझान बढा़ है। लोग समझने लगें हैं कि इस बार मायावती सही मायने में सर्वजन हिताए के लिए काम कर रही हैं।

जहां तक भाजपा का सवाल है कर्नाटक में विजय के बाद से उसके मनोबल में काफी इजाफा हुआ है। बनारस नगर निगम के उप चुनाव में एक सीट सपा से छीनने में वह कामयाब हुई है। लोक सभा चुनाव में अपेक्षाकृत बेहतर परिणाम उसे मिल सकते हैं। उत्तर प्रदेश में कई सीटे यदि भाजपा और बसपा अगर मिलकर बांट ले तो अचरज की बात नहीं होगी। कुल मिलाकर यह कि केंद्र तो मुलायम सिंह को मिलने से रहा, उत्तर प्रदेश उनके हाथ से जा रहा है।

फिलहाल तो उत्तर प्रदेश मायावती का ही है।

उत्तर प्रदेश को ले कर विभिन्न राजनीतिक पार्टियां चाहे जो दावा करें लेकिन यह राज्य फिलहाल तो मायावती का ही लगता है। मायावती का एक साल का शासन काल इसकी गवाही देता है। राज्य की स्थिति में चौतरफा सुधार हुआ है, यह उत्तर प्रदेश की जनता अच्छी तरह महसूस कर रही है। कानून व्यवस्था की सबसे बड़ी खासियत यह है कि मुलायम सिंह यादव कि तरह मायावती अपनी पार्टी के अपराधियों को बचा नहीं रही हैं। उनके पास कोई मुख्तार अंसारी नहीं है जिसके अपराधों पर पर्दा डालने के लिए मुलायम ने हर हथकंडा अपनाया था। कानून की निगाह में सभी बराबर हैं, यह उसी दिन सिद्ध हो गया था जब मायावती ने मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद अपनी पार्टी के सांसद उमाकांत यादव को अपने निवास से गिरफ्तार करवाया था। यही नहीं उन पर गैंगेस्टर एक्ट लगाया गया और वह अभी भी जेल में है। यादव कमजोर लोगों कि दुकानों पर बुल्डोजर चलवाने के बाद संरक्षण पाने कि आशा से मायावती के आवास पर गए थे लेकिन मायावती ने उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया। यही नहीं मायावती ने दो अपराधी मंत्रियों जमुना प्रसाद निषाद और आनंद सेन यादव तथा पार्टी के सचिव राम दक्षपाल को कानून के हवाले कर दिया। इसका जनता में अच्छा संदेश गया है। मुलायम सिंह यदि मुख्यमंत्री होते तो क्या करते, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश को अपनी जागीर की तरह चला रहे थे। उनका पूरा परिवार सांसद या विधायक तो है ही, अमर सिंह सुपर मुख्यमंत्री की भूमिका में थे। उनकी बात टालने की हैसियत किसी में नहीं थी और वह अपने तथा अपने मित्रों के कल्याण में लगे हुए थे। उनकी भूमिका आज भी यथावत है। यह उन्हीं की देन है कि पार्टी का आम कार्यकर्ता मुलायम सिंह से दूर होता जा रहा है। वह सोचता है कि पुलिस की लाठियां खाने के लिए तो वह है लेकिन मलाई खाने के लिए मुलायम का परिवार और अमर सिंह तथा उनका कुनबा है। यही कारण है कि शिवपाल सिंह यादव का करो या मरो का आवाह्न फ्लाप हो गया। अब उनकी अपील पर कार्यकर्ता मरने के लिए तैयार नहीं है। शिवपाल को तो छोड़िए मुलायम के कहे का कोई असर कार्यकर्ताओं पर नहीं हो रहा। जो लोग सपा का समर्थन कर रहे थे उनका भी मोहभंग मुलायम से हो रहा है। मुलायम सिंह का जनाधार तेजी से खिसक रहा है। अमर सिंह कहते हैं कि अमिताभ बच्चन हमारे साथ हैं और अगले चुनाव में सपा का प्रचार करेंगे। अमिताभ तो पिछले विधान सभा चुनाव में भी टीवी पर सपा का प्रचार कर रहे थे लेकिन उसका असर मतदातओं पर कितना पड़ा हम देख चुके हैं। खबर है कि लखनऊ से सपा के टिकट पर शबाना आज़मी को चुनाव लड़ाया जाएगा। अमर सिंह को फिल्म इंडस्ट्री ज्यादा रास आती है। उन्हें सिने तारिकाओं के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। चुनाव में शबाना आज़मी का क्या हस्र होगा, यह समय बताएगा।

कांग्रेस का जनाधार फिलहाल बढ़ता दिखाई नहीं दे रहा है। उसके पारम्परिक वोट सब तितर-बितर हो गए। जो बचे थे उसे रोज़मर्रा के इस्तेमाल के मूल्यों में वृद्धि ने और विमुख कर दिया है। विधान सभा चुनाव में ब्राहमण मतदाता बसपा कि तरफ झुके थे। लोक सभा चुनाव में वे कांग्रेस कि ओर पलटेंगे, इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है। मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन कांग्रेस को मिल सकता है बशर्ते मनमोहन सिंह की सरकार महंगाई पर काबू पाने में समर्थ हो। दलितों का विश्वास जीतने का राहुल गांधी का अभियान किस हद तक वोट में बदल पाएगा, कहना कठिन है। अभी यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि गैर यादव पिछड़ा वर्ग सपा से विमुख हो कर किधर जाएगा। कांग्रेस के पास समर्पित कार्यकर्ताओं का भी अभाव है जो कार्यकर्ता हैं, उनकी हिम्मत जनता के पास जाने की नहीं पड़ रही है क्योंकि लगातार बढ़ती महंगाई का कोई सार्थक स्पष्टीकरण वे नहीं दे पा रहे हैं जो आम जन के गले उतरे। वह मनमोहन सरकार की कौन सी उपलब्धि ले कर जनता के पास जाएगा ? किस मुद्दे पर जनता को आकर्षित करेगा? पेट्रोलियम पदार्थों में वृद्दि का सबसे बुरा असर मध्य वर्ग पर पड़ा है। कांग्रेस के थोड़े बहुत मतदाता इसी वर्ग के हैं। मुसलमानों का समर्थन कांग्रेस को मिल सकता है क्योंकि मुसलमान कभी नहीं चाहेंगे कि भाजपा देश की सत्ता पर काबिज हो।
कांग्रेस गठबंधन की सरकार का एक मात्र विकल्प भाजपा गठवंधन है। जो पार्टियां भाजपा के गठबंधन में शामिल हैं उनका वजूद उत्तर प्रदेश में नहीं है। इसलिए सारा दारोमदार भाजपा पर ही है। कांग्रेस से मतदाताओं की नाराजगी का लाभ भाजपा को मिल सकता है। विधान सभा के चुनाव में बसपा को वोट देने वाले ब्राहमण लोक सभा चुनाव में भाजपा के पास लौट सकते हैं। क्योंकि बसपा ऐसी हालत में नहीं होगी कि केंद्र में सरकार बना सके। इस बात की पूरी संभावना है कि ठाकुर और बनिया मतदाता भी भाजपा के साथ होंगे यदि पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में यह बात घर कर गई कि छोटे-मोटे जातिवादी दलों को दिया गया वोट निर्रथक होगा तो भाजपा को वोट दे सकते हैं।

विश्व हिन्दू परिषद मंदिर और गंगा को ले कर देशव्यापी आंदोलन चलाने की योजना तैयार कर रहा है। इस आंदेलन का मकसद हिन्दू मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में लामबंद करना है। लेकिन उत्तर प्रदेश का मतदाता इस बात को जेहन में रखेगा। हिमांचल और उत्तराखंड की भाजपा सरकारों में पेट्रो पदार्थों में कमी लाने से साफ इंकार कर दिया है। यही नहीं भारतीय संस्कृति का राग अलापने वाली उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने गंगा को जगह-जगह बांधने का कार्यक्रम तैयार किया है जिससे गंगा का रहा सहा अस्तित्व भी संकट में पड़ जाएगा। उसकी योजना है कि भूमिगत सुरंग द्वारा गंगोत्री से उत्तर काशी तक गंगा का जल प्रवाहित किया जाए। इस प्रवाह को जगह-जगह बांध कर बिजली पैदा की जाए। यदि यह योजना क्रियान्वित हुई तो इससे गंगा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। गंगा से विशेष सांस्कृतिक धार्मिक लगाव रखने वाले उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की भाजपा से नाराजगी स्वभाविक होगी। इसका असर चुनावों पर पड़े बिना नहीं रहेगा।

उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों के बाद सात सीटों के लिए उपचुनाव हुए हैं। पाँच विधानसभा और दो लोकसभा की सीटें थी। इन सभी सीटों पर बसपा की भारी मतों से विजय हुई। उसने सपा से भी सीटें छीनी और कांग्रेस तथा भाजपा के प्रत्याशियों की जमानतें जप्त हुई। ये उपचुनाव यदि लोकसभा आम चुनाव के कोई संकेत देते हैं तो कहना होगा कि कम से कम उत्तर प्रदेश में बसपा की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। मायावती के सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय नारे का जादू अभी जनता के सिर से उतरा नहीं है। गंगा की दुर्दशा की जिम्मेदारी भी मायावती के सिर नहीं मढ़ी जा सकती। इसके लिए कांग्रेस, जनता पार्टी और राजक सरकारें ही जिम्मेदार हैं और अब उत्तराखंड की भाजपा सरकार गंगा के बचे-खुचे अस्तित्व को मिटाने पर तुली है।

मायावती सरकार ने अपने एक वर्ष के कार्यकाल में ऐसा कोई कार्य नहीं किया है जिससे उसके दामन में कोई दाग लगा हो। जनता में कहीं किसी तरह का असंतोष दिखाई नहीं देता। मंहगाई को लेकर यदि असंतोष है तो उसका ठीकरा कांग्रेस के सिर ही फूटना है। बसपा का ग्राफ ऊपर रहने से विपक्षी दलों के सत्तालोभीयों का भगदड़ उसी की ओर है। ऐसे लोगों को शामिल किये जाने के बारे में बसपा को सतर्क रहना होगा। उसे नरेश अग्रवाल तथा अखिलेश दास जैसे नेताओं से बचना चाहिए था। इससे पार्टी के पुराने कार्यकर्त्ताओं में हताशा पैदा हो सकती है।

लोकसभा चुनाव नजदीक आने पर भले राजनीतिक समीकरण बदले फिलहाल तो उत्तर प्रदेश मायावती के ही हाथ में है।

शुक्रवार, 6 जून 2008

ये तो भारत पर सांस्कृतिक हमला है

आईपीएल- आईपीएल, 20-20खत्म हो गया। मुझसे किसी ने पूछा तो क्या चीयर्स लीडर्स भी वापस चली गई होंगी। मैं हंसा। क्योंकि मैने अभी भी उन्हें कई पेज थ्री पार्टियों में देखा था। कई खिलाड़ियों के साथ। आईपीएल के चेयरमैन ललित मोदी खुश हो सकते हैं कि उन्होंने कुछ गजब किया है।

लेकिन भाई ये आपने ठीक नहीं किया। मैदान पर अधनंगी लड़कियां क्यों नचवा दी। ऐसे कपड़े पहन कर मैदान में उतरी कि हल्ला मच गया।

अधनंगी लड़कियां मैदान पर जमकर अपसंस्कृति परोस रही थी। क्या भारत पर ये एक और सांस्कृतिक हमला है। मीडिया ने भी इसमें खूब मदद की। देशी-विदेशी दोनों मीडिया ने। विदेशी को तो फर्क नहीं पड़ता। लेकिन देशी मीडिया के लिए तो ये जबरदस्त मसाला था।

खेल के साथ नंगेपन का तड़का। किसी देश को पथभ्रष्ट करना है तो उसकी संस्कृति को खत्म कर दो। पश्चिमी चिंतक ऐसा सोचते हैं। पश्चिमी शासक ऐसा करते हैं। इसिलिए वो अपने जैसी सोच वालों को बढ़ावा देते हैं। भारत अब तक अटल रहा क्योंकि उसके पैर मजबूती से सांस्कृतिक विरासत की नींव पर खड़े रहे। लेकिन पश्चिम के साथ ही देश का पश्चिम परस्त नए रइसों या नए राजा इस नींव को दरकाने में पूरी तरह से लगे हुए हैं। इसी का नतीजा है क्रिकेट के मैदान पर चीयर लीडर्स की अश्लील और भोंडी हरकतें।

मनचले दर्शकों ने इनके बड़े मजे लिए। वो इनकी अश्लील हरकतों को देखकर फब्तियां कसते थे। स्टेडियम में आई संभ्रांत महिलाएं और लड़कियां शर्मसार होती रही। तो क्या पश्चिम परस्त लोग ऐसे पूरी करेंगे अपनी मंशा।

खेल अपने आप में मनोरंजक है। क्रिकेट की तो इस देश में पूजा होती है। ये दीवानगी है। धर्म है। यही वजह है कि वन डे मैच में स्टेडियम खचाखच भरा रहता है। २०-२० ने तो वन डे से ज्यादा लोकप्रियता बटोरी है। दर्शक मनोरंजन और रोमांच से सराबोर हो जाते हैं। फिर दर्शकों को क्रिकेट के अलावा इस तरह के सस्ते, अश्लील और भोंडे मनोरंजन की जरुरत क्यों? इससे तो खेल के प्रति दर्शकों की तल्लीनता खत्म होगी। खेल कम उनका ध्यान चीयर लीडर्स की तरफ ज्यादा रहता है।

मोदी जी मैदान में सिर्फ खेल होना चाहिए। नंगापन नहीं। इस भोंडेपन से खेल की गरिमा घटती है। खिलाड़ियों का ध्यान बंटता है। देश में अपसंस्कृति को बढ़ावा तो मिलता ही है। इस बार तो कर दिया।

लेकिन अगली बार ऐसा मत करिएगा। गुजारिश है आपसे। आप भी इसी देश के हैं। पवार साहब आप भी गौर फरमाइयेगा।

लम्पट बुश

दुनिया के सबसे सभ्य और धनी होने का दावा करने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति बुश यदि किसी देश का खुलेआम अपमान करते हैं तो उन्हें असभ्य, घमंड और लम्पट ही कहा जाएगा। हो सकता है कि भारत वासियों के लिए उन्होंने जिस 'भुक्खड़' शब्द का इस्तेमाल किया है उसका वो खुद मतलब नहीं जानते हों। लेकिन हम बता दें कि भारत एक ऐसा देश रहा है जिसके ऋषि-मुनि तपस्वी अन्न जल का त्याग कर तपस्या करते थे। उनकी संख्या हजारों में थी। ये परंपरा आज भी जारी है। हर घर में एक न एक महिला या पुरुष एक दिन का व्रत भी जरुर रखते हैं। यहां के लोग चना चबैना पर संतुष्ट रहने वाले हैं। इस जिंदगी को वो सुखद भी मानते हैं। धन और वैभव के लिए अगर भूख बढ़ी है तो वो उन्ही मुट्ठी भर लोगों में है जो पश्चिमी संपर्क में आए हैं।

भारत में बड़ी संख्या शाकाहारी लोगों की है। जबकि अमेरिका में ज्यादातर क्या लगभग सभी लोग मांसाहारी हैं। गाय, भैंस, सूअर वहां के डायनिंग टेबल का अभिन्न अंग है। भारत को ग्लोबल अनाज संकट के लिए जिम्मेदार बताने वाला अमेरिका इन पशुओं को अन्न का एक बड़ा हिस्सा खिलाता है। भारत का औसत किसान तीन हेक्टेयर जमीन में खेती करता है। जबकि अमेरिका में दस हेक्टेयर भूमि की उपज केवल पशु खा जाते हैं।

दुनिया के उत्पादक देशों में कच्चे तेल की कीमत लगातार बढ़ते जाने की वजह से अमेरिका जैविक ईंधन पैदा करने पर जोर दे रहा है। अमेरिका सहित लगभग सभी विकसित देश गेहूं की जगह अब मक्का और ईंख की खेती करने पर तुले हुए हैं। पेट्रोल के ताकि पेट्रोल के विकल्प के तौर पर जैविक ईंधन तैयार किया जा सके।

ये एक कड़वा सच है कि भारत में मध्य वर्ग के फलने फूलने के बावजूद खाद्यान्न की खपत कई सालों से लगभग स्थिर है। जबकि अमेरिका में सन २००३ से सन 2००७ के बीच ९४६ से बढ़कर १०४६ किलोग्राम प्रतिव्यक्ति सालाना हो गया है। मोटे तौर पर कहें तो अमेरिका में प्रतिव्यक्ति औसत खपत भारत से पांच गुना है। यही नहीं ये चीन का भी तीन गुना है। अब बुश बताएं कौन ज्यादा भुक्खड़ हुआ। भारत या अमेरिका?

अमेरिका को ये गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि दुनिया के कुछ देशों में गेहूं और चावल के लिए जो मारामारी मची हुई है वो भारत में आई खुशहाली की वजह से नहीं है। ये वही अमेरिका है जो भूखे देशों को अनाज देने की बजाय उसे समुद्र मे डुबो देता था। भारत जब अमेरिका के अनाज पर निर्भर था तब भी यहां अनाज के लिए कभी दंगे नहीं हुए। अब तो भारत अनाज का निर्यात भी करता है और जरुरत पड़ने पर आयात भी। भारत में एक वर्ग तेजी से उभर रहा है जिसकी अनाज पर निर्भरता तेजी से कम हो रही है। भारत में आ रही समृद्धि से विकसित देशों को चिंचित होने की जरुरत नहीं है। क्योंकि इस देश में अनाज की खपत कम ही हो रही है। वैसे भी गरीब लोग गेहूं, चावल, से अलग मोटे अनाजों, मक्का, चना
जौ जैसे खाने का इस्तेमाल करते हैं। बेबाक जुबां तो यही कहेगी - अमेरिका अपने यहां के अश्वेत और बेरोजगार भुक्खड़ों की चिंता करे।