मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

दौलतमंद चौटाला परिवार

हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के पास अकूत संपत्ति है। चौटाला और उसके परिवार ने 1993 से 2006 के बीच 80 से ज्यादा संपत्तियां जोड़ी हैं जो देश के विभिन्न इलाकों में फैली हैं। चौटाला परिवार के पास आधा दर्जन ट्रस्ट है, सोसाइटियां हैं और कंपनियां हैं। चौटाला के दो बेटे अजय और अभय चौटाला तथा उनकी पत्नियों के पास भी घोषित संपत्ति से कई गुना ज्यादा संपत्ति है। अजय औऱ अभय चौटाला के दो-दो बेटों ने भी जमकर संपत्ति बटोरी है। अजय और अभय चौटाला के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर दिए गए हैं। ओमप्रकाश चौटाला के खिलाफ कार्रवाई की मंजूरी मांगी गई है। मंजूरी मिलते ही उनके खिलाफ भी आरोप पत्र दाखिल कर दिया जाएगा। चौटाला परिवार ने जितनी संपत्ति घोषित की है उससे लगभग 80 करोड़ रुपए ज्यादा की संपत्ति उनके पास है। जिन अन्य राज्यों में चौटाला परिवार की संपत्तियां फैली हैं वहां की सरकारों से अनुमति मिलने के बाद उस परिसंपत्तियों को जब्त करने की कार्रवाई शुरु कर दी जाएगी। इन संपत्तियों को खंगालने का काम सीबीआई ने तीन वर्ष पूर्व शुरु कर दिया था। इससे आगे का काम संबंधित सरकारों से अनुमति मिलने पर निर्भर है। चौटाला परिवार ने दौलत कमाने का काम चौधरी देवी लाल के समय से ही शरु कर दिया था। राज्यों के ऐसे मुखिया उसे अपनी जागीर समझने लगते हैं और पुराने रजवाड़ों की तरह जनता से वसूले गए धन को अपनी निजी कमाई। वे उस धन का उपयोग जनता के हितों के लिए न करके चल अचल संपत्ति एकत्रित करने में जुट जाते हैं। भाषण कला में माहिर ऐसे नेता राज्यों को अपनी निजी जागीर समझते हैं और चाहते हैं कि यह जागीर उनके परिवार के पास ही रहे। जैसे उत्तर प्रदेश के नेता मुलायम सिंह यादव ने पूरे राज्य को अपनी निजी जागीर बना ली है। लेकिन ऐसे नेताओं का सामंतवादी चेहरा और सामंतवादी रुझान ज्यादा दिनों तक जनता की निगाहों से छिपा नहीं रहता। यह तिलस्म टूट ही जाता है। यह सामंतवाद लोकतंत्र को घुन की तरह खा रहा है। लगभग हर नेता अपनी कथित लोकप्रियता का लाभ उठाकर अपने परिजनों तथा पुत्र पुत्रियों को अपना उत्तराधिकार सौंप रहा है। यदि वह सिंहासन पर है उसके पुत्र या पुत्रियां सूबेदार तो है ही। देवी लाल जैसे वीपी सरकार में उप प्रधानमंत्री थे तभी उन्हें ओम प्रकाश चौटाला को हरियाणा सौंप देने की धुन सवार हो गई। उन्हें दिल्ली बुलाकर अपने कुछ सिपहसालारों की उपस्थिति में हरियाणा भवन में ताज-ओ-तख्त सौंप दिया। लेकिन पुत्र की ताजपोशी प्रधानमंत्री को इतनी बुरी लगी कि उन्होंने देवीलाल को उप प्रधानमंत्री पद से हटा दिया और उनका सारा खेल बिगड़ गया। हरियाणा शायद ऐसा पहला राज्य था जिसमें एक साथ तीन पीढियां सत्ता सुख ले रही थी। इसी नक्शे कदम पर मुलायम सिंह यादव भी चल रहे हैं लेकिन उनका तिलस्म भी टूटने लगा है। फिरोजाबाद के उपचुनाव में पुत्रवधू डिंपल यादव की पराजय इसका सबसे सही सटीक सबूत है। राजनेताओं के लिए राजनीति, दौलत, शोहरत, ग्लैमर, सामाजिक प्रतिष्ठा सबकुछ देने वाला अलादीन का चिराग है। यह चिराग उनके अंदर सोई हुई जन्म जन्मांतर की लालसा को पूरी कर देता है। बस एक बार सत्ता हाथ लग जाए। फिर देखिए उनका कौशल। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की तरह खजाने का दरवाजा खोने में न कोई हिचक न कोई झिझक और न कोई शर्म। बेशर्मी की हदें पार करने वाले ऐसे तमाम आरोपों को दरकिनार करते हुए बेहयाई से जनता के बीच जाकर उसकी भावनाएं उभारते हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं वह देखते ही बनता है। जातिवाद, क्षेत्रवाद समाजवाद, जनसेवा, विकास आदि कुछ ऐसे आकर्षक शब्द हैं जिनके चुंबकीय शक्ति से अनपढ़ गरीब और भोलीभाली जनता खिंची चली आती है और अपने भाग्य की डोर ऐसे तिलस्मी, झूठे और जनविरोधी नेताओं के हाथों में सौंप देती है। यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा जब तक लोग सुशिक्षित और जागरुक नहीं हो जाते।

रविवार, 22 नवंबर 2009

अमेरिका की अड़ंगेबाजी..

अमेरिका ने परमाणु अप्रसार संधि पर भारत से आश्वासन पत्र मांगा है। यह पत्र ऐसे समय में मांगा गया है जब भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह स्टेट गेस्ट के रुप में अमेरिका की यात्रा करने वाले थे और खर्च हो चुके ईंधन के पुनर्प्रसंस्करण के संबंध में भारत और अमेरिका के शीर्ष अधिकारियों में बातचीत हो रही थी। अमेरिकी अधिकारियों की शर्त से भारतीय अधिकारी अचंभे में पड़ गए। भारत यदि अमेरिका को इस तरह का आश्वासन पत्र नहीं देगा तो ओबामा प्रशासन असैन्य परमाणु के व्यापार में लगी हुई अमेरिकी कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंस पार्ट एट टेन जारी नहीं करेगा।

भारत-अमेरिका के बीच परमाणु करार पर हस्ताक्षर हुए एक साल हो गए हैं और दोनों देशों के बीच इस मुद्दे को लेकर अविश्वसनीयता बनी हुई है। ओबामा प्रशासन ने अमेरिकी संसद को अभी भी लिखकर नहीं दिया है कि भारत से हुआ परमाणु करार अमल में लाया जा चुका है। ओबामा प्रशासन भारत सिर्फ आश्वासन पत्र ही नहीं चाहता है वरन उसकी ओर से अन्य कई बाधाएं खड़ी की जा रही है। परमाणु करार पर अमेरिकी संसद द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी कंपनियों को परमाणु क्षेत्र में भारत से सहयोग करने के पहले अभी कई औपचारिकताएं पूरी की जानी हैं। ओबामा प्रशासन के अलावा अभी भारत को भी कई औपचारिकताएं पूरी करनी हैं। अमेरिका भारत से यह आश्वासन भी चाहता है कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों के संबंध में जो सूचनाएं दी हैं वे अमेरिका को दी गई सूचनाओं से अलग नहीं हैं।


भारत अमेरिका से हुए असैन्य परमाणु करार के 123 समझौतों के निर्विघ्न लागू होने के प्रति पूरी तरह से आशान्वित रहा लेकिन अब लगता है कि यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है जितना भारत समझता रहा। अमेरिका नए-नए अड़ंगे लगाता रहेगा ताकि भारत परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य हो जाए। परमाणु अप्रसार पर नया आश्वासन पत्र मांगना इसी सिलसिले की एक कड़ी है। यह गैरजरुरी अड़ंगेबाजी इसलिए भारत को चकित करती है क्योंकि भारत अमेरिका को बार-बार मौखिक आश्वासन देता रहा है कि वह भविष्य में कोई परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। ऐसा आश्वासन राजग सरकार ने पोखरण-2 के बाद ही विश्व को दे दिया था। भारतीय वैज्ञानिकों ने भी कहा था कि भारत को अब परमाणु परीक्षण करने की जरुरत नहीं है। अमेरिकी अधिकारियों को कई बार यह बताया जा चुका है कि भारत के लिए परमाणु हथियारों का निर्माण क्यों जरुरी है।


भारत कम से कम दो पड़ोसी शत्रु राष्ट्रों से घिरा हुआ है जो परमाणु तथा अन्य सैन्य हथियार का जखीरा खड़ा करते जा रहे हैं। पाकिस्तान जैसे छोटे से देश के पास भी भारत से ज्यादा परमाणु बम हैं। चीन उसे शस्त्र सज्जित करने में लगा हुआ है। इटली के सहयोग से पाकिस्तान चालक रहित विमान भी बनाने जा रहा है। वह चीन से अत्याधुनिक लड़ाकू विमान भी हासिल कर रहा है। चीन भी सैनिक क्षमता में भारत से मीलों आगे है और वह म्यानमार, श्रीलंका तथा पाकिस्तान में नौसेनिक अड्डा बनाकर भारत की जबरदस्त नाकेबंदी करने के फिराक में है। ऐसी स्थिति में भारत परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करके अपना हाथ कैसे कटा सकता है?


ओबामा प्रशासन को उन परिस्थितियों पर गौर करना चाहिए जिनके कारण भारत को परमाणु हथियारों के निर्माण के लिए बाध्य होना पड़ा है। चीन के एक औऱ मित्र राष्ट्र उत्तर कोरिया ने भी ओबामा प्रशासन की परवाह किए बिना परमाणु बम बना लिया है। अमेरिका की धौंसपट्टी से वह जरा भी विचलित नहीं है। ईरान भी उसी ओर अग्रसर है। चीन औऱ पाकिस्तान दोनों ही देश भारत के लिए बड़े खतरें हैं। ओबामा प्रशासन को इस तथ्य से अवगत होना चाहिए। लेकिन राष्ट्रपति एक तरफ परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर के लिए भारत की गरदन मरोड़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ चीन से दोस्ती का प्रयास कर रहे हैं और पाकिस्तान को भरपूर आर्थिक सहायता दे रहे हैं। यह जानते हुए कि पाकिस्तान उसका उपयोग सैन्य विस्तार में कर रहा है। जिसका इस्तेमाल भारत के खिलाफ ही होना है।


अमेरिका से असैन्य परमाणु करार राष्ट्रपति बुश के समय हुआ था। हो सकता है कि इसीलिए ओबामा इस संधि के प्रति ज्यादा गंभीर न हों और इसका इस्तेमाल भारत से सौदेबाजी के लिए कर रहे हों। अपनी इसी नीति के तहत उन्होंने चीन को भारत औऱ पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने का निमंत्रण दिया है। जिसे अस्वीकार कर भारत ने ओबामा को अपनी दृढ़ता से अवगत करा दिया है। साथ ही यह संदेश भी दिया है कि अमेरिका से दोस्ती की इच्छा का यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि भारत उसकी दादागीरी बर्दाश्त कर लेगा। भारत विकास और सैनिक क्षमता में वृद्धि का विकल्प खुला रखने के लिए स्वतंत्र है। वैसे इस बात की प्रबल संभावना है कि ओबामा और मनमोहन सिंह वार्ता की मेज पर इस अहं मुद्दे को सुलझाने में कामयाब हो जाएंगे।

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

कांग्रेस के मजबूत पांव

तीन विधानसभाओं महाराष्ट्र, हरियाणा और अरुणाचल के चुनाव परिणाम सामने हैं। चुनाव परिणामों को देख कर लगता है कि कांग्रेस के दिन पूरी मजबूती से लौटने वाले हैं। विपक्ष चाहे वह प्रांतीय दलों के रुप में हो या राष्ट्रीय दल के रुप में स्वयं ही कांग्रेस के हाथों पिटता जा रहा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस औऱ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा था और यह तीसरी बाद है जब वो गठबंधन सरकार बनाने जा रही है। खासियत ये है कि इस गठजोड़ को लगभग पूर्ण बहुमत हासिल हो गया है। यह भी कि पिछले विधानसभा चुनाव में जहां कांग्रेस को 69 और शरद पवार का राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 71 सीटें हासिल हुई थी। वहीं इस विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 80 सीटों का आकड़ा पार कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। अब शरद पवार केंद्र और राज्य की सत्ता में भागीदारी करके भी निश्चिंत नहीं रह सकेंगे। जनता ने उनकी सीटें कम करके यह संकेत दे दिया है। उन्हें अब अपना जनाधार बढ़ाने के लिए नए सिरे से कुछ करना होगा। अन्यथा सत्ता का आनंद भोगते हुए उन्हें एक बार फिर से कांग्रेस की गोद में लौटना होगा।

महाराष्ट्र के चुनाव ने सबसे ज्यादा किसी को धक्का पहुंचाया है तो वे हैं बाल ठाकरे। बाल ठाकरे जिस दिशा में चलकर राजनीति के इस धरातल पर पहुंचे थे। उसी दिशा में और उग्रता से चलते हुए हिंदी भाषी जनता के खिलाफ जहर उगलते हुए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे ने 13 सीटें हासिल कर बाल ठाकरे और उनके बेटे उद्धव ठाकरे के कान खड़े कर दिए हैं। मनसे ने लगभग 30 सीटों पर शिवसेना को नुकसान पहुंचाया है। भाजपा और शिवसेना को कुल मिलाकर 90 सीटों से संतोष करना पड़ा। सरकार बनाने का इनका सपना धरा का धरा रह गया। राज ठाकरे जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे भाजपा की यह दुविधा बढ़ती जाएगी कि शिवसेना और मनसे में से वह किसे चुने और कट्टर हिंदुत्व के इस धड़े को वह कैसे साधे कि महाराष्ट्र में उनकी जगह बन सके। उल्लेखनीय बात ये है कि महाराष्ट्र के गावों की बदहाल स्थिति तथा विदर्भ जैसे क्षेत्रों में किसानों की आत्महत्याओं के बावजूद भी भाजपा और शिवसेना ने मिलकर ऐसा सकारात्मक माहौल नहीं बनाया कि जिससे कि जनता उनपर भरोसा कर सके।

भाजपा के अंदर मचे घमासान से उसे फुर्सत ही नही है कि वह राजनीति का कोई सकारात्मक आंदोलन खड़ा करे औऱ जनता का विश्वास हासिल करे। शिवसेना की जमीन कट्टरता पर टिकी है। जिसका तीव्र प्रसार शहरों में ज्यादा होता है। इसलिए संपूर्ण महाराष्ट्र को वह अपना कार्यक्षेत्र बना पाएगी इसमें संदेह है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के राज ठाकरे जहर उगलने वाले नेता है। इसलिए उनकी सफलता भी तात्कालिक किस्म की ही है। वो बहुत आगे निकल कर और महाराष्ट्र की बहुलतावादी संस्कृति को समेट कर आगे बढ़ने की संभावना नहीं जगाते।

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कांग्रेस पार्टी के शऱद पवार ने भी जिस तरह समझदारी का परिचय देते हुए। मुख्यमंत्री का दारोमदार कांग्रेस पर छोड़ दिया। उससे संकेत मिलता है कि गठबंधन समझदारी से काम करेगा। और विकास कार्यों को अंजाम देता हुआ अपनी जड़े मजबूत करेगा।

अरुणाचल प्रदेश में भी कांग्रेस को जबरदस्त सफलता हासिल हुई है। साठ सीटों के विधानसभा में कांग्रेस ने 42 सीटें हासिल कर सभी दलों को किनारे लगा दिया है। भाजपा 6 सीटों का नुकसान उठा 3 सीटों पर अटक गई। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 4 सीटों का फायदा हुआ और वो 6 सीटों पर पर पहुंच गई। तृणमूल कांग्रेस ने भी पांच सीटों पर कब्जा जमाकर पश्चिम बंगाल के अलावा अरुणाचल में भी अपनी दस्तक दे दी।

हरियाणा का परिणाम सबसे दिलचस्प है। यहां इंडियन नेशनल लोकदल ने 32 सीटें जीतकर कांग्रेस को बैकफुट पर ला दिया है। 90 सीटों की विधानसभा में हांलाकि कांग्रेस को 40 सीटें मिली हैं। लेकिन उसे पिछले चुनाव के मुकाबले 27 सीटों का घाटा हुआ है। भाजपा 3 सीटों का नुकसान सहकर चार पर अटकी है। भजनलाल की पार्टी हरियाणा जन कांग्रेस को 6 सीटें हासिल हुई है। उन्होंने पिछली विधानसभा के बाद ही मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाने पर अलग पार्टी का गठन किया था। भजनलाल ने सत्ता की बिसात पर हुड्डा को मात देने की पूरी कोशिश लेकिन 7 निर्दलीय विधायकों ने कांग्रेस का समर्थन कर इनका खेल बिगाड़ दिया। इस चुनाव में जहां इंडियन नेशनल लोकदल के ओम प्रकाश चौटाला को अच्छी खासी सीटें हासिल हुई वहीं भाजपा कमजोर पड़ी। इसका मतलब यही है कि ग्रामीण जनता पर कांग्रेस असर नहीं डाल सकी और उन क्षेत्रों में चौटाला अपना समर्थन वापस लाने में कामयाब रहे। भाजपा ने चौटाला को अकेले छोड़ दिया था। यदि दोनों पार्टियों के बीच बेहतर तालमेल होता तो आज चौटाला कांग्रेस को अपदस्थ कर सरकार बनाने की स्थिति में भी आ सकते थे।

हरियाणा में अपेक्षित प्रदर्शन न किए जाने के बावजूद कांग्रेस ने महाराष्ट्र और अऱुणाचल में जैसी सफलता हासिल की है उससे स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि वह मजबूती से अपने पांव आगे बढ़ा रही हैं। वह राष्ट्रीय विपक्ष के रुप में भाजपा को हर जगह कमजोर कर ही रही है क्षेत्रीय क्षत्रपों पर भी भारी पड़ रही है। धीरे धीरे वह समझदारी से कदम बढ़ाते हुए अपना जनाधार वापस लाने में लग गई है। क्षेत्रीय क्षत्रपों एवं भाजपा के नकारात्मक राजनीति के बीच उसने विकास का सकारात्मक नारा दिया है और अपने प्रांतीय नेताओं को भी जमीनी राजनीति करने का निर्देश दिया है। इसके लिए उसने स्वतंत्रता आंदोलन की अपनी विरासत से सीख लेते हुए सामान्य जन के दुख सुख में भाग लेने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को दिशा निर्देश दिए हैं। बहुत समय तक लगातार सत्ता से जुड़े रहने के कारण कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आरामतलबी की आदत पड़ गई थी। राहुल गांधी ने कांग्रेस की पुरानी राजनीतिक शैली को जागृत किया है।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ समाज सुधार के अनेक आंदोलनों एवं जनसेवा के अनेक कार्यक्रमों का संचालन भी करते रहते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि राजनिती को जनसेवा का माध्यम बनना चाहिए और इसके लिए सत्ता की प्राप्ति जरुरी नहीं है बल्कि दलों को इसे निरंतर प्रक्रिया के रुप में अपनाना चाहिए। गांधी जी के बराबर तो शायद कांग्रेस सोच भी न सके लेकिन थोड़ा सा भी सीख लेकर राहुल गांधी ने गांवों के मन को छूने का अपना अभियान जारी रखा तो उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में तस्वीर बदल सकती है।

राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश के बहराइच के एक गांव में रात बिताकर मायावती के कान खड़े कर दिए। उन्हें सचमुच लगने लगा कि यदि राहुल इसी तरह गावों की यात्रा करते रहे तो उनका जनाधार खिसक सकता है। इसिलिए वो आक्रामक भी बहुत ज्यादा हो गई हैं। झारखंड में भी राहुल ने दौरा किया औऱ जमीनी हकीकत जानने की कोशिश की। उन्होंने कहा भी कि विकास की रोशनी जमीनी स्तर पर बहुत कम पहुंची है औऱ नक्सल वाद को बढ़ाने में इसका बहुत बड़ा योगदान है। नक्सलवाद को खत्म करने के लिए विकास की रोशनी जमीन तक पहुंचाना होगा।

राहुल गांधी सोचसमझ कर ही उत्तर प्रदेश औऱ झारखंड का दौरा कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन वापस पाना कांग्रेस के लिए बेहद जरुरी है। लोकसभा में जनता ने अपेक्षा से अधिक सीटें देकर कांग्रेस का मनोबल भी बढ़ा दिया है। इधर सपा और बसपा की नकारात्मक राजनीति और प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने जनता को त्रस्त करके रख दिया है। अब वह भी साफसुथरे प्रशासन एवं विकास की राजनीति को आगे बढ़ाने वाली सरकार चाहती है। इस स्थिति में कांग्रेस को फायदा होना स्वाभाविक है।

आने वाला दिसंबर भाजपा और कांग्रेस की स्थिति को और स्पष्ट कर देगा जब झारखंड विधानसभा के परिणाम सामने आएंगे। वहां जनता ने भाजपा को मौका दिया लेकिन खींचतान ही अधिक होती रही। राज्य अलग होने पर जैसी विकास की उम्मीद थी वैसा हुआ नहीं इस चुनाव में कांग्रेस उत्साहित है उसका मनोबल बढ़ा हुआ है वह लालू को भी किनारे करने का मन बना चुकी है। यदि अपने दम पर उसे झारखंड में सफलता मिल जाती है तो फिर उत्तर प्रदेश में भी उसका रथचक्र आगे बढ़ेगा और केंद्रीय सत्ता की चाभी पूरी तरह से उसकी हाथ में होगी।

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

करोड़पति सिब्बल का, अरबों का आइडिया


मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा में बैठने के लिए इंटरमीडिएट में न्यूनतम 80 फीसदी पाने की बाध्यता होने की अपनी इच्छा क्या जताई कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों में इसकी जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। अपनी योग्यता पर जरुरत से ज्यादा भरोसा करने वाले सिब्बल को उम्मीद थी कि उनके इस विद्वतापूर्ण परिकल्पना को सभी शिरोधार्य कर लेंगे। लेकिन उग्र विरोध औऱ भारी दबाव के कारण वो अपने पूर्व बयान से पलट गए। अपने पहले के बयान में उन्होंने 80-85 फीसदी अनिवार्यता के दो कारण बताए थे।
एक यह कि
छात्र अपनी कक्षाओं में जाएंगे औऱ परीश्रम से पढेंगे।

और दूसरी यह कि
कुकरमुत्तों की तरह उग रहे कोचिंग संस्थानों की प्रासंगिकता घटेगी।

दूसरे दिन के बयान में उन्होंने सफाई दी कि इस संबंध में निर्णय लेना उनके मंत्रालय का काम नहीं हैं। दूसरे दिन के बयान में सिब्बल ने अपने पहले के बयान से पलटते हुए कहा कि अभी विशेषज्ञों की समिति प्रवेश परीक्षा की प्रक्रिया तय कर रही है। वह जो सिफारिश करेगी वही मान्य होगी। हमने बार बार देखा है कि समितियां वही सिफारिश करती हैं जो सरकारें चाहती हैं।
जहां तक कोचिंग सेंटरों का सवाल है तो उनकी अहमियत घटने की बजाय बढ़ेगी। इंटर में पढ़ने वाले जो छात्र कोचिंग जाने की स्थिति में नहीं होते हैं। वो भी किसी तरह पैसा जुगाड़कर के कोचिंग जाएंगे ताकि इंटर में उनके 80 फीसदी अंक आ जाए। इसके लिए भले ही अभिभवाकों को खेत या गहने बेचने पड़े, कर्ज लेना पड़े।

सीबीएसई बोर्ड में 80 से 90 फीसदी अंक पाने वाले छात्रों की भरमार होती है। जबकि राज्यों के बोर्ड में इतने फीसदी अंक पाने वाले छात्र उंगलियों पर गिने जाते हैं। शिक्षा विदों का कहना है कि सीबीएसई बोर्ड अपने छात्रों को उदारता पूर्वक अंक देता है। यह भी कह सकते हैं कि वह अंक जुटाता है। जबकि राज्यों के बोर्ड परिक्षार्थियों की कॉपियां कड़ाई से जंचवाते हैं औऱ नंबर देने में कंजूसी करते हैं। सीबीएसई बोर्ड द्वारा मान्यता प्राप्त पब्लिक स्कूलों में प्राय: संपन्न परिवारों की संताने जाती हैं औऱ अनिवार्य रुप से कोचिंग और ट्यूशन पढ़ती हैं। इनके शिक्षित अभिभावक इन्हें घर पर भी गाइड करते हैं।

इसके विपरित राज्यों के बोर्डों से संबंध ज्यादातर स्कूल या कॉलेजों में किसानों, मजदूरों, छोटे-मोटे व्यापारियों और कर्मचारियों की संताने जाती हैं। जिन्हें न तो घर पर ही उपयुक्त वातावरण और साधन मिलता है औऱ ना ही शिक्षा संस्थानों में। यूपी बोर्ड से संबंधित हजारों शिक्षण संस्थाओं में अध्यापकों की भारी कमी है। इन कॉलेजों में विज्ञान के छात्रों के लिए कायदे की लेबोरेटरी भी नहीं है। कम वेतन पर अधकचरे ज्ञान वाले अध्यापक और अध्यापिकाएं रखी जाती हैं। हांलाकि यही हाल पब्लिक स्कूलों का भी है। लेकिन वहां के छात्र कोचिंग या ट्यूशन के जरिए स्कूलों की कमी पूरी कर लेते हैं। लेकिन राज्यों से संबंधित शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने वाले गरीब-ग्रामीण छात्रों को ये सुविधाएं नहीं मिल पाती। एक बात यह भी है कि केंद्रीय या प्रांतीय बोर्ड की परीक्षाओं में मिले अंक छात्रों की प्रतिभा की कसौटी नहीं हो सकते।

उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड में परिक्षार्थियों की कॉपियां जांचने में कितनी अंधेरगर्दी होती है ये बात किसी से छिपी नहीं है। ऐसी घटनाएं हर साल सामने आती है जब परीक्षा में फिसड्डी आने वाले छात्र की कॉपी जब दुबारा जांची गई तो वह मेरिट में आ गया। या अच्छे नंबरों से पास हुआ। कभी कभी परीक्षकों की लापरवाही परिक्षार्थी का भविष्य चौपट कर देती है। इसलिए यह नहीं माना जा सकता है कि परीक्षा में मिले नंबर छात्र की योग्यता का सटीक पैमाना होते हैं।

किसी छात्र का सिर्फ एक परीक्षा में प्राप्त अंक के आधार पर उसका पूरा भविष्य चौपट कर देना उचित नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इंजीनियरिंग या अन्य तकनीकी कक्षा में प्रवेश इंटरमीडिएट में प्राप्त अंको के आधार पर नहीं होता उसके लिए अलग प्रवेश परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं तब इंटर की परीक्षा को छात्र की प्रतिभा की कसौटी मानने का क्या औचित्य है।

जो कपिल सिब्बल हाई स्कूल के छात्रों के लिए बोर्ड की परीक्षा की अनिवार्यता खत्म कर देते हैं वे इंटर के छात्रों के लिए इंजीनियरिंग में दाखिले को इतना कठिन औऱ असंभव क्यों बना रहे हैं।
एक सवाल यह भी है कि उन छात्रों का क्या होगा जो आरक्षित कोटे से आते हैं। यदि कपिल सिब्बल की मंशा लागू कर दी गई तो उन राज्यों खास तौर पर उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे राज्यों के छात्र इंजीनियरिंग की कक्षाओं में खोजे नहीं मिलेंगे। जिस देश की संसद करोड़पतियों से भरी हो। जिस देश के मंत्री हाईटेक हों और जमीनी हकीकत से उन्हें कोई सरोकार न हो। उस देश में ऐसे ही जनविरोधी निर्णय लिए जाएंगे। ये एक कड़वी सच्चाई है।

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

कश्मीर- अभिन्न अंग या मुद्दा?

कश्मीर समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार ने नए सिरे से पहल शुरू कर दी है। गृहमंत्री पी चिदंबरम हाल ही में कश्मीर गए थे और कुछ नेताओं से बातचीत भी की है। गृहमंत्री के मुताबिक कश्मीर के संबंध में अब किसी समूह से नहीं व्यक्तिगत बातचीत होगी। सैयद अली शाह गिलानी जैसे विघ्नसंतोषी नेताओं को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर के अधिकांश नेताओं और संस्थाओं ने गृहमंत्री के पहल का स्वागत किया है। चिदंबरम कश्मीरी नेताओं से बातचीत तो बहुत ही गोपनीय रखेंगे। मीडिया को भी भनक नहीं लगने देंगे। वार्ता में सक्रिय सहयोग के लिए एक वरिष्ठ और अनुभवी नौकरशाह को कश्मीर में नियुक्त किया है। एक संतोष की बात यह है कि कई समूहों के गठबंधन ने भी कश्मीर पर बातचीत का स्वागत किया है और अलगाववादी नेताओं ने वार्ता में पाकिस्तान को शामिल करने का हठ भी छोड़ दिया है। कश्मीर पर संवादहीनता की स्थिति का खत्म होना स्वागत योग्य है।

देश की जनता भले ही यह न जान पाए कि कश्मीरी नेताओं और केंद्र सरकार के बीच क्या खिचड़ी पक रही है। वार्ता का अंतिम परिणाम जब सामने आएगा, तभी जनता निर्णय लेगी कि उसे क्या करना चाहिए, स्वागत या विरोध। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसी महीने के अंत में कश्मीर जा रहे हैं। संभव है वहां कुछ महत्वपूर्ण कश्मीरी नेताओं से बातचीत हो। कश्मीर समस्या के सम्माजनक हल इसलिए भी जरुरी है क्योंकि पाकिस्तान इस समस्या पर अतर्राष्ट्रीयकरण करने में सफल हो गया है। कुछ माह पहले हुए इस्लामी संगठन के सम्मेलन में कश्मीर का मुद्दा उठा था। इसी महीने के अंत में कुछ अरब देशों के प्रतिनिधि लंदन में एक बैठक करने वाले हैं जिसमें कश्मीर समस्या पर विचार होना है।

वास्तव में भारत के एक महाशक्ति के रुप में उभरने की संभावनाओं से कुछ समृद्ध देश संशकित हो गए हैं, इसलिए वे कश्मीर समस्या को हवा देने में लगे हुए हैं। वे कश्मीर जैसी अन्य समस्याओं में भारत को उलझाना चाहते हैं। अमेरिका एक तरफ भारत को विश्वसनीय दोस्त होने का आश्वासन देता है, दूसरी तरफ पाकिस्तान को एफ-16 जैसे उच्चस्तरीय युद्धक विमान भी देता है। जाहिर है इस विमान का प्रयोग भारत के खिलाफ ही किया जाएगा। चीन तो पाकिस्तान का दोस्त है ही। वह पाकिस्तान से सामरिक रक्षा संधि भी करने के लिए तैयार हो गया है। यही नहीं मीडिया कर्मियों को बांटे गए एक नक्शे में तो उसने जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करके दिखाया हैं।

ऐसी स्थिति में कश्मीर समस्या भारत की प्रमुखता सूची में आ गया है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। केंद्र सरकार ने कश्मीर को दो केंद्रीय विश्वविद्यालय तो दिया ही है, कश्मीर तक रेल लाइन बिछाने की योजना पर भी शीघ्र ही अमल होने वाला है। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री इसी महीने होने वाली कश्मीर यात्रा के दौरान करेंगे। केंद्र ने कश्मीर के विकास को तेज गति देने का निर्णय लिया है। गृहमंत्री ने कश्मीर में कहा है कि कश्मीर समस्या को लेकर उनके मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं है। इससे हुर्रियत नेताओं का उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है। नरमपंथी हुर्रियत नेता मीरवाइज फारुक ने यहां तक कह डाला कि भारत सरकार अब कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं मानता बल्कि एक मुद्दा मानता है जिसे बातचीत से हल किया जा सकता है।

यदि हुर्रियत नेता का ये बयान सही है तो इससे देशवासी अवश्य चिंतित होंगे। भारत सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। यदि भारत ने इसे स्वीकार कर लिया तो इसके परिणाम घातक और दूरगामी होंगे। पाकिस्तान इस कथित मुद्दे को हल करने के लिए अपनी पुरानी आत्मनिर्णय की मांग जोर शोर से उठा सकता है और हो सकता है कि अरब या अन्य इस्लामी देश उसका साथ दें। कश्मीर के अलगाववादी और उग्रवादी पाकिस्तान की इस पुरानी मांग का समर्थन करें।

अमेरिका एक अरसे से चाहता है कि भारत उसे कश्मीर में सैनिक अड्डा बनाने की अनुमति दे। इस तरह की इच्छा ब्रिटेन भी जाहिर कर चुका है। हो सकता है कि अमेरिका चाहता हो कि कश्मीर पाकिस्तान के हिस्से पड़े ताकि उसकी फौजी अड्डा बनाने की चिर प्रतीक्षित इच्छा पूरी हो सके। बहरहाल अगर भारत सरकार ने कश्मीर को अपनी भूमि मानने की बजाय यदि एक विवादास्पद मुद्दा मान लिया है तो उसके सामने सवालों और उलझनों का पहाड़ खड़ा हो जाएगा। चीन की दिलचस्पी भी कश्मीर ‘मुद्दे’ में बढ़ जाएगी।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत यही है कि सरकारी नीतियों की पुस्तक के सभी अध्याय जनता के लिए खुले हों। यह सही है कि कुछ क्षेत्र गोपनीय रखे जाते हैं लेकिन जब देश के एक भू-भाग के भविष्य का सवाल हो तो जनता जानना चाहेगी कि भारत की सरकार और उसके नेता क्या खिचड़ी पका रहे हैं। संविधान की धारा 370 की तरह कोई और खेल तो नहीं होने जा रहा है?

वैसे भी भारतीय नेता अपनी दरियादिली के लिए विश्व में कुख्यात हैं। इसी दरियादिली के कारण ही भारत की सीमाएं लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। बांग्लादेश को भी कुछ क्षेत्र दान किया गया। पाकिस्तान कश्मीर के एक हिस्से पर जमा ही हुआ है। पिछले दिनों सियाचिन से भारतीय सेना हटा लेने की चर्चा थी। यदि ऐसा होता तो सियाचिन भी पाकिस्तान के कब्जे में होता। चीन 1962 से ही लद्दाख क्षेत्र में तकरीबन 48 हजार वर्ग किलो मीटर जमीन कब्जाए हुए है। यदि इस गुपचुप सहमति में कश्मीर भी भारत के हाथ से निकल जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

चीन की चाल समझो!


हाल के विधानसभा चुनाव में जब प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह अरुणाचल प्रदेश गए तो चीन को बहुत बुरा लगा। चीन के विदेश मंत्रालय ने कड़ा ऐतराज जताते हुए कहा कि अरुणाचल प्रदेश विवादित क्षेत्र है इसलिए भारत के प्रधानमंत्री को वहां नहीं जाना चाहिए था। हांलाकि अरुणाचल प्रदेश के लोगों ने 70 फीसदी मतदान कर चीन को करारा जवाब दे दिया था। लेकिन भारत के विदेश मंत्रालय ने भी चीन की आपत्ति को खारिज करते हुए कहा कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न हिस्सा है इसीलिए भारतीय प्रधानमंत्री वहां जब चाहे जा सकते हैं।

लेकिन इस बात भारत की खामोशी टूटी तो काफी जोश भरी थी। भारत ने चीन पर पलटवार करते हुए कहा कि चीन अपनी उन परियोजनाओं को तुरंत बंद कर दे जो पाकिस्तान द्वारा कब्जाई गई जम्मू-कश्मीर की जमीन में चला रहा है। भारत की यह भूमि 1947 से ही पाकिस्तान के अनधिकृत कब्जे में है। चीन ने अवैध तरीके से इस भूभाग में सड़क बना रखी है। अब चीन इसे दुबारा बना रहा है। उसे भारत के इस भूभाग में ये निर्माण कार्य तत्काल बंद कर देना चाहिए ताकि दोनों देशों के बीच दीर्घ कालिक संबंध बने रहे।

भारत के इस तल्ख बयान के बाद चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने की इच्छा व्यक्त की है। थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में 23 से 25 अक्टूबर तक होने वाले आसियान सम्मेलन में दोनों देशों के नेता एक साथ होंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि भारत औऱ चीन के प्रधानमंत्रियों के बीच में बातचीत हो।

चीन दो तरफा चाल चलने में माहिर खिलाड़ी हैं। उसकी कूटनीतिक चालें प्राय: भारतीय नेताओं पर भारी पड़ जाती हैं। एक चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स भारत को खतरनाक परिणामों की चेतावनी दी है। इस अखबार ने अपनी संपादकीय में लिखा है कि भारतीय प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह की अरुणाचल यात्रा और सीमा के पास किए जा रहे सामरिक निर्माण चीन को उकसाने वाली कार्रवाईयां हैं इसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। अखबार ने लिखा है कि भारत चीन की सीमा के पास सामरिक निर्माण कर रहा है लेकिन चीन द्वारा सीमावर्ती क्षेत्र में किए गए सामरिक निर्माण कार्य के मुकाबले वह कुछ भी नहीं है।

तो क्या भारत 1962 की तरह हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे और चीन एकतरफा सैनिक तैयारी करे। उल्लेखनीय है कि चीन के सारे अखबार वही लिख और छाप सकते हैं जो सरकार चाहती है या फिर जो उसकी नीतियों के अनुकूल होता है। वहां भारत की तरह अभिव्यक्ति कि आजादी नहीं है। इसलिए साफ कहा जा सकता है कि चीन ने इस अखबार के जरिए भारत को धमकाने की पूरी कोशिश की है। यही नहीं चीन सीमा पर अपने सामरिक निर्माण कार्यों का हौवा दिखाकर भारत को डराने की भी कोशिश कर रहा है। ऐसी स्थिति में भारत को अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए सीमा पर सामरिक निर्माण जैसे सड़कें हवाई पट्टियां और हेलीपैडों के निर्माण में तेजी लानी चाहिए ताकि चीन की तुलना में हमारी सैनिक शक्ति और तैयारी कमजोर न पड़े।

भारत और चीन के बीच सीमा का निर्धारण 1913-14 में हुआ था जब ब्रिटिश सरकार, चीन औऱ तिब्बत के प्रतिनिधियों ने आपसी सहमति से एक रेखा खींची थी जो मैकमोहन रेखा के नाम से जानी जाती है। जब भारत आजाद हुआ और ब्रिटिश सरकार ने भारत से अपना डेरा डंडा उठा लिया तब चीन ने मैकमोहन रेखा को मानने से इनकार कर दिया औऱ लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश के विशाल क्षेत्र पर अपना दावा जताने लगा। पहले भारत ने गहरी दोस्ती की और भारतीयों से हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे लगवाएं। भारतीय नेता चीन की कूटनीति को समझने में बिल्कुल असमर्थ रहे और ओम शांति शांति का जाप करते रहे। चीन सैनिक तैयारी में लगा रहा। इसी बीच उसने जबरन तिब्बत पर कब्जा कर लिया। और चाओ माओ के मोह में फंसे तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से कहलवा दिया कि तिब्बत चीन का ही हिस्सा है। इसके बाद चीन भारतीय सीमा पर तैनात था। भारत के नेता देश की सुरक्षा की चिंता किए बिना विश्व को पंचशील का पाठ पढ़ाने में जुटे थे। सैनिक तैयारी करने के बाद चीन ने भारत पर चढ़ाई कर दी और धड़धड़ाता हुआ असम तक चला आया। अंतर्राष्ट्रीय खास तौर से अमेरिका के दबाव में आकर चीन वापस तो लौटा लेकिन लद्दाख क्षेत्र का 48 हजार किलोमीटर का क्षेत्र अब भी उसके कब्जे में हैं।

चीन कभी पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना हक जताता है तो कभी तवांग पर। उसने सिक्किम के कुछ गांवों पर भी कब्जा किया है देखना यह है कि चीन का यह विस्तार वाद कहां जाकर थमता है। बहुत पहले से भारत को सूचनाएं मिलती रही कि चीन सीमा पर अपने क्षेत्र में सड़कों का जाल बिछा रहा है। हवाईं पट्टियां बना रहा है। हेलिपैड बना रहा है। इसके अलावा वो ऐसे निर्माण कार्य भी कर रहा है जो युद्ध के समय जरुरी होते हैं। उसने लद्दाख की हथियाई गई जमीन पर भी व्यापक निर्माण किए हैं।

यदि ग्लोबल टाइम्स कहता है कि चीन के सामरिक निर्माण के मुकाबले भारत कहीं नहीं ठहरता तो उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। भारत की नींद देर से खुली। अभी ये शुऱुआती दौर में है। भारतीय नेताओं को ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि चीन से युद्ध अपरिहार्य है। जिस दिन चीन अपनी सैनिक तैयारियों से संतुष्ट हो जाएगा उसी दिन भारत पर आक्रमण कर देगा। इसलिए भारत भले ही चीन से मैत्री भाव रखे लेकिन यह बात हमेशा दिमाग में रखे कि उसे कभी न कभी चीन की सैनिक ताकत का मुकाबला करना है। हमारे खयाल से वह दिन दूर नहीं।

आशा की ज्योति


पूरा भारतीय चिंतन ही अंधकार से प्रकाश की ओर अनवरत यात्रा का चिंतन है। जब वातावरण में प्रकाश होता है तो अंतर्मन भी प्रकाशित होता है। ज्योतिपर्व अंतरतम को आलोकित करने का एक प्रतीक पर्व है। इसे हम देश के संदर्भ में देखें तो इस पर्व पर जो बातें सामने आई हैं वो विशेष रुप से आल्हादकारी हैं। फिजां में खुशी की तरंगें घोलती हैं। भीतर से बाहर तक बिखर जाता है प्रकाश पुंज। ज्योतिपर्व पर अर्थ की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। हे देवी! धनधान्य से परिपूर्ण रखना। और इस वर्ष का ज्योतिपर्व धनधान्य से परिपूर्ण करने ही जा रहा है।

इस पर्व के करीब आते ही औद्योगिक और नौकरी पेशा क्षेत्रों से अच्छी खबरें आनी शुरू हो गई हैं। औद्योगिक विकास दर 10.4 प्रतिशत हो गई। उपभोक्ता बाजार में चहल-पहल शुरू हो गई। औद्योगिक उत्पादनों की मांग बढ़ गई है और इसमें और बढ़ोत्तरी के आसार हैं। पिछले साल के अगस्त महीने में औद्योगिक विकास दर महज 1.7 प्रतिशत था। इस साल जुलाई में 7.2 प्रतिशत हुआ और अब 10 प्रतिशत पार कर गया है। यह वैश्विक आर्थिक मंदी से उबरने की प्रकिया भी है। औद्योगिक विकास और उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में वृद्धि से सरकार का राजस्व बढ़ेगा जिससे सरकारी विनिवेश बढ़ेगा, रोजगार के नए-नए अवसर खुलेंगे। निजी क्षेत्रों का भी विस्तार होगा। ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलने से आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ेगी। फिर समृद्धि का एक चक्र बनेगा।

वित्त विशेषज्ञों का अनुमान है कि सूखे और बाढ़ से कृषि क्षेत्र में जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई औद्योगिक क्षेत्र में आई उछाल से हो जाएगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये विश्वास दिलाया है कि मंहगाई का यह दौर समाप्त होने वाला है। जब देश विकास के फर्राटा दौड़ में होगा तो लोगों की जिंदगी में खुशहाली का आना स्वाभाविक है। प्रकाश का विस्तार अपरिहार्य है। जो लोग अपनी न्यूनतम जरूरतें पूरी कर पा रहे हैं उनके पाले में खुछ और लोग भी खड़े दिखाई देंगे, इसमें शक की गुंजाइश नहीं है।

लेकिन यह कहना शायद मुनासिब नहीं होगा कि आम लोगों या मध्यम वर्ग की जिंदगी आसान हो जाएगी। यह एक लंबी प्रकिया है जो अगणित लोगों की बलि लेकर ही पूरी होगी। जिस अनुपात में समाज आर्थिक दृष्टि से संपन्न हो रहा है, सामाजिक दृष्टि से उसका प्रतिष्ठा बढ़ रही है उसी अनुपात में आत्महत्याएं और हत्याएं भी बढ़ रही हैं। कृषि क्षेत्र की विकास दर जहां की तहां है। लघु, सीमान्त और मध्यम वर्ग का किसान नौकरी पेशा लोगों के मुकाबले पीछे छूटता जा रहा है। सरकारी और गैर-सरकारी श्रृण के बोझ तले दबता जा रहा है। दौ़ड़ में लगातार पीछे छूटते जाने के कारण उसके सामने आत्महत्या के सिवा कोई और चारा नहीं बचता।

यह प्रवृत्ति इस लिए बढ़ती जा रही है क्योंकि हम सही मायने में प्रकाश को अपने भीतर नहीं ला पा रहे हैं। उसी में उजाला खोज रहे हैं जो चकाचौंध पैदा करता है। हर कोई चकाचौंध का दीवाना हो गया है, उसी के पीछे भाग रहा है, जहां चकाचौंध नहीं है उसकी अनदेखी की जा रही है। उसे अंधेरा पक्ष मान कर त्याग दे रहे हैं।

जिनके झोपड़ों में ज्योतिपर्व ठहरता नहीं उनकी आबादी एक तिहाई है। समाज के साभ्रांत लोग ज्योतिपर्व की शास्त्रीय विवेचना तक सिमटे रहते हैं और स्वयं को ही उसका वास्तविक हकदार मानते हैं। वे समझने को तैयार नहीं की अपराजेय और सामूहिक उर्जा तभी उपलब्ध होगी जब हर व्यक्ति को हिस्सेदारी के अवसर उपलब्ध होंगे और उसे महसूस होगा कि जो कुछ भी घटता है घट रहा होता है या घट चुका होता है उसमें कहीं न कहीं उसकी मौजूदगी भी रही।

लोग उपेक्षित भले हुए हों निराश नहीं हुए हैं। उनकी आशा की ज्योति अभी भी जल रही है, टिमटिमा रही है। वे हर वर्ष अपनी झोपड़ी में एक दिया अवश्य प्रज्वलित करते हैं इस बात की परवाह किए बिना की उनका जीवन कितनी देर का है। क्षण भर का, घड़ी दो घड़ी का या अगले साल ज्योतिपर्व आने तक के लिए। यह ज्योतिपर्व बहुतों के भीतर उनकी आत्मा में एक दीप जला जाता है। जिसके प्रकाश के सहारे वे अपने जीवन का हर लम्हा आगे सरकाते जाते हैं। ज्योतिपर्व हिंदू धर्म, हिंदू जीवन-दर्शन और जीवन शैली का अनिवार्य उपक्रम है और सिर्फ इसी धर्म में है।

ये एक कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है। अनंत काल तक चलने वाला सिलसिला। कभी न बुझने वाला प्रकाश पुंज। प्रकाश का दीप, आशा का दीप, आंकाक्षा का दीप तब तक जलता रहेगा जब तक मनुष्य के भीतर का अंधेरा छंट नहीं जाता और भीतर की ज्योति बाहर की ज्योति एक दूसरे में विलीन होकर एक ऐसा प्रकाश पुंज नहीं बन जाती जिसके आलोक में हर व्यक्ति खुशहाली की चरम स्थिति न पा ले।

ये ज्योति हमें भारतीय मूल्यों से साक्षात्कार कराती है और उसके साथ जीने को प्रेरित करती है। ज्योतिपर्व की सार्थकता इसी में है कि हम इस प्रेरणा को ग्रहण करें और आगे बढ़े।

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

भ्रष्टाचार की गंगा

केंद्र सरकार के 251 भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं। ये आदेश केंद्रिय सतर्कता आयोग ने दिए हैं। इनमें रेलवे, सार्वजनिक बैंकों, बीमा कंपनियों, दिल्ली विकास प्राधिकरण और एमसीडी के कर्मचारी और अफसर ज्यादा हैं। इनके अलावा 8 अन्य अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति दे दी गई है। इनमें एक आइएएस अधिकारी, एक संयुक्त सचिव, एक पूर्व एमडी तथा एक आईपीएस अधिकारी शामिल है। इनमें 108 अफसर ऐसे हैं जिनके खिलाफ सख्त दण्डात्मक कार्रवाई की प्रकिया शुरू की जा चुकी है। इनमें 4 गृहमंत्रालय के कार्मिक शामिल हैं। 68 मामलों में प्रवर्तन निदेशालय ने कड़ी कार्रवाई की मंजूरी दी है। इनमें 14 कर्मचारी नेशनल एल्यूमिनियम कंपनी, 12-12 कर्मचारी रेलवे और सरकारी बैंकों, 5 जीवन बीमा के तथा 5 डीडीए के कार्मिक हैं।

देखने में सौम्य, साफ-सुथरी और ममता की मूर्ति लगने वाली शीला दीक्षित की सरकार भ्रष्टाचार में दूसरे नंबर पर है। पहले नंबर पर म्युनिसिपल कार्पोरेशन ऑफ दिल्ली यानि एमसीडी है जिसके कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के 4300 मामले विचाराधीन हैं। तीसरे नंबर पर है दिल्ली विकास प्राधिकरण और चौथे पर दिल्ली पुलिस। दिल्ली सरकार के कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के 457 मामले चल रहे हैं। इसमें दिल्ली जल बोर्ड के 137 मामले भी हैं। दिल्ली विकास प्राधिकरण के 305 और दिल्ली सरकार के 133 अफसर विभिन्न मामलों में फंसे हुए हैं। बहुत से अफसर जांच पूरी होने से पहले ही अवकाश ग्रहण कर चुके हैं। यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं के तहत उपलब्ध हुई है।

दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के सतर्कता विभाग के मुताबिक उसके 3350 कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के कुल 4299 मामले चल रहे हैं। दिल्ली पुलिस के विभिन्न अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ पिछले साल जनवरी महीने से ही 133 मामले विचाराधीन हैं। दिल्ली विकास प्राधिकरण के 300 कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले विचाराधीन हैं।

इनमें कुछ तो दो-दो दशकों से चल रहे हैं। यह हाल उस सरकार और उसके विभागों का है जो केंद्र की कथित ईमानदार सरकार की नाक के नीचे काम कर रही है और जो हाल के विधानसभा चुनाव जीत तक तीसरी बार सत्ता में आई हैं। कुछ साल पहले तक भारत दुनिया के भ्रष्टतम देशों में संभवत: सातवें पायदान पर था निश्चित रुप से यह एक दो कदम और आगे बढ़ा होगा।

भ्रष्टाचार क्यों बढ़ रहा है? इसका आकलन इस रिपोर्ट से भी किया जा सकता है। एक-एक अफसर और कर्माचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई-कई मामले हैं। कुछ मामलों की जांच के बीस –बीस साल गुजर गए लेकिन जांच पुरी नहीं हुई। कुछ कर्मचारी रिटायर भी हो गए लेकिन जांच जारी है। जिनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई के आदेश दिए गए हैं, जब उनके खिलाफ जांच ही पूरी नहीं होगी तो दंड कब और क्या मिलेगा?


दरअसल जांच करने वाले व्यक्ति और जांच करने वाली मशीनरी भी कम भ्रष्ट नहीं है। सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। जब दिल्ली सरकार की भ्रष्ट है तो उससे संबंध अन्य विभागों का भ्रष्ट होना लाजिमी है। जब नेता और मंत्री भ्रष्ट हैं तो नौकरशाही कैसे बची रह सकती है भ्रष्टाचार से। भ्रष्टाचार की जांच बीस बीस साल तक खिंचना क्या दर्शाता है? क्या इससे लगता नहीं कि जांच करने वाली मशीनरी भ्रष्टाचारी को संरक्षण दे रही है। भ्रष्ट तरीके से कमाए गए धन में उपर से नीचे तक बंटवारा होता है इसलिए पवित्र गंगा की धारा भले सूख रही हो बेईमानी की गंगा का प्रवाह हमेशा बना रहता है। इसका पानी भले ही प्रदूषण और सड़ांध से भर गया है लेकिन इसमें डुबकी लगाने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

इसे रोकने की कोशिश किसी तरफ से दिखाई नहीं देती है जनता भी इसाक लाभ उठाने में ही अपना हित समझने लगी है। पैसा फेंको, तमाशा देखो। जो काम किसी तरह संभव नहीं होता, वह चढ़ावा चढ़ाने से हो जाता है। बस यही तो चाहिए जनता को भी। बार-बार दफ्तर का चक्कर लगाने और नियम-कायदे के पचड़े में पड़ने से अच्छा यही है न कि ले-देकर अपना काम बना लो। भ्रष्टाचार में जनता भी जमकर मजे लूट रही है। जितना धन हो अपने पास, उतना लंबा अपना हाथ और उतने दूर तक अपनी पहुंच। पैसा और पहुंच हो तो अदालत का फैसला अपने पक्ष में कराया जा सकता है। कानून की व्याख्या अपने मनमाफिक कराई जा सकती है।
मधुमिता हत्याकांड में यही तो हुआ मुख्य अभियुक्त बाइज्जत बरी हो गए, सह अभियुक्त सजा पा गए। अदालत ने अभियुक्त के हाथ में ऐसा हथियार थमा दिया जिसके सहारे वह अगली अदालत से भी बरी हो सकता है। जब सभी भ्रष्टाचार की गंगा में हाथ धोने में लगे हों तो यह मुद्दा ही निरर्थक लगने लगता है। इसलिए हे मन तुम भी हरी के गुन गाओ और मस्त रहो। फिजूल में माथा पीटने से कोई फायदा नहीं है।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

कैसे होगा गंगा का निर्मलीकरण?



केंद्र सरकार ने गंगा को अगले दस वर्षों में निर्मल कर देने का निश्चय किया है। यही नहीं प्रदूषण मुक्त गंगा में डॉल्फिन मछलियां छोड़ी जाएंगी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता मे हाल ही में गंगा बेसिन अथॉरिटी की बैठक हुई थी। इसी बैठक में यह निर्णय लिया गया। अथॉरिटी में वे पांच राज्य भी शामिल हैं जिनसे होकर गंगा गुजरती हैं। लेकिन इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इस कार्य में आर्थिक हिस्सेदारी का प्रधानमंत्री का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि गंगा के निर्मलीकरण पर आने वाले खर्च का सत्तर फीसदी हिस्सा केंद्र वहन करेगा, सिर्फ तीस फीसदी हिस्सा राज्य सरकारों को खर्च करना होगा।

मूर्तियों और स्मारकों पर हजारों करोड़ रुपए खर्च करने वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने मदद करना तो दूर उलटे केंद्र से ग्यारह हजार करोड़ रुपए की मांग की। उत्तराखंड की सरकार ने दस हजार करोड़ मांगे। बहरहाल इस महात्वाकांक्षी योजना पर आने वाले खर्च का फॉर्मूला तैयार करने का कार्य योजना आयोग को सौंप दिया गया है। दरअसल राज्यों की नीयत यह है कि इसी बहाने केंद्र से पर्याप्त धन लेकर वे गंगा और उसकी सहायक नदियों में गिरने वाले सीवेज और औद्योगिक कचरे को ठिकाने लगाने की वैकल्पिक योजनाएं पूरी कर लेंगे।

गंगा बेसिन अथॉरिटी की योजना सिर्फ गंगा को ही प्रदूषण मुक्त करना नहीं है। अपितु उन छोटी नदियों को भी प्रदूषण मुक्त करने की है जो गंदा पानी गंगा में गिराती हैं। इसके बिना गंगा को प्रदूषण मुक्त करना संभव नहीं है गंगा सफाई पयोजना पर अगले दस वर्षों में 15 हजार करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। अगले महीने के अंत तक उन स्थानों को चिन्हित कर लिया जाएगा। जिनकी वजह से गंगा प्रदूषित हो रही है। तीस लाख डॉलर की मदद विश्व बैंक से मंजूर हो गई है। गंगा को प्रदूषणमुक्त करने की योजना 1985 में भी बनाई गई थी- गंगा एक्शन प्लान के नाम से। इस प्लान पर दो हजार करोड़ रुपए खर्च हुए लेकिन गंगा पहले से भी ज्यादा मैली हो गई.


गंगा के किनारे कुल 2073 कस्बे और शहर बसे हुए हैं इनके सीवेज का पानी सीधे गंगा में गिरता है। इनसे गंगा का पानी 75 प्रतिशत तक प्रदूषित होता है। रही सही कसर औद्योगिक कचरे ने पूरी कर दी है। केंद्र सरकार की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ऋषिकेश से लेकर फरक्का तक गंगा का पानी पीने लायक नहीं रह गया है। तटीय शहरों और कस्बों के सीवेज की गंदगी ने उसके पानी को पीने लायक तो दूर नहाने लायक नहीं छोड़ा है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ऋषिकेश से लेकर पश्चिम बंगाल के डायमंड हार्बर तक कुल 23 स्थानों से गंगाजल के नमूने लिए गए और उनकी गुणवत्ता जांची गई। केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड ने इन नमूनों को पांच भागों में बांटा। पहली श्रेणी में पानी को परिशोधित करने के बाद पीया जा सकता है, लेकिन जिन जगहों से नमूने लिए गए उनमें से कहीं का पानी प्रथम श्रेणी में नहीं आ पाया। ऋषिकेश का पानी द्वितीय श्रेणी का पाया गया जिसमें सिर्फ स्नान किया जा सकता है। यहां से हरिद्वार तक पहुंचने में गंगाजल तृतीय श्रेणी में आ जाता है। इस पानी को ट्रीटमेंट के बगैर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। गढ़मुक्तेश्वर, कन्नौज, बक्सर, पटना, मुंगेर, भागलपुर और फरक्का का पानी इसी श्रेणी में आता है। कानपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर औऱ वाराणसी में पानी सिर्फ जंगली जानवर ही पी सकते हैं।

देश की लगभग आधी आबादी गंगा से जीवन पाती है। गंगा प्राणदायिनी है। केंद्र सरकार गंगा को प्रदूषणमुक्त करने की पिछली योजना की विफलता को ध्यान में रखकर ही इस बार पहल कर रही है। इसीलिए अथॉरिटी में पांचों गंगा के किनारे के शहरों और कस्बों के सीवेज की वैकल्पिक व्यवस्था करने की है। इस गंदगी को गंगा में गिरने से रोकने के बाद ही गंगा जीवनदायिनी बन पाएगी। गंगा का दो तिहाई प्रदूषण सीवेज से ही हो रहा है।

कुछ राज्य गंगा के पानी का इस्तेमाल सिंचाई और विद्युत उत्पादन के लिए भी करना चाहते हैं। यह भी तभी संभव है जब गंगा पर और बांध बनाए जाएं। टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह पहले ही इतना धीमा हो चुका है कि इसकी जैविक क्षमता लगभग नष्ट हो चुकी है। नए बांधों के निर्माण से रहा सहा जल प्रवाह भी खत्म हो जाएगा और गंगा का पानी नाला जैसा हो जाएगा। जैसा रामगंगा का पानी हो चुका है। गंगा की एक और सहयोगी नदी यमुना है। यह नदी इलाहाबाद में गंगा से मिलती है और अपना प्रदूषित जल गंगा में उड़ेलती है। देश की राजधानी दिल्ली में यमुना की स्थिति इतनी भयावह है कि उधर से गुजरने वालों को नाक पर रुमाल रखना पड़ता है।

इसी प्रकार और कई नदियां हैं जो अपना गंदा जल गंगा में गिराती हैं। इन नदियों को प्रदूषणमुक्त किए बिना गंगा को पूर्व की स्थिति में ला पाना मुमकिन नहीं है। स्नानपर्वों पर लाखों लोग इस मोक्षदायिनी में स्नान करके अपना जीवन सफल बनाते हैं वो गंगाजल का आचमन करते हैं और उसे छोटे-छोटे पात्रों में भरकर अपने घर भी ले जाते हैं। पहले जब गंगा निर्मल थी तब इसके पानी में महीनों तक कोई खराबी नहीं आती थी। विभिन्न धार्मिक कार्यों में इसका इसका इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। हांलाकि करोड़ों लोगों की आस्था आज भी गंगा में यथावत है। हमारी कोशिश होनी चाहिए की यह आस्था किसी भी हालत मे खंडित न होने पाए। इसलिए उन राज्यों का फर्ज बनता है कि वे अपने क्षुद्र स्वार्थों को छोड़कर गंगा की सफाई योजना में दिल खोलकर मदद करें और इस पवित्र कार्य में राजनीति को न आने दे।

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

ओबामा को नोबेल

अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा को 2009 का नोबेल शांति पर पुरुस्कार दिया गया है। पुरुस्कार समिति को विश्वास है कि अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के इस राजनीतिक ने अतंरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक संबंधों को मजबूत किया है और विश्व के लोगों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया है। इसके लिए ओबामा ने असाधारण प्रयास किए हैं। बराक ओबामा को यद्दपि परमाणु हथियारों की होड़ रोकने में सफलता नहीं मिली है किंतु उनके प्रयास के सार्थक परिणाम अवश्य निकले हैं। ईरान जैसा अड़ियल देश भी अपने परमाणु सयंत्रों की निगरानी के लिए तैयार हो गया है और पूर्ववर्ती राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के जमाने का तनाव लगभग समाप्त हो गया है।

ओबामा के शासन के ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। उन्होंने नवंबर 2008 में राष्ट्रपति पद का पद संभाला है, इसीलिए कुछ लोग कह रहे हैं कि उन्हें शांति पुरुस्कार देने में जल्दबाजी की गई। अभी उनकी राष्ट्रीय औऱ विदेशी नीतियों की गहन पड़ताल की जानी चाहिए थी। दुनिया के कई राजनीतिक और बुद्धिजीवी ओबामा को नोबल पुरुस्कार मिलने से आश्चर्यचकित हैं। खुद ओबामा को हैरानी है कि उन्हें विश्वस्तरीय सम्मानजनक पुरुस्कार अचानक कैसे मिल गया। उन्होंने तो सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन जो लोग अमेरिका के बुश प्रसाशन पर बारीक नजर रखे होंगे उन्हें बुशकालीन अमेरिकी नीति और ओबामा के शासन काल के अमेरिका में गुणात्मक फर्क साफ नजर आ रहा है। ओबामा ने अमेरिका की दादागीरी और धौंसपट्टी की राजनीति समाप्त कर दी और संवाद की राजनीति शुरू की।

एक समय था जब अमेरिका ईरान पर जितना दबाव बढ़ाता था, ईरान उतना ही तनता जाता था। जॉर्ज बुश और अहमदीनेजाद एक दूसरे को ललकारते रहते थे। अमेरिका की इस दरोगाई संस्कृति को ओबामा ने खत्म कर दिया। पाकिस्तान ने अपने देश का स्विटजरलैंड माने जाने वाली खूबसूरत स्वात घाटी को तालिबानियों के हाथों सौंप दिया और उसके सरगनाओं से समझौता कर लिया था। ओबामा ने सार्वजनिक तौर पर इसके लिए पाकिस्तान को चेतावनी नहीं दी, धमकी नहीं दी। कूटनीतिक दबाव ऐसा बनाया कि पाकिस्तान ने तालिबानियों को न केवल स्वात घाटी से मार भगाया बल्कि पाकिस्तानी फौजें अब भी तालिबानियों से युद्ध कर रही हैं और तालिबानी खीज कर पाकिस्तान और काबुल में फिदायीन हमले कर रहे हैं।

पाकिस्तान ने जब अमेरिका के हारपून मिसाइल में अपने मुताबिक सुधार किया तो राजनीति के विश्लेषकों ने निष्कर्ष निकाला कि पाकिस्तान को जो अमेरिकी सहायता मिलने वाली है वह अब नहीं मिलेगी। लेकिन अमेरिका ने साढ़े सात अरब डॉलर की सहायता मंजूर की। ओबामा की कूटनीति का ये एक अहम पहलू था। अमेरिकी मदद से पाकिस्तान न केवल अमेरिका का मोहताज बना रहेगा, वरन पूरी तरह चीन की गोद में भी नहीं बैठेगा जिसकी भरपूर कोशिश चीन कर रहा है। जो काम पाकिस्तान को धमका पर बुश नहीं करा सके, उसे ओबामा ने बिना हो हल्ला के अपने कूटनीतिक प्रयासों से कर दिखाया। यदि उन्हें इसी तरह सफलता मिलती रही तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की नाक में नकेल डालने में कामयाब रहेंगे। हो सकता है कि पाकिस्तान की धरती से संचालित आतंकवाद का सफाया हो जाए।

ओबामा ने इस्लाम की प्रशंसा की औऱ अमेरिका के विकास मे मुसलमानों के विकास को सराहा। इससे मुस्लिम देशों से अमेरिका के संबंध सुधरे। अब अमेरिका मुस्लिम देशों के लिए हौवा नहीं रहा। एक समय अधकचरे बुद्धिजीवी कयास लगाने लगे थे कि इस्लाम और इसाइयत के बीच संघर्ष अपरिहार्य है। उत्तर कोरिया भी अब उस तरह से अमेरिका को आखें नहीं तरेर रहा है जिस तरह से बुश के जमाने में तरेर रहा था। हाल ही में उत्तर और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपतियों में सौहार्दपूर्ण बातचीत अच्छे भविष्य के शुभ संकेत हैं। इस वार्ता का पूरा श्रेय ओबामा की राजनीति को दिया जाना चाहिए।

ओबामा के शासन काल में साफ दिखाई दे रहा है कि विश्व में तनाव कम हुआ है और शांतिमय वातावरण का निर्माण हुआ है। पश्चिम एशिया की तनावपूर्ण स्थिति ओबामा के लिए अग्नि परीक्षा से कम नहीं हैं। यदि इस क्षेत्र की समस्याएं सुलझा ली गईं तो बराक ओबामा सचमुच विश्व के शांतिदूत बन जाएंगे।

ओबामा विदेश की समस्याएं तो सफलता पूर्वक सुलझा रहे हैं लेकिन उनके अपने देश का ही प्रभु वर्ग उन्हें पचा नहीं पा रहा है। अमेरिका की स्वास्थ्य सेवाएं इतनी खर्चीली हैं कि वे अपेक्षाकृत गरीब काले लोगों की पहुंच से बाहर हैं। ओबामा उसे जनसाधारण के पहुंच के भीतर लाने के लिए सख्त कदम उठा रहे हैं। अमेरिका में स्वास्थ्य सेवाओं का पूरी तरह निजीकरण और इनपर श्वेत तथा संपन्न लोगों का एकाधिकार है। यह वर्ग ओबामा से इस हद तक नाराज है कि उन्हें ‘सोशलिस्ट’ और ‘कम्युनिस्ट’ कहा जाने लगा है। ये शब्द अमेरिका में नफरत के तौर पर लिए जाते हैं, भले ही अमेरिकी कंपनियां रुस और चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों से अकूत दौलत कमा रही हों।

ओबामा गांधी और मार्टिन लूथर किंग से प्रभावित हैं वे अमेरिका में समाजवाद तो नहीं ला सकते लेकिन उन अश्वेत लोगों को मानवीय औऱ जीवन की न्यूनतम चीजें उपलब्ध कराने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। उन्हें बराबरी का सम्मान तो दिला ही सकते हैं। इसका प्रयास वो अपने तरीके से कर रहे हैं। अभी ओबामा का लंबा कार्यकाल बचा है। हमें पूरी उम्मीद है कि वो नोबेल शांति पुरुस्कार की सार्थकता सिद्ध करेंगे।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मायावती का सपना और सुप्रीम कोर्ट

सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार के प्रमुख सचिव अतुल कुमार गुप्त के खिलाफ अवमानना का मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट को यह आदेश इसलिए देना पड़ा। क्योंकि राज्य सरकार कोर्ट के आदेश के बावजूद लखनऊ में दलित हस्तियों के स्मारकों का निर्माण जारी रखे हुए थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह चेतावनी भी दी कि सरकार ने यदि अब भी निर्माण कार्य जारी रखा तो न्यायालय निर्माण स्थलों पर केंद्रीय बल तैनात करेगा।

अदालत के मुताबिक 11 सितंबर को रोक लगाने का अंतरिम आदेश आगे भी जारी रहेगा। इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 5 अक्टूबर को हिदायत दी थी कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर राजनीति न करे। दूसरे दिन भी सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अपना रुख सख्त करते हुए इस बात पर भी विचार किया कि निर्माण कार्य न रुकने पर मुख्य सचिव को जेल भेज दिया जाए। मुख्य सचिव को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए उनसे पूछा गया है कि अदालत के आदेश के उल्लंघन के लिए उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों न की जाए। उन्हें 4 नवंबर को व्यक्तिगत रुप से न्यायालय में उपस्थित होने का निर्देश भी दिया गया है।

पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को इस मामले में अदालत की अवमानना की याचिका दाखिल करने का निर्देश दिया है। सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रम्ण्यम को इस मामले में सहायता करने का निर्देश दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर अवमानना की कार्रवाई शुरु की है। क्योंकि आठ सितंबर को उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव ने अदालत में दाखिल हलफनामे और 11 सितंबर को निर्माण कार्य रोकने के आदेश का उल्लंघन किया है। सुप्रीम कोर्ट को उत्तर प्रदेश सरकार के प्रति ये सख्त रवैया उस जनहित याचिका पर अपनाना पड़ा जिसमें कहा गया है कि राज्य सरकार कई हजार करोड़ रुपए की लागत से लखनऊ में स्मारक और पार्क बना रही है। यह जनता से मिले टैक्स का दुरुपयोग है।

इस मुकदमें का सबसे चिंताजनक और खेदजनक पहलू ये रहा कि मुख्यमंत्री मायावती ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की लगातार धज्जियां उड़ाई। अदालत ने निर्माण कार्य रोकने का आदेश दिया। लेकिन निर्माण कार्य चालू रहा। स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री मायावती की निगाहों में सर्वोच्च न्यायालय की कोई अहमियत नहीं रही। उन्होंने सोचा कि जनहित के मामलों में तमाम अदालती आदेशों की अवहेलना की तरह इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की तरफ से आखें मूंदी जा सकती हैं।

सत्ता के मद में चूर और लोकतांत्रिक संस्कारों से हीन बसपा सुप्रीमो ये भूल गई कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में कार्यपालिका तथा विधायिका की तरह न्यायपालिका भी एक संवैधानिक ताकत है। जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। न्यायपालिका को प्राप्त अधिकारों की अवहेलना न तो विधायिका कर सकती है और न ही कार्यपालिका। लेकिन हम मायावती की कार्यशैली और शासन प्रणाली का बारीक अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि बुनियादी तौर पर उनकी चाल और चरित्र एक ऐसी नेता का है जो लोकतंत्र में यकीन ही नहीं करती। वो अर्ध तानाशाह हैं। वो न तो लोकतांत्रिक मर्यादाओं में विश्वास करती है औऱ न ही सही अर्थों में लोकतंत्र का पाठ याद किया है। बसपा के संगठनात्मक ढांचे से भी यह बात साफ हो जाती है
उनकी सोच की संकीर्णता की इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि वह बात तो सर्वजन समाज की करती है। लेकिन विशाल भूमि पर जनता की गाढ़ी कमाई से जो पार्क बना रही हैं उसमें प्रतिमाएं सिर्फ दलितों की हैं। चाहे कांशीराम हो, चाहे अंबेडकर हो या स्वयं मायावती। राज्य सरकार का खजाना जिन करों से भरा जाता है उसमें सबसे ज्यादा अंशदान गैर दलित जनता का ही है। सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि मायावती सभी पार्कों में अपनी आदमकद प्रतिमा भी लगवा रही हैं।

ऐसा उदाहरण विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं मिलता कि कोई शासक अपनी तमाम मूर्तियां लगाए और उसका अनावरण भी खुद ही करे। बड़े राजे,महाराजे और सामंतों ने भी अपनी मूर्तियां इस तरह नहीं लगवाईं प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक। विजेताओं ने अपनी विजयों के चिन्ह या प्रतीक के रुप में कहीं-कहीं स्तंभ अवश्य खड़े किए लेकिन अपनी मूर्तियां नहीं लगवाई।

मायावती ऐसे प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं जिसकी गरीबी का ग्राफ लगातार उठता जा रहा है। लेकिन विपक्ष की माने तो वो स्मारकों पर दस हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही हैं। अपनी आदमकद प्रतिमाओं के बारे में माया कहती हैं कि मान्यवर कांशीराम की ऐसी इच्छा थी जिसका वो पालन कर रही हैं। कांशीराम की इच्छा तो गरीबों के उत्थान की भी थी। खासतौर से दलित गरीबों के उत्थान की। उनके समय में सर्वजन समाज की कल्पना नहीं की गई थी। ये कल्पना मायावती की है। क्योंकि वो ये इस निष्कर्ष पर पहुंच चुकी हैं कि दलित समाज उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता पर आसीन नहीं करा सकता। इसके लिए कुछ और जातियों का समर्थन आवश्यक है। और अपने बल पर शासन में आए बिना उनके और अन्य दलित हस्तियों के स्मारक नहीं बनाए जा सकते। उनकी ये योजना सफल हुई। उन्होंने प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्मारकों का निर्माण शुरु ही किया, नोएडा में भी विशाल भूमि पर भव्य स्मारक बनवाए। ये कार्य लगभग पूरा हो चुका है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने भी उनका साथ दिया। जबकि पर्यावरण संबंधी नियमों की पूरी तरह से उपेक्षा की गई है।

मायावती अपनी प्रतिमा तो लगवा ही रही हैं। अपने चुनाव चिन्ह हाथी की प्रतिमाएं भी बड़ी संख्या में लगवा रही हैं। नोएडा में तो मायावती का हसीन सपना पूरा होने की कगार पर है। देखना ये है कि लखनऊ में स्मारकों का सपना पूरा होता है या नहीं।

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

एक मनीषी का महाप्रयाण

काशी डॉ. विश्वनाथ प्रसाद इतनी जल्दी लौकिक जीवन त्याग कर पारलौकिक जगत में आसन जमा लेंगे, ऐसी आशंका किसी को नहीं थी। पता नहीं कब और कैसै कैंसर के विषाणु उनके मस्तिष्क में घुसे, उसका एहसास उन्हें भी नहीं हो पाया। न कभी सिर में दर्द हुआ, न कभी सिर बोझिल हुआ और न कभी चक्कर आया। कैंसर फैलता रहा और डॉक्टर साहब अपना रोजमर्रा का काम- अध्ययन, चिंतन, लेखन सुचारू रुप से करते रहे। लेकिन तब थोड़ा असहज हुए, डॉक्टर के पास गए तब कैंसर जानलेवा बन चुका था। डॉक्टरों ने भी अपने आपको बिल्कुल असमर्थ पाया। एक ही रास्ता शेष रह गया था- सिर्फ मौत का। डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद इस रास्ते पर आगे बढ़ते चले गए.. बढ़ते चले गए और अंतत: अदृश्य हो गए। पता नहीं अपने भीतर के विराट और अछोर संसार को कभी नापने की कोशिश कभी कभी की थी या नहीं, लेकिन जो लोग उनके समीप गए थे और उनके संसार में झांका था उन्हें वो रह कहीं सहजता, सरलता, मधुरता, सौम्यता और मिलनसारिता का अक्षय भंडार देखने को मिलता था। जिसके अंदर जितनी क्षमता थी वह उतना बीन बटोर लेता था। डॉक्टर साहब की तरफ से सभी को खुली छूट थी। स्वतंत्र लेखन और स्वतंत्र चिंतन की बनास की अतुलनीय परंपरा की अंतिम कड़ी थी डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद।

गहन अध्ययन का ओज, निर्भय अभिव्यक्ति का अखंड प्रवाह और विमत को भी तार-तार देने के अद्भुत क्षमता से लैस डॉक्टर साहब जिस मंच या गोष्ठी में होते उसमें उपस्थित श्रोता कभी खाली हाथ नहीं लौटते। उन्हें बेबाक औऱ गंभीर विचार-श्रृंखला का कोई न कोई छोर मिलता जिसे वे अपनने दिल –दिमाग में संजोकर कर रख लेते। चाहरे सहमत होते या असहमत। असहमति के बिंदु भई उनके अपने विचारों को धार देने के काम तो आते ही। उससे एक नया विचार गढ़ लेते थे। इसीलिए असहमति उन्हें सहज स्वीकार थी।


वे शिविरवादी नहीं थे। उनकी अपनी कोई मंडली नहीं थी। किसी मंडली में शामिल होने उन्हें स्वीकार नहीं था। वे साहित्य के आकाश में स्वछंद विचरण करते रहे। उनके स्वच्छंद विचरण का असीम फलक ललित निबंधों में देखा जा सकता है। जो लालित्य उनके व्यक्तित्व में था, उसे उनके निबंधों में देखा जा सकता है। हर सतरें इसकी गवाही देती हुई दिखाई देती हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा, जो कुछ सोचा, जो उनकी कल्पनाशक्ति के दायरे में समा पाया, वह अतुलनीय बन गया। बिल्कुल अलग, बिल्कुल परे और बिल्कुल सीमारेखा से बाहर।


उनका उपन्यास ‘बीच की रेत’ पढ़ने के बाद कोई भी पाठक इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है। इस उपन्यास में आंचलिकता की पराकाष्ठा है। एक परिवार की कथा देश के हजारों परिवारों की कथा बन गई है। ऐसे कथानक का ताना-बाना बुनना डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद जैसे कुशल शिल्पी के बस का था। वे एक मजे हुए कारीगर की तरह बीच-बीच में आकर्षक बूटियां उभारते चलते थे। यह उनका अपना शिल्प है, उनकी अपनी कला है। इसकी नकल नहीं की जा सकती है। इस तरह का शिल्प वही गढ़ सकता है जिसे उस परिवेश की यथार्थ अनुभूति हुई होगी। जिसमें उपन्यास के पात्र जीते हैं, जिन मुहावरों को वे अपने जीवन की भाषा बनाते हैं। डॉ. प्रसाद ने अपना वाद्य खुद तैयार किया और उसपर मनचाहे स्वर निकाले। उन्होंने उस जमात में शामिल होने से इनकार कर दिया जो ‘भैरवी’ के समय भी झपताल बजाते रहते हैं।


उनके भीतर जिजीविषा इस कदर समाई हुई थी अपनी कविताओं में मृत्यु को चुनौती देते हुए दिखाई देते हैं। तब उन्हें शायद इस बात का एहसास रहा हो कि मृत्यु उनकी चुनौती इतनी जल्दी स्वीकार कर लेगी और उनपर जीत हासिल कर लेगी। याद नहीं आता कि वे कभी बीमार पड़े थे। साइकिल से चलते थे। रोज एक घंटे पैदल टहलते थे। भोजन बहुत संयमित था। आलू सालों से छोड़ रखा था। इसलिए लंबे जीवन के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे। भविष्य के लेखन को लेकर ढेर सारी योजनाएं बना रखा थी। ग्राम्य जीवन पर उपन्यास और कहानियां लिखना चाहते थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- ‘गांव मुझे बुला रहा है।’ लेकिन उनके कदम गांव की तरफ बढ़ते इससे पहले ही, वे कहीं और चले गए। एकदम नजरों से अझोल। लेकिन न जाने कितनी स्मृतियों में जीवित रहेंगे। अमर रहेंगे। उस महान विभूति को हमारी श्रद्धांजलि।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

सुप्रीम कोर्ट का प्रशंसनीय फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि अब सड़कों तथा सार्वजनिक स्थलों पर किसी प्रकार के पूजा स्थलों का निर्माण नहीं किया जा सकता। यह निर्णय केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों के लिए बाध्यकारी है। अभी तक यह हो रहा था कि सड़कों के किनारे, सार्वजनिक स्थलों पर, रेलवे स्टेशनों औऱ सरकारी जमीनों पर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा या दरगाह स्थापित कर दी जाती थीं। इस निर्माण का मकसद सार्वजनिक स्थल पर कब्जा करना या धर्म के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाना हुआ करता है। ऐसे निर्माण प्राय: रात में किए जाते थे। स्थानीय निकायों के कर्मचारी यदि आपत्ति जताते थे तो उनकी जेबें गरम कर दी जाती थी। फिर पूजा स्थल के आसपास की जमीनें घेर कर उसमें मनमुताबिक निर्माण कर दिए जाते थे। मकान, दुकानें या अन्य लाभदायक निर्माण। कुछ पंडे, पुजारी या जजमानी के भरोसे पलने वाले परिवार सड़कों के किनारे कोने अतरे की खाली जमीन पर रातोरात मंदिर खड़ा कर लेते थे। फिर अपने चेलों से उसकी सिद्धि का प्रचार करवाते थे। और धीरे धीरे भक्तों की इतनी भीड़ जुटने लगती थी कि पुजारी महाराज को अच्छी कमाई होने लगती थी।

ज्यादातर मंदिरों में हनुमान जी विराजमान रहते हैं। कुछ देसी देवियों के मंदिरों में भी भक्तों की भारी भीड़ जमा होती है। जिनका जिक्र किसी धर्मग्रंथ में नहीं है। जैसे चौकिया माई, चौरा माई, सत्ती माई, संतोषी माई आदि। लेकिन इनके बारे में चमात्कारिक कथाएं भक्तों से सुनने को मिल जाएंगे। इसी प्रकार सड़कों के किनारे या सार्वजनिक स्थलों पर दरगाहों या मस्जिदों के निर्माण भी आए दिन देखने को मिलते थे। गांवों में ग्रामसमाज की भूमि पर पूजा स्थलों के निर्माण को लेकर ग्रामीणों में तनाव की खबरों आए दिन अखबारों में पढ़ने को मिल जाती हैं। धर्म के ठेकेदारों के लिए पूजा स्थल उनकी कमाई, जमीन जायदाद बनाने या सरकारी तथा सार्वजनिक जमीन पर कब्जा करने के साधन हैं।

इसलिए ऐसे तत्वों की सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से नाराजगी स्वाभाविक है लेकिन आम नागरिक इससे खुश हैं। एक सुखद तथ्य यह है कि इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सहमति बन गई थी। लेकिन यहा मुद्दा इतना संवेदनशील है कि राज्य सरकारें या स्थानीय प्रशासन इस दिशा में पहल नहीं कर पा रहा था। खासतौर पर अल्पसंख्यक समुदाय के मामले में तो उसके हाथ-पांव ही फूल जाते हैं। बनारस में अल्पसंख्यक समुदाय के दो वर्गों के बीच एक कब्रिस्तान के मामले में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला तक नहीं लागू कराया जा सका।
कितने विकास कार्य सिर्फ इसलिए सिरे तक नहीं पहुंच पाए कि उसके मार्ग में कोई पूजा स्थल पड़ गया था। गुजरात में जनता के व्यापक हितों के मद्देनजर किया जा रहा विकास कार्य इसलिए बीच में ही रुक गया कि कुछ मंदिर तोड़े जाने के खिलाफ विश्व हिंदू परिषद ने कड़ा ऐतराज जताया लेकिन लखनऊ में जेल तोड़े जाने के साथ ही परिसर में स्थित मंदिर तोड़े जाने में स्थानीय प्रशासन कामयाब रहा। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उसमें हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया और राज्य सरकार तो अपने पूरे सत्ता बल के साथ स्थल पर खड़ी ही थी।

लेकिन ऐसी दिलेरी किसी सरकार या प्रशसन ने अल्पसंख्यक समुदाय के पूजा स्थलों के लिए नहीं दखाई जबकि ऐसी मशीनी तकनीक उपलब्ध है जिसेस किसी किसी पूजा स्थल को एक जगह से सुरक्षित उठा कर दूसरी जगह रखा जा सकता है। मलेशिया में एक मंदिर को उठा कर दूसरी जगह बिना उसे क्षति पहुंचाए स्थापित कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि उस देश में हिंदू अल्पसंख्यक हैं।

देश की जनता में शिक्षा के प्रसार के साथ साथ जागरुकता बढ़ रही है। लेकिन इसके साथ ही पूजा पाठ या कर्मकांड की प्रवृत्ति और धार्मिक आस्था भी बढ़ रही है। एक अच्छी बात यह है कि लोग विकास के प्रति सचेत भी हो रहे हैं। वे समझने लगे हैं कि अच्छे जीवन के लिए वकास भी जरुरी है क्योंकि विकास से ही मनुष्य की न्यनतम


आवश्यकताएं पूरी उपलब्ध हो सकती हैं और वह प्रगति की ओर अग्रसर हो सकता है। इसलिए धर्म के नाम पर ऐसे निर्माण से बचना है जिससे विकास और प्रगति का रास्ता अवरुद्ध हो इसके बावजूद समाज में ऐसे लोग तो रहेंगे ही जो अपने निजी स्वार्थों के लिए भ्रष्टतंत्र का लाभ उठा कर या ताकत के जोर पर पूजा स्थलों के निर्माण की कोशिश कर या ताकत के जोर पर पूजा स्थलों के निर्माण की कोशिश करते रहेंगे। ऐसे लोगों से निपटने के लिए शासन और प्रशासन को बिना किसी भेदभाव के दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा।

अपने देश में बहुत सी समस्याओं को वोट की राजनीति हल नहीं होने देती। बहुत सी समस्याएं इसके कारण पैदा होती हैं। इसलिए राज्य सरकारें और उनका प्रशासनिक तंत्र ईमानदारी से सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को लागू करेंगे इसमें संदेह है। वैसे भ्रष्टाचार के दलदल में डूबा प्रशासनिक तंत्र सुप्रीम कोर्ट के आदेश की हवा निकालने के लिए तो है ही।

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

रावण की रक्ष संस्कृति


राक्षस राज रावण महाप्रतापी था। उसका उद्देश्य था अपनी रक्ष संस्कृति को दूर-दूर तक फैलाना। उसने उस समय के सात भू-भाग में अपनी संस्कृति का सिक्का जमाया भी। राक्षस जाति या रक्ष संस्कृति के लोग तामसी प्रवृति के मांसाहारी थे। वे नरभक्षी भी थे इसलिए आर्य विधि-विधान में विश्वास करने वाले तपस्वी ऋषि-मुनियों को मार कर अपना आहार बनाते थे। लेकिन पूर्वी बारत के कुछ भू-भागो पर रावण अधिकार नहीं कर पाया था। अयोध्या के श्री राम ने रावण को भले ही युद्ध में मार गिराया लेकिन रक्ष संस्क-ति और तामसी प्रवृति का समूल नाश नहीं कर पाए।

द्वापर में रक्ष संस्कृति चरम पर पंहुच गई थी इसलिए उसके विनाश के लिए योगेश्वर कृष्ण को महाभारत जैसे भीषण युद्ध का आयोजन करना पड़ा जिसमें लगभग समूची रक्ष संस्कृति स्वाहा हो गई। हम कल्पना कर सकते हैं कि यदि द्वापर की रक्ष संस्कृति अपने प्राचीन रंग-रूप और प्रवृति के साथ कलयुग में प्रविष्ट हुई होती तो भारत का स्वरूप और समाज कैसा रहा होता। गनीमत थी कि कलयुग आने के पूर्व ही कृष्ण ने अइस राक्षसी और तामसी प्रवृति का सफाया कर दिया था। वरना साधु प्रवृति के व्यक्ति भारतीय समाज में होतेही नहीं। लेकिन जिस भी संस्कृति का विनाश हुआ उसकी जड़े कहीं न कहीं धरतीके भीतर रह गई थी। जो समय के साथ फूटती, पल्लवित और पुष्पित होती जा रही हैं।

हम ध्यान से देखे तो पता चलेगा कि इस रावणी संस्कृति के केंद्र पर्वतीय जनजातीय और जंगली ज्यादा है यानी दुर्गम। अफगानिस्तान और उसके आसपास के इलाके,इंडोनेशियाके दुर्गम क्षेत्र, भारत में झारखंड, छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार, मध्य प्रदेश आन्ध्र और पश्चिम बंगाल के दुर्गम इलाके तथा भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र इन शैतानी ताकतों के गढ़ हैं। मानवीय प्रवृति और मानवीय संवेदना वाले व्यक्ति रावण के इन वंशजों को नहीं सुहाते हैं। जब बी उन्हें मौका मिलता है धावा बोलकर बेकसूर और असहाय लोगों के खून की होली खेलने लगते हैं।

तालिबान हो, अलकायदा हो, नक्सलवादी हों, माओवादी हो, उल्फा हों या अन्य आतंकी संगठन इन सभी को हम रावण के वंशज मान सकते हैं। ये ताकतें रावण द्वारा स्थापित रक्ष संस्कृति के प्रवाह को सतत जारी रखने में जुटी हुई हैं। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे लोग सभ्यता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं वैसे ही वैसे रावणी वृत्ती भी बढ़ती जा रहा है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ मानवीय संवेदनाए मरती जा रहा हैं। संगठित और असंगठित अपराधों का ग्राफ तेजी से ऊपर उठ रहा है। पूरा मैदानी इलाका अपराधियों से ग्रस्त है। मानवीय संबंध तो दूर रक्त संबंध भी तार-तार हो जा रहे हैं।

एक भाई ने अपने भाई के पूरे परिवार की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि वो प्रगति की ओर अग्रसर था। बेटा अपने पिता की हत्या इसलिए कर देता है कि बेटे को पिता की जगह नौकरी मिले या उसके बीमे की राशि हाथ लग जाए। एक व्यक्ति अपने पत्नी और बच्चों की हत्या इसलिए कर देता है क्योंकि उसे अपने पत्नी के चरित्र पर शक होता है और लगता है कि उसके बच्चों का पिता कोई और है। नौजवान बेटियां इसलिए मार दी जाती हैं क्योंकि परिजनों को उनके चरित्र पर शक होता है। अब मानव तस्करी भी होने लगी है और मानव अंगों का व्यापार भी। अस्पतालों से नवजात शिशुओं को चुरा-चुरा कर उन्हें बेचने का कारोबार भी शुरू हो चुका है। कोई युवती, बच्ची या महिला सुनसान इलाके से सकुशल गुजर जाए तो चमत्कार समझिए।

मांस, मदिरा और सेक्स का व्यापार दिन दूना रात चौगुना तरक्की कर रहा है। अपराध के ऐसे-ऐसे तरीके खोजे जा रहे हैं कि कभी –कभी लगता है कि भारतीय समाज बच भी पाएगा या नहीं। पैसा लेकर हत्याएं करने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। माफिया, तस्कर, संगठित गिरोह चलाने वाले अपराधी अब ‘माननीय’ हो रहे हैं। पैसे के लिए सारी सामाजिक मर्यादाएं, नियम कायदों की सरहदें, नैतिकता के मूल्य खंड-खंड किए जा रहे हैं। समाज में हिंसा और कामुकता बेतहाशा बढ़ रही है। इनके लिए व्यक्ति किसी भी पशुवत और घृणित स्तर तक जा सकता है। ये सब रक्ष संस्कृति के लक्षण हैं।


‘राम पराजित हो रहे हैं, रावण जीत रहा है’। रावण के पुतलों का संहार तो हो रहा है लेकिन मनुष्य के भीतर का रावण लगातार और तेज गति से बढ़ राह है। इसका संहार कैसे हो। इसके लिए बोद्धिक समाज में उपायों की कमी नहीं है लेखनी और जुबीन आए दिन सुझाते रहते हैं लेकिन कभी-कभी हमें उस समय हतप्रभ रह जाना पड़ता है जब हम पाते हैं कि हम जो उपाय सुझा रहे हैं उन्हीं के भीतर बैठा हुआ है रावण। वह रक्ष संस्कृति की गिरफ्त में हैं उसके पोषक हैं। इस भवसागर में किस पर यकीन जताए, किस पर भरोसा करें इसलिए बेहतर यही होगा कि हम पहले अपने भीतर झांके। देखें कि कहीं अपनी रक्ष संस्कृति के साथ मायावी रावण कहीं घुस तो नहीं आया है, चोरी-छिपे या भेष बदलकर या अदृश्य रहकर यदि वह दिखाई दे जाए तो उसका लाभ उठाने की बजाय उससे तुरंत निजात पा लें। तभी यह मानव समाज बच पाएगा।

शनिवार, 26 सितंबर 2009

राहुल का जन-संवाद

कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव युवा नेता राहुल गांधी ने जन संवाद की जो परंपरा कायम की है, वह लगातार जारी है। वे जिस प्रदेश में जाते हैं, वहां के ग्राम्य जीवन को नजदीक से देखते हैं। गरीब किसानों, खेतिहर मजदूरों की बस्तियों में जाते हैं। उनकी जीवन पद्धति का अवलोकन करते हैं, उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अध्ययन करते हैं, उनके यहां खाना खाते हैं, उनकी खाट पर सोकर रात बिताते हैं। उनके साथ क्षेत्र में हो रहे विकास कार्य सरकारी आकड़ों की निगाहों से नहीं देखते अपनी नजरों से देखते हैं। उसकी धड़कनों को महसूस करते हैं। नब्जों पर सीधे अंगुलियां रखते हैं। यह राहुल गांधी की अपनी राजनीतिक शैली हैं- जनता से सीधे संवाद करने की। यह शैली महात्मा गांधी की है। कुछ हद तक राहलु गांधी ने उसे अपनाई लेकिन उनके लिए यह जानलेवा साबित हुई। अब राहुल ने इसी शैली को अपने तरीके से अपनाया है और इसे विशिष्ठता प्रदान की है।

ऐसे समय में जब नेताओं और जनता के बीच संवाद लगभग टूट चुका हो, दूरी लगातार बढ़ रही हो, राहुल का जनता से जुड़ने का प्रयास गौर करने लायक है। नेता जनता की स्थिति नौकरशाही की आखों से देखते हैं। नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए झूठों आकड़ों में विकास की तलाश करते हैं। तमाम प्रलोभन देकर बसों में भर कर दूर दूर से लाई गई भीड़ को देखकर अपनी लोकप्रियता का अंदाज लगाते हैं। वे इस जमीनी हकीकत की पड़ताल करने की कोशिश नहीं करते कि जिन विकास योजनाओं पर जनता का धन पानी की तरह बहाया गया उसका लाभ आमजन को मिला या नहीं। मिला तो कितना मिला? कितना हिस्सा भ्रष्टाचारियों की जेब में गया और कितना हिस्सा जनता के हिस्से आया? बहुत सी योजनाएं तो सिर्फ कागजों में सिमट कर रह जाती हैं। उसका सारा धन बिचौलिए हड़प जाते हैं। गरीब के झोपड़ों तक विकास नहीं पहुंच पाता। विकास की हकीकत का पता तभी चल सकता है जब भुक्तभोगियों के बीच जाया जाए और उनसे जाना जाए। सबकुछ अपनी आखों से देखा जाए।


राहुल गांधी की राजनीतिक शैली राजनीति के मौजूदा ढर्रे में गुणात्मक परिवर्तन लाने जा रही है। आकाशी नेता जमीन से जुड़े लोगों को रास नहीं आएगा। दिल्ली औऱ लखनऊ के वातालुकूनित कमरे में बैठकर राजनीति करने के दिन लदने जा रहे हैं। वही नेता सफल होगा जो जनता के बीच जाकर उसका विश्वास जीतेगा और उसके सुखदुख में साझीदार होगा। जनता की कठिनाइयों को उसकी समस्याओं को समझेगा और उसे महसूस कराएगा कि वह जनता को मुसीबतों से उबारने के लिए वाकई ईमानदार प्रयास कर रहा है।


जातिवाद की राजनीति भी ज्यादा दिनों तक नहीं चलने वाली है। जिस तेजी से लोगबाग जागरुक हो रहे हैं उससे साफ दिखने लगा है कि निकट भविष्य में ही जातिवाद,संप्रदायवाद और क्षेत्रवाद के औजार भोथरे हो जाएंगे, रह जाएगा सिर्फ कर्मवाद। कर्मवाद ही नेताओं की योग्यता का मापदंड रह जाएगा। जब कोई प्रत्याशी चुनाव मैदान मे उतरेगा तो उसके जीवन का लेखा जोखा खंगाला जाएगा। राहुल गांधी राजनीति को इसी दिशा की ओर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी कोशिश है कि जनता और नेताओं के बीच सीधा संवाद स्थापित हो और बिचौलिए बीच से हट जाएं। स्थितियों का आंकलन नौकरशाही से न किया जाए। राजनीति की दशा और दिशा भवनात्मक आवेग से तय न हो। जन सेवा के व्यावहारिक और बुनियादि सिद्धांतों से निर्धारित हो।


जब राहुल गांधी व्यापक रुप से जनता को कांग्रेस से जोड़ने में कामयाब हो जाएंगे तो क्षेत्रीय और जातिवादी पार्टियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और उसके साथ ही सौदेबाजी और भयादोहन की राजनीति भी समाप्त हो जाएगी। वोटर को अपनी वास्तविक ताकत का अहसास होने लगेगा और उसके भयादोहन की संभावनाएं भी समाप्त हो जाएंगी। लेकिन ये काम आसान नहीं है। जिस दल दल में उत्तर प्रदेश की जनता फंस चुकी है, उससे बाहर निकलना बहुत कठिन है। यह लंबे समय तक धैर्यपूर्वक सतत प्रयास की मांग करता है। परिवार, जाति, कुनबे और क्षेत्र की राजनीति करने वाले छुटभैये नेताओं के मायावी तिलिस्म को तोड़ना आसान नहीं होगा। उनके मजबूत गढ़ों में सेंध लगाने का जो तरीका राहुल ने अपनाया है, उसमें ढेर सारी संभावनाएं छिपी हुई हैं।


यह अकारण नहीं है कि राहुल गांधी का पूर्वी उत्तर प्रदेश का गुपचप और आकस्मिक दौर यहां के निजाम को हजम नहीं हो पाया है। औस उसने सुरक्षा के नाम पर केंद्र सरकार से गहरा एतराज जताया है। उत्तर प्रदेश की मुख्या मायावती यह कैसे सहन कर सकती हैं कि उन्हें संभलने का मौका दिए बिना कोई उनके गढ़ में घुस आए और उन छिद्रों को खोज निकालने जो गढ़ को ध्वस्त करने में मददगार हो सकते हैं। मायावती कई बार राहुल के इस तरह के कार्यों की आलोचना कर चुकी हैं औऱ उसे ‘नाटक’ करार दे चुकी है। खासतौर पर अपने दलित वोट बैंक में सेंध वह कत्तई बर्दाश्त नहीं कर सकतीं। यही वोट बैंक तो उनकी प्राणवायु है। लेकिन राहुल गांधी को इसकी परवाह किए बिना अपनी विशिष्ट राजनीतिक शैली में अपना अभियान आगे बढाना चाहिए। क्योंकि नई राजनीति की यही मांग है।

गुरुवार, 11 जून 2009

मुलायम- आरएसएस के एजेंट!

मुलायम सिंह यादव के पचीस वर्षों के साथी आजम खां अंतत: समाजवादी पार्टी से निष्कासित कर दिए गए। यह प्रत्याशित था। यदि ऐसा न होता तो जरूर आश्चर्र्यजनक होता। कल्याण-मुलायम कि दोस्ती के बाद से ही आजम खां ने बागी तेवर अपना लिए था। वे लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रचार के लिए घर से नहीं निकले। अपने गृह नगर रामपुर में भी पार्टी प्रत्याशी जयाप्रदा का उग्र विरोध किया। उनके खिलाफ प्रचार भी किया। मुलायम सिंह ने उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की लेकिन वो टस से मस नहीं हुए। चुनाव के बाद उन्होंने पार्टी के महासचिव पद और संसदीय बोर्ड की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। बिना देर किए हुए उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। उन्होंने पार्टी की बैठक में जाना भी बंद कर दिया। हाल में उन्होंने केंद्र सरकार को पत्र लिख कर जयाप्रदा द्वारा चुनावों में अरबों रुपए खर्च किए जाने की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है।

कहा जा सकता है कि एक तरह से आजम खां ने मानसिक रुप से इस स्थिति का सामना करने की तैय़ारी कर ली थी। दरअसल कल्याण सिंह से मुलायम की दोस्ती ने तो सिर्फ आग में घी डालने का काम किया है आजम खां के पीड़ा की शुरुआत तो तभी से हो गई थी जब से पार्टी पर अमर सिंह का दबदबा कायम हुआ और आजम खां की उपेक्षा की जाने लगी। अमर सिंह और आजम के बीच शब्द बाणों की वर्षा शुरू हो गई। बात यहां तक पहुंच गई कि अमर सिंह ने धमकी तक दे डाली की पार्टी में या तो वो रहेंगे या आजम खां। आजम खां जानते थे कि इस लड़ाई में उनकी पराजय तय है लेकिन मैदान छोड़कर जाना उन्हें पसंद नहीं था भले ही लड़ते-लड़ते वो जंग हार जाएं। और वो अपने पुराने साथी मुलायम सिंह से पराजित होना चाहते थे क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति को अपने जिगरी दोस्त से लड़ते-लड़ते हारने में एक अलग तरह का सुख मिलता है। हमें उम्मीद है कि आजम सपा से अपने निष्कासन के बाद काफी सुकून महसूस कर रहे होंगे। क्योंकि अब वो अमर सिंह से खुल कर दो-दो हाथ कर सकते हैं जिंन्होंने न केवल पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम कर रखा है वरन मुलायम सिंह को भी अपने चंगुल में जकड़ रखा है।

ये सिलसिला तभी से शुरू हुआ जब से अपर सिंह का पार्टी में पदार्पण हुआ। अमर सिंह ने मुलायम पर इतनी मजबूत पकड़ बना ली कि बेनी प्रसाद वर्मा जैसे मुलायम के सबसे नजदीकी सीथी को भी उनका साथ छोड़ना पड़ा। इसके बाद राजबब्बर भी पार्टी छोड़ गए। मायावती के शासन के पहले जब उत्तर प्रदेश पर मुलायम सिंह राज कर रहे थे तो यह लगता था कि वो तो सिर्फ डमी हैं असली शासन अमर सिंह का ही चल रहा है। सपा के जो 40 विधायक खरीदे गए थे उसमें असली भूमिका अमर सिंह की ही थी। पार्टी और सरकार में एक बार भले ही मुलायम सिंह की बात अनसुनी कर दी जाए मगर अमर सिंह की बात या आदेश का पालन होना ही था। नौकरशाही मुलायम सिंह से ज्यादा अमर सिंह की वफादार थी।

राजनीतिक क्षेत्र में अमर सिंह के सामने मुलायम की विवशता पर हो रही चर्चाओं पर यकीन करें तो इसका सबसे बड़ा कारण है वित्तीय जुगाड़। अनिल अंबानी से अमर सिंह की दांत काटी रोटी की दोस्ती जगजाहिर है। यह दोस्ती इस हद तक है कि अंबानी बंधुओं में बंटवारा हुआ तो मीडिया जगत में चर्चा थी कि ये बंटवारा अमर सिंह ने ही कराया है। ताकि अनिल अंबानी पूरी तरह से उनके चंगुल में आ जाएं। क्योंकि मुकेश के रहते अनिल की चल नहीं पा रही थी। और कारण चाहे जो भी हों लेकिन अमर सिंह पर मुलायम की निर्भरता का सबसे बड़ा कारण यही है कि मुलायम सिंह कभी वित्तीय संकट में नहीं आ पाते।

यदि रामपुर के चुनावों में सपा द्वारा अरबों रुपए खर्च किए जाने का आजम का आरोप सही है तो इतने पैसे का जुगाड़ करना सिर्प अमर सिंह के बूते की बात है। अमर सिंह की सपा की उपलब्धियों पर नजर डालें तो उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार बनवाने के अलावा उनकी और कोई उपलब्धि नहीं है जिसे याद रखा जाए। उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार बनवाने में भी अमर सिंह की राजनातिक कूटनीति कम भाजपा के शिखर नेतृत्व खासकर अटल बिहारी बाजपेई की राजनीतिक चूक का ज्यादा हाथ था। उनकी जगह कोई चतुर राजनीतिज्ञ होता तो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन या केंद्रीय शासन के तहत लोकसभा का चुनाव करान बेहतर समझता। मुलायम सिह सरकार के तहत हुए चुनावों में भाजपा इतनी बुरी तरह राजित हुई की उसे मात्र 9 सीटों से ही संतोष करना पड़ा।

जहां तक केंद्र में यूपीए सरकार से सपा के संबन्धों का सवाल है तो 2004 से लेकर आज तक अमर सिंह को सिर्फ मुंह की खानी पड़ी है। पिछली सरकार में भी सपा को कोई खास तवज्जो नहीं दिया गया था और इस सरकार ने भी कोई तवज्जो नहीं दिया। पहले भी सपा बिना शर्त समर्त का राग बार-बार अलापती रही लेकिन यूपीए या कांग्रेस के नेताओं ने उनके समर्थन की कोई परवाह नहीं की। इस बार भी अमर सिंह ने यूपीए सरकार को बिना समर्थन का पत्र राष्ट्रपति को दे दिया लेकिन कांग्रेस ने सपा की बजाय बसपा से समर्थन लेना उचित समझा। सपा के लिए इससे बड़ा अपमान जनक आघात और क्या हो सकता है। अब अमर सिंह उस दिन की तरफ टकटकी लगाए हुए हैं जब बिल्ली के भाग से छींका टूटेगा।

सोनिया गांधी वो दिन भूली नहीं है जब मुलायम सिंह के कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाई थीं और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उन्हें विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा था। इस बार के चुनाव में सपा ने 3 को छोड़कर लगभग सारी सीटों पर प्रत्याशी खड़ा कर कांग्रेस का जो अपमान किया है उसने कोढ़ में खाझ का काम किया है। सोनिया गांधी इस झटके को भी याद रखेंगी और जब भी मौका मिलेगा सपा को सबक देती रहेंगी।

इस बीच आजम खां ने एक बार फिर अपने पुराने दोस्त मुलायम पर निशाना साधा है। आजम का कहना है कि मुलायम आरएसएस के एजेंट हैं। और कल्याण और मुलायम दोनों जानते थे कि मस्जिद गिरने वाली है। आजम के इस नए वार से सपा मुखिया जरूर तिलमिलाए होंगे ऐसे में आजम का सपा में पुनर्रागमन असंभव दिखने लगा है।

सोमवार, 1 जून 2009

राह के कांटे

मनमोहन सिंह की सरकार ने कामकाज करना शुरू कर दिया है। जवाहरलाल नेहरू के बाद डॉक्टर मनमोहन सिंह लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले पहले राजनेता हैं और किसी गठबंधन सरकार के लिए दुबारा सत्तारुढ़ होना भी पहली बार हुआ है। वामपंथी दल इस बार सरकार में नहीं हैं, इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि देश में आर्थिक सुधारों की गति बढ़ेगी। रास्ते का प्रमुख अवरोध हट गया है लेकिन सरकार के पास चुनौतियां कम नहीं है। आर्थिक सुधार का पश्चिमी मॉडल लागू करते समय सरकार को देश की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना पड़ेगा।

किसान
यदि सेज के लिए बिना सोचे-समझे अनुमित दी गई तो इससे लाखों किसान परिवार उजड़ेंगे, बेरोजगार होंगे और दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए मजबूर होंगे। आर्थिक सुधारों के बावजूद यूपीए सरकार के पिछले कार्यकाल में तमाम किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी थी। क्योंकि वे उन्नत खेती के लोभ में कर्ज के जाल में इस बुरी तरह फंस गए थे कि उनके सामने आत्महत्या के सिवा कोई चारा नहीं रह गया था। असम के किसानों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इस आश्वासन पर कि जो भी टमाटर किसान पैदा करेंगे, उसे वह खरीद लेगी, किसानों ने टमाटर के महंगे बीच लेकर बोए जब जब खेतों में टमाटर तैयार हुआ तो कंपनियों ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया। किसान भींगी आखों से टमाटरों का सड़ना देखते रहें। कईयों ने आत्महत्या कर ली। वे इस खौफनाक सदमें को बर्दाश्त नहीं कर सके। दूसरी समस्या उनके सामने कर्ज चुकाने की थी। इसिलिए डॉक्टर मनमोहन सिंह को खास तौर पर किसानों के बारे में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू करते समय अमेरिका और भारत के फर्क को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि अमेरिका के किसान बड़े खेतिहर हैं जबकि भारत के किसान लघु और सीमांत खेतिहर हैं।

रोजगार

दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है वैश्विक आर्थिक मंदी जिसे स्वयं प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च प्राथमिकता दी है वैसे इसका सबसे ज्यादा असर अमेरिका जैसे विकसित देश में हैं लेकिन भारत जैसा विकासशील देश भी इससे अछूता नहीं है। अभी तक कोई उद्योग बंद तो नहीं हुआ है। लेकिन हजारों लाखों कर्मचारियों की छंटनी कर दी गई है। रोजगार के अवसर लगभग बंद हो गए हैं। इससे देश में बेरोजगारी बढ़ रही है। शिक्षित युवकों का उत्साह फीका पड़ता जा रहा है।

महंगाई

आर्थिक मंदी के साथ महंगाई भी बढ़ रही है। खाने-पीने और रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों के मूल्य इस कदर बढ़ते जा रहे हैं कि आम आदमी का जीवन मुश्किलों से घिरता जा रहा है। उपर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की कोशिशें की जा रही हैं। पेट्रोल कंपनियों ने यदि अधिक मुनाफा लेने के चक्कर में कीमतें बढ़ाई तो उपभोक्ता वस्तुओं में कीमतों में इजाफा तय है। इसका गंभीर असर गरीब आदमी के निवाले पर पड़ेगा।

बिजली

सबसे विकट समस्या बिजली की है जिसने खासतौर पर शहरी जीवन को नर्क बना दिया है। वामदलों से पीछा छुड़ाने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि अमेरका से परमाणु करार की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ेगी और देश परमाणु बिजली घर में यथाशीघ्र आत्मनिर्भर बनेगा। इससे बिजली की समस्या से निजात मिलेगी और लोग सुकून की जिंदगी जी सकेंगे।


काला धन

विदेशी बैंको में जमा धन स्वेदश लाना भी सरकार के समझ कड़ी चुनौती है। इस दिशा में पिछली सरकार ने जो भी प्रयास किए हैं उन्हें जाहिर नहीं किया गया है। इस दिशा में शुरु की गई प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है। ताकि देश के लोग भी वास्तविकता से अवगत हो सकें।


गरीब तक गेहूं और चावल

कांग्रेस ने गरीबों को तीन रुपए किलो के भाव पर हर माह 25 किलो गेहूं और चावल देने का वादा किया है। इसमें कोई नई बात नहीं है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वालों को पहले से ही सस्ते अनाज मिल रहे हैं। इस मामले में असल चुनौती यह है कि गरीबों तक सस्ता अनाज पहुंचे कैसे? मौजूदा हालात यह है कि गरीबों का अनाज धड़ल्ले से चोर बाजारी में बिक रहा है और कोटेदार से लेकर आला अफसर तथा मंत्री की तिजोरियां भर रही हैं। वास्तव में यह योजना सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। हजारों क्विंटल अनाज तो सीधे एफसीआई के गोदामों से बाजार पहुंच जा रहा है। इसके अलावा जो कोटेदारों को वितरण के लिए दिया जाता है, वह भी चोरबाजारी में चला जाता है। कोटेदार से लेकर खाद्य और आपूर्ति विभाग के कर्मचारी और अफसर मालामाल हो रहे हैं। गरीब आदमी के हाथ कुछ नहीं आ रहा है। इसलिए सरकार को प्राथमिकता के आधार पर इसकी सख्त मॉनिटरिंग की व्यवस्था करनी होगी अन्यथा इस आकर्षक योजना की विफलता तय है।

बदमिजाज पड़ोसी

पड़ोसी देशों में आतंकवाद और राजनीतिक अस्थिरता का वतावरण तो है ही पाकिस्तान द्वारा परमाणु हथियार का जखीरा बढ़ाने की नई कोशिशों का खुलासा भी भारत के लिए चिंता का विषय़ है। भारतीय कूटनीति इस विषय पर कितनी कारगर होती है यह भविष्य बताएगा।

अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री

बढ़ता वित्तीय घाटा और घटता निर्यात विद्वान अर्थाशास्त्री प्रधानमंत्री के समक्ष एक गंभीर चुनौती है। इसे सुलझाने के साथ ही उन्हें घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों के बारे में ठोस नीति बनानी होगी ताकि जो धन घाटे की भरपाई में खर्च हो रहा है उसे विकास के कार्यों में लगाया जा सके।


नजर रखना

प्रधानमंत्री इन सारी चुनौतियों का मुकाबला किस तरह से करते हैं, इस पर हमें बेहद सतर्क नजर रखनी होगी।

सोमवार, 25 मई 2009

कलंक से बच गई काशी

पाप नाशनी, मोक्षदायनी, अमृतजलधारा वाली गंगा चाहे जितनी प्रदूषित हो गई हो लेकिन देश के आम लोगों के लिए आज भी उनका वही स्वरुप है, जो पहले कभी रहा होगा। टिहरी में कैद होने से पहले या तमाम तटवर्ती कचरे और मल को आत्मसात करने से पहले। इसी गंगा के पावन तट पर बसा है काशी। देवाधिदेव भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिकी काशी। देश की धार्मिक और सांस्कृतिक राजधानी। जहां का कंकड़ भी शंकर हैं। यह वही काशी है जहां एक चाण्डाल ने आदि शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया था। वैष्णव धर्माचार्य रामानंद ने कबीर को ‘कबीर’ बना दिया था। जिसके बारे में एक कवि ने कहा था ‘खाक भी जिसका पारस है, वही बनारस है’।

काशी ने विश्व को एक विशिष्ट संस्कृति दी है। पहचान दी है। यहां की रईसी मशहूर है तो गुंडई भी मशहूर है। गायकी मशहूर है तो मस्ती और अक्खड़पन भी मशहूर है। काशी की संस्कृति को संवारने में कई विभूतियों ने अपना पूरा जीवन साधना को समर्पित कर दिया। काशी धनाढ्यों को प्रश्रय देती है तो विधवाओं को मोक्ष के लिए आश्रय देती है। कहते हैं काशी में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता है। ‘चना-चबैना-गंगाजल’ यहां हमेशा मौजूद रहता है। यतीम लोगों की क्षुधा शांत करने के लिए।

लोकसभा में या दुनिया के किसी कोने में जो व्यक्ति काशी का प्रतिनिधित्व करता है वह काशी से धन्य हो जाता है। काशी उससे धन्य नहीं होती। काशी उदात्त मूल्यों के साथ जी रही है। काशी का स्वरुप भले बदल गया हो, बदलता जाए लेकिन उसके बुनियादी मूल्य कभी नहीं बदलेंगे ऐसा विश्वास यहां के लोगों में कूट-कूट कर भरा हुआ है। इतिहास गवाह है कि देश की सर्वोच्च संस्था लोकसभा में काशी ने कभी किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं भेजा है जो काशी की गरिमा के अनुरुप न हो। उसी व्यक्ति ने काशी का प्रतिनिधित्व किया है जिसने अपने भीतर काशी के मूल्यों को समाहित कर लिया है। जो काशी के मूल्यों के साथ जीता रहा है। रहने वाला कहीं का हो, पैदा कहीं हुआ हो लेकिन काशी की संस्कृति का कोई न कोई तत्व उसके भीतर मौजूद अवश्य हो।

पंद्रहंवी लोकसभा में काशी का प्रतिनिधित्व करने वाले डॉ. मुरली मनोहर जोशी उसी परंपरा की एक कड़ी हैं जिसमें पं. कमालपति त्रिपाठी, डॉक्टर रघुनाथ सिंह जैसे लोग थे। यदि वैज्ञानिक सिर्फ वैज्ञानिक, भौतिकवादी हो, वस्तुवादी हो तो कोई विशेष बात नहीं है। लेकिन वह वैज्ञानिक होने के साथ ही यदि धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, आस्थावान हो और देश की मिट्टी की तासीर को पहचानता हो, अपनी परंपरा और गौरवमय अतीत की उपलब्धियों पर गर्व महसूस करता हो तो निश्चित रुप से वह विशिष्ठ है।

विज्ञान तो हमारे धर्म में भी है। हमारे जीवन दर्शन में भी है और हमारे संस्कृति में भी है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यही है। हमारी संस्कृति विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसी गई और खरी उतरी है। हमारा अध्यात्म विज्ञान भी है और दर्शन भी। तभी तो गुरु रवींद्रनाथ टैगोर से लंबी बहस के बाद आइंस्टीन ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार की थी।

डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी पर्वतीय हैं। देवभूमि के हैं। वे इलाहबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर रहे। यह उनका पेशा था लेकिन भीतर से आध्यात्मिक रहे। उन्होंने विज्ञान को अपनी भौतिकता पर कभी हावी नहीं होने दिया। इसके विपरीत उनके विज्ञान पर उनकी आध्यात्मिकता हमेशा हावी रही। डॉ. जोशी भले ही काशी के नहीं रहे हों लेकिन काशीमय हैं। काशी का बीजतत्व उनके भीतर अंकुरित है। वह सच्चे अर्थों में काशीवासियों के नीर-क्षीर-विवेक शक्ति के सच्चे प्रतिमान हैं। काशी ने एक ऐसे व्यक्ति को नकारा है जिसने यहां की धरती को इंसानों के खून से लाल किया था। क्या मुख्तार अंसारी कहीं से भी काशी का प्रतिनिधित्व करने लायक था? सत्ता का घिनौना खेल खेलने वाले भले ही उसे क्लीन चिट दे दें। लेकिन काशीवासियों का अपना विवेक तो जागृत है ही। उसे कुहासे की परतों से ढका नहीं जा सकता।

भली सभा में मायावती ने मुख्तार को भलेमानुस का सर्टिफिकेट दिया। उसे मसीहा बना दिया। ये काशीवासियों की मेधा का अपमान था। काशीवासियों की निजता को चुनौती थी। काशी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। और अपनी परंपरा का निर्वाह किया। अपनी अस्मिता की रक्षा की। काशी के लिए यह चुनाव साधारण चुनाव नहीं था। उसे सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुजरना था। काशी इस अग्निपरीक्षा में सफल हुई। उसने मौजूदा प्रत्याशियों में से सर्वश्रेष्ठ को चुना और यही काशी की गरिमा और गौरवशाली परंपरा के अनुकूल भी था। भगवान शंकर की कृपा से काशी एक बहुत बड़े कलंक से बच गई।

इसे हम काशी की महिमा का असर मान सकते हैं। दुनिया के लोग काशी के यदि इस माफिया राष्ट्रीय प्रतिनिधि (जो खुशकिस्मती से नहीं चुना गया) के बारे में जानते तो पूरी काशी उनके सामने सिर झुकाए कठघरे में खड़ी होती। क्या यही है काशी के ज्ञान के चर्मोत्कर्ष का परिणाम? सर्वविद्या की यह राजधानी कैसे लकवाग्रस्त हो गई? इन सवालों से साफ बचनिकलने का श्रेय हम चाहें काशी की आत्याध्मिक चेतने को दें या किसी दैवी शक्ति को या काशी की परंपरा को या अन्य किसी को लेकिन यह बात तो निर्विवाद है कि कासी ने अपने आपको कलंकित होने से बचा लिया।

अब डॉ. जोशी का कर्तव्य है कि काशी ने उनमें जो आस्था व्यक्ति किया है, उसकी रक्षा करने में, उस पर खरा उतरने में, वह अपनी समूची शक्ति और समूची प्रतिभा झोंके दे। अब जोशी काशी के हैं, काशी उनकी है, काशीवासियों की शुभकामनाएं उनके साथ हैं।

शनिवार, 23 मई 2009

एक कदम आगे तो दो कदम पीछे क्यों चलती है भाजपा

पंद्रहवी लोकसभा का चुनाव जितना यूपीए के लिए अप्रत्याशित रहा उससे ज्यादा राजग के लिए यूपीए सत्तानशीं हो गई जबकि राजग उससे मीलों पीछे नजर आई। राजग को उतनी सीटें भी नहीं मिली जितनी कांग्रेस को अकेले मिलीं है। मैंने पहले भी कई बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पतन की भविष्यवाणी की है। लेकिन अब मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस पार्टी ने पतन की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।

भाजपा में फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है जिसमें चुंबकीय आकर्षण हो। कोई ऐसा थिंक टैंक नहीं है जो चुनावों के लिए प्रभावशाली मुद्दे की तलाश कर सके। कोई युवा चेहरा नहीं है जो देश के युवाओं का रुख पार्टी की ओर मोड़ सके। कोई महिला नेता नहीं है जो महिलाओं को पार्टी की तरफ ला सके। कोई ओजस्वी वक्ता नहीं है जो भीड़ को सम्मोहित कर सके। पार्टी के नेता स्वार्थ केंद्रित राजनीति में बुरी तरह लिप्त हैं। जैसे सामंती जमाने में किसी राजा के सरकार और दरबारी उसके निकम्मेपन का फायदा उठाकर निजी लाभ उठाने में इस कदर मशगूल हो जाते थे कि उन्हें दुश्मन के चढ़ आने की आहट भी नहीं लगती थी।

ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास नेताओं का एकदम अकाल हो गया है। पहले भी नहीं था। लेकिन पता नहीं क्यों पार्टी का शीर्ष नेतृत्व व्यक्ति केंद्रित राजनीति में इस कदर उलझ जाता है कि उसे पैरों तले की जमीन भी नहीं देती। उनके निर्णय कभी कभी इतने अटपटे होते हैं, रणनीति इतनी बेजान होती है कि उनकी सोच पर तरस आता है। पता नहीं क्यों पार्टी नया नेतृत्व उभरने ही नहीं देती। यदि किसी में आगे बढ़ने की प्रतिभा होती है तो उसे कुचल दिया जाता है।


वरुण गांधी जैसे आकर्षक व्यक्तित्व के युवा नेता को बहुत दिनों तक कोल्ड स्टोरेज में बंद रखा गया और जब मंच या अवसर दिया गया तो विषवमन का पाठ रटाने के बाद। पीलीभीत में उसने जो कुछ कहा वह देश की जनता को अच्छा नहीं लगा। सराहा तो सिर्फ बाल ठाकरे और संघ के कट्टरवादी तथा सांप्रदायिक नेताओं ने। जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने राजनीतिक लाभ के लिए वरुण पर रासुका लगया तो भाजपा नेताओं ने सोचा की कम से कम उत्तर प्रदेश में इसका लाभ उसे मिलेगा। लेकिन भाजपा और संघ के नेताओं को पता नहीं कब इसका एहसास होगा कि देश की ज्यादातर जनता, सांप्रदायिकता पसंद नहीं करती है। इसलिए वरुण प्रकरण का लाभ न तो भाजपा को मिल पाया, न बसपा को। बसपा को इसलिए नहीं मिला क्योंकि ज्यादातर लोगों को लगा कि मायावती इस युवा वरुण के साथ ज्य़ादती कर रही है।

भाजपा और संघ के नेताओं ने उमा भारती का सार्थक उपयोग करने की बजाय उन्हें एक कोने में ढकेलकर निष्क्रिय कर दिया। कल्याण सिंह जैसे पुराने और निष्ठावान नेता की मामूली बात भी अनसुनी कर दी। और उन्हें पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। बुलंदशहर से उस व्यक्ति को भाजपा ने टिकट दिया जिसने डिबाई विधानसभा क्षेत्र से कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह को पराजित करने में मुख्य भूमिका निभाई थी। कल्याण सिंह नहीं चाहते थे कि बुलंदशहर संसदीय सीट से उसे टिकट दिया जाए क्योंकि यह क्षेत्र उनके प्रभाव में था। लेकिन भाजपा ने उसी अशोक प्रधान को बुलंदशहर से सीट दे दिया और वह चुनाव हार गए। इससे क्षुब्ध होकर कल्याण ने सपा से दोस्ती कर ली यह अलग बात है कि इस दोस्ती का परिणाम सपा के लिए अच्छा नहीं रहा। सपा के सभी मुस्लिम मत कांग्रेस की ओर मुड़ गए और कांग्रेस को शानदार सफलता मिली एकदम चौंकाने वाली।

ले देकर भाजपा के पास एक महिला नेता हैं सुषमा स्वराज। उनका इस्तेमाल तब किया जाता है जब जरुरत पड़ती है। वह ऐसे आलू की तरह हैं जिसे किसी भी सब्जी में फिट किया जा सकता है। सुषमा के पास ऐसा व्यक्तित्व है जो महिलाओं को अपनी ओर आसानी से खींच लाए लेकिन भाजपा महिला नेता के रुप में उनका इस्तेमाल करने में पता नहीं क्यों झिझकती है।

अयोध्या विवाद के बाद भाजपा नेताओं ने क्या कभी ऐसा कार्यक्रम चलाया जो उन्हें आम जनता से जोड़ सके? मंदिर मुद्दे पर जो कार्यक्रम चलाए भी गए वह विश्व हिंदू परिषद ने चलाए थे। भाजपा ने नहीं। अयोध्या में मारे गए लोग विहिप के कार्यकर्ता रहे भाजपा के नहीं। भाजपा नेताओं ने तो सिर्फ मंदिर आंदोलन की मलाई खाई। भाजपा नेता सत्ता सुख के इतने आदी हो गए हैं कि उन्हें सिर्फ आरामतलबी पसंद हैं। वे अब भी आशा रखते हैं कि संघ के आनुषंगिक हिंदू संगठन उन्हें सत्ता तक पहुंचा देंगे और उन्हें बैठे बिठाए सत्ता का लाभ मिलने लगेगा सत्ता की चाह ने भाजपा नेताओं को आंतरिक द्द्व और कलह में बुरी तरह उलझा दिया है। इस उलझाव ने उनके दिमाग को कुंद कर दिया है और आखों पर पट्टी बांध दिया है। वो कुछ सोचने और देखने में असमर्थ हो गए हैं। उस नेतृत्व का हम क्या करे जो समय की इबारत पढ़ने और जलभावनाओं को समझने में असमर्थ रह जाता है।

राहुल गांधी पिछले दो तीन वर्षों से देश में घूम रहे हैं। गरीब लोगों के झोपड़ों में रातें बिताते हैं। उनके साथ रुखा सूखा भोजन करते हैं। उनके दुख दर्द को समझते हैंय़ उनकी हमदर्दी और सहानुभूति प्राप्त करते हैं। सोनिया गांधी भी देश के विभिन्न भागों में जाती रहती है। स्थानीय लोगों से मिलती रहती हैं उनकी समस्याएं गौर से सुनती हैं आम लोगों का दिल जीत लेती हैं। देश में युवकों की संख्या बुजुर्ग मतदाताओं से कम नहीं है। महिलाएं भी खासी संख्या में हैं। क्या इस वर्ग को आकर्षित करने के लिए भाजपा की ओर से किसी को लगाया गया? सुषमा स्वराज, मेनका गांधी, वरुण गांधी कई ऐसे नेता हैं जिनकी उर्जा का इस्तेमाल पार्टी को जन जन तक पहुंचाने में किया जा सकता है। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को पता नहीं क्यों इन नेताओं की लोकप्रियता बढ़ने से डर लगता है।

गोविंदाचार्य, उमा भारती, कल्याण सिंह जैसे लोगों को निकाल तो दिया गया लेकिन उन जैसे कितने नेता पैदा किए गए? एक नेता जब पार्टी छोड़ता है तो उसके ढेर सारे समर्थकों का पार्टी से मोहभंग हो जाता है। चुनावों में एक दो फिसदी मत का भी काफी महत्व होता है। संघ का सिद्धांत शायद ही कभी परवान चढ़े। पिछले वर्षों में भाजपा ने जितने चुनाव जीते हैं उसमें संघ की कोई भूमिका नहीं थी। गुजरात में तो तोगड़िया के कड़े विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी जीते। संघ के नेताओं ने भी उनका साथ नहीं दिया। वे जीते तो विकास कार्यों की बदौलत। संघ भाजपा को फिर अपने अरदब में लेने की कोशिश कर रहा है। वह भाजपा पर पूरा नियंत्रण चाहता है। अटल जी जैसा कोई दूसरा नेता नहीं है जो संघ के नियंत्रण को अस्वीकार कर दे लेकिन यदि भाजपा को जिंदा रहना है तो अटल जी जैसा नेता पैदा करना होगा जो लोग संघ के काडर के नहीं हैं उन्हें भी अहमियत देनी होगी।

बुधवार, 20 मई 2009

फिर बैतलवा डाल पर

अमर-मुलायम की समाजवादी पार्टी एक बार फिर उसी हालत में आ गई है, जिस हालत में पिछले लोकसभा चुनाव के बाद थी। उस समय यूपीए को सपा के समर्थन की कोई जरुरत नहीं थी, लेकिन सपा बार-बार दुहरा रही थी कि हमने यूपीए सरकार को बिना शर्त समर्थन दिया है। कांग्रेस लगातार सपा के समर्थन को नकारती रही। सोनिया गांधी की बेरुखी यहां तक थी कि एक बार अमर सिंह उनसे मिलने के लिए बाहर बैठ कर एक घंटे तक इंतजार करते रहें। लेकिन सोनिया ने उनसे मिलना मुनासिब नहीं समझा। अमर सिंह को चाय के लिए भी नहीं पूछा गया और वे उल्टे पांव लौट गए। इस अपमान से झल्लाए अमर सिंह गाहे बगाहे सोनिया जी पर अपनी भड़ास निकलते रहे।

लेकिन सोनिया गांधी इस कहावत को चरितार्थ करती रहीं कि हाथी अपने रास्ते पर चलता जाता है। वह किसी की रोकटोक की परवाह बिल्कुल नहीं करता है। पंद्रवही लोकसभा के चुनाव में गर्व से भरे हुए सपा ने कांग्रेस के महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी दिग्विजय सिंह को कम खरी खोटी नहीं सुनाई। सपा से चुनावी गठबंधन के लिए कांग्रेस ने काफी प्रयास किए। लेकिन बात नहीं बनी। सपा सोलह सीटों से ज्यादा कांग्रेस को देने को तैयार नहीं थी। मुलायम सिंह कहते थे कि कांग्रेस को हारने के लिए सीटें क्यों दी जाएं। दिग्विजय सिंह ने कहा ठीक है लेकिन कुछ सीटों पर कांग्रेस और सपा में दोस्ताना संघर्ष होगा।

सपा को यह मंजूर नहीं था। अमर सिंह का कहना था कि दोस्ताना संघर्ष जैसा कुछ नहीं होता है। या दोस्ती होता है या संघर्ष। उन्होंने दिग्विजय सिंह पर आरोप भी लगाया था कि सपा और कांग्रेस में चुनाव गठबंधन उन्हीं की वजह से नहीं हो पा रहा है। इस संबंध में सोनिया गांधी से भी सपा नेताओं की बात हुई। लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। बातचीत का दौर जारी था तभी सपा ने पचास सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। इसके बाद कांग्रेस ने एकला चलो का रास्ता अपनाया और उसने अपने दम पर लोकसभा की 21 सीटें उत्तर प्रदेश में जीतीं। यानि सपा से सिर्फ दो सीटें कम। दरअसल सपा नेताओं को यकीन था कि केंद्र में कोई भी सरकार उनके सहयोग के बिना नहीं बनेगी। वे किंग मेकर की भूमिका में होंगे। सपा यूपीए सरकार में शामिल होगी और जमकर कीमत वसूलेगी। अमर सिंह का सपना था कि अपने उद्योगपति और बॉलीवुड के दोसेतों के जो भला वह सरकार के बाहर रहकर नहीं कर सके, वह सरकार में रहकर कर सकेंगे।

परमाणु डील के मुद्दे पर वामपंथियों द्वारा यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद बेशक मनमोहन सिंह ने सरकार बचाई थी और भारत अमेरिका से परमाणु डील करने में सफल हुआ था, लेकिन अमर सिंह ने इसकी भरपूर कीमत वसूलने की कोशिश की थी। अपने एक उद्योगपति दोस्त के आत्मसंतोष के लिए मुकेश अंबानी का लाभांश कम कराने का भरसक प्रयास किया था, लेकिन प्रधानमंत्री उनके दबाव के सामने झुके नहीं। आय से ज्यादा संपत्ति की सीबीआई जांच के मामले में सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख से तिलमिलाए अमर सिंह ने चाहा कि सोनिया गांधी कारगर हस्तक्षेप करें। लेकिन सोनिया गांधी के स्पष्ट इनकार से अमर सिंह इस इस कदर बौखला गए कि उनके जुबानी तीर फिर सोनिया पर बरसने लगे।

किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना सोनिया का स्वभाव है। वह इस बात के लिए कमर कसकर तैयार थी कि सपा द्वारा समर्थन वापस ले लेने पर लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करा दिया जाएगा मुलायम सिंह को अपनी पार्टी की लोकप्रियता पर उसी अति विश्वास था, जिस तरह बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान को। इन नेताओं ने मिलकर चौथा मोर्चा बनाया और यूपी तथा बिहार में सभी सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर दिए। उनका लक्ष्य था इन राज्यों में कांग्रेस को पैर मत जमाने दो और यूपीए सरकार से सौदेबाजी करते रहो।

मुलायम और लालू ये नहीं समझ पाए कि जनता इनकी तिकड़मी और स्वार्थ केंद्रित राजनीति से ऊब चुकी है। वह स्थिरता, स्वक्षता ईमानदारी और विकास चाहती है। कांग्रेस ने दोनों ही राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। परिणाम सामने है। मुलायम और लालू यादव कहीं के नहीं रहे। मुलायम ने अमर सिंह की राय को शिरोधार्य करते हुए कल्याण सिंह को भाजपा से तोड़ा, लेकिन पासा उलटा पड़ गया। कल्याण सिर्फ बुलंदशहर और एटी की सीटें जिता पाए। पहली पर सपा जीती और दूसरे पर वो खुद। लेकिन सपा का नुकसान इस हद तक किया कि सारे मुस्लिम वोट कांग्रेस की ओर चले गए।

सोनिया गांधी की खासियत यह है कि वह अपने साथ किए गए छल को भूलती नहीं हैं। वह उस घटना को आज तक नहीं भूली हैं, जब मुलयाम सिंह यादव ने उन्हें विदेशी महिला करार देते हुए समर्थन देने से इंकार कर दिया था और लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता होने के बावजूद न्हें विपक्ष में बैठना पड़ा था। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में चौथे मोर्चे ने उत्तर प्रदेश और बिहार में सारी सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करके उनका जो अपमान किया, उसे भी शायद ही कभी वो भूल पाएं। अब केंद्र सरकार में मुलायम और लालू को हिस्सेदारी की उम्मीद छोड़कर भविष्य की चिंता शुरु कर देनी चाहिए।