ओबामा के शासन के ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। उन्होंने नवंबर 2008 में राष्ट्रपति पद का पद संभाला है, इसीलिए कुछ लोग कह रहे हैं कि उन्हें शांति पुरुस्कार देने में जल्दबाजी की गई। अभी उनकी राष्ट्रीय औऱ विदेशी नीतियों की गहन पड़ताल की जानी चाहिए थी। दुनिया के कई राजनीतिक और बुद्धिजीवी ओबामा को नोबल पुरुस्कार मिलने से आश्चर्यचकित हैं। खुद ओबामा को हैरानी है कि उन्हें विश्वस्तरीय सम्मानजनक पुरुस्कार अचानक कैसे मिल गया। उन्होंने तो सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन जो लोग अमेरिका के बुश प्रसाशन पर बारीक नजर रखे होंगे उन्हें बुशकालीन अमेरिकी नीति और ओबामा के शासन काल के अमेरिका में गुणात्मक फर्क साफ नजर आ रहा है। ओबामा ने अमेरिका की दादागीरी और धौंसपट्टी की राजनीति समाप्त कर दी और संवाद की राजनीति शुरू की।
एक समय था जब अमेरिका ईरान पर जितना दबाव बढ़ाता था, ईरान उतना ही तनता जाता था। जॉर्ज बुश और अहमदीनेजाद एक दूसरे को ललकारते रहते थे। अमेरिका की इस दरोगाई संस्कृति को ओबामा ने खत्म कर दिया। पाकिस्तान ने अपने देश का स्विटजरलैंड माने जाने वाली खूबसूरत स्वात घाटी को तालिबानियों के हाथों सौंप दिया और उसके सरगनाओं से समझौता कर लिया था। ओबामा ने सार्वजनिक तौर पर इसके लिए पाकिस्तान को चेतावनी नहीं दी, धमकी नहीं दी। कूटनीतिक दबाव ऐसा बनाया कि पाकिस्तान ने तालिबानियों को न केवल स्वात घाटी से मार भगाया बल्कि पाकिस्तानी फौजें अब भी तालिबानियों से युद्ध कर रही हैं और तालिबानी खीज कर पाकिस्तान और काबुल में फिदायीन हमले कर रहे हैं।
पाकिस्तान ने जब अमेरिका के हारपून मिसाइल में अपने मुताबिक सुधार किया तो राजनीति के विश्लेषकों ने निष्कर्ष निकाला कि पाकिस्तान को जो अमेरिकी सहायता मिलने वाली है वह अब नहीं मिलेगी। लेकिन अमेरिका ने साढ़े सात अरब डॉलर की सहायता मंजूर की। ओबामा की कूटनीति का ये एक अहम पहलू था। अमेरिकी मदद से पाकिस्तान न केवल अमेरिका का मोहताज बना रहेगा, वरन पूरी तरह चीन की गोद में भी नहीं बैठेगा जिसकी भरपूर कोशिश चीन कर रहा है। जो काम पाकिस्तान को धमका पर बुश नहीं करा सके, उसे ओबामा ने बिना हो हल्ला के अपने कूटनीतिक प्रयासों से कर दिखाया। यदि उन्हें इसी तरह सफलता मिलती रही तो एक दिन ऐसा भी आएगा जब वह पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की नाक में नकेल डालने में कामयाब रहेंगे। हो सकता है कि पाकिस्तान की धरती से संचालित आतंकवाद का सफाया हो जाए।
ओबामा ने इस्लाम की प्रशंसा की औऱ अमेरिका के विकास मे मुसलमानों के विकास को सराहा। इससे मुस्लिम देशों से अमेरिका के संबंध सुधरे। अब अमेरिका मुस्लिम देशों के लिए हौवा नहीं रहा। एक समय अधकचरे बुद्धिजीवी कयास लगाने लगे थे कि इस्लाम और इसाइयत के बीच संघर्ष अपरिहार्य है। उत्तर कोरिया भी अब उस तरह से अमेरिका को आखें नहीं तरेर रहा है जिस तरह से बुश के जमाने में तरेर रहा था। हाल ही में उत्तर और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपतियों में सौहार्दपूर्ण बातचीत अच्छे भविष्य के शुभ संकेत हैं। इस वार्ता का पूरा श्रेय ओबामा की राजनीति को दिया जाना चाहिए।
ओबामा के शासन काल में साफ दिखाई दे रहा है कि विश्व में तनाव कम हुआ है और शांतिमय वातावरण का निर्माण हुआ है। पश्चिम एशिया की तनावपूर्ण स्थिति ओबामा के लिए अग्नि परीक्षा से कम नहीं हैं। यदि इस क्षेत्र की समस्याएं सुलझा ली गईं तो बराक ओबामा सचमुच विश्व के शांतिदूत बन जाएंगे।
ओबामा विदेश की समस्याएं तो सफलता पूर्वक सुलझा रहे हैं लेकिन उनके अपने देश का ही प्रभु वर्ग उन्हें पचा नहीं पा रहा है। अमेरिका की स्वास्थ्य सेवाएं इतनी खर्चीली हैं कि वे अपेक्षाकृत गरीब काले लोगों की पहुंच से बाहर हैं। ओबामा उसे जनसाधारण के पहुंच के भीतर लाने के लिए सख्त कदम उठा रहे हैं। अमेरिका में स्वास्थ्य सेवाओं का पूरी तरह निजीकरण और इनपर श्वेत तथा संपन्न लोगों का एकाधिकार है। यह वर्ग ओबामा से इस हद तक नाराज है कि उन्हें ‘सोशलिस्ट’ और ‘कम्युनिस्ट’ कहा जाने लगा है। ये शब्द अमेरिका में नफरत के तौर पर लिए जाते हैं, भले ही अमेरिकी कंपनियां रुस और चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों से अकूत दौलत कमा रही हों।
ओबामा गांधी और मार्टिन लूथर किंग से प्रभावित हैं वे अमेरिका में समाजवाद तो नहीं ला सकते लेकिन उन अश्वेत लोगों को मानवीय औऱ जीवन की न्यूनतम चीजें उपलब्ध कराने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। उन्हें बराबरी का सम्मान तो दिला ही सकते हैं। इसका प्रयास वो अपने तरीके से कर रहे हैं। अभी ओबामा का लंबा कार्यकाल बचा है। हमें पूरी उम्मीद है कि वो नोबेल शांति पुरुस्कार की सार्थकता सिद्ध करेंगे।
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