बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

कश्मीर- अभिन्न अंग या मुद्दा?

कश्मीर समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार ने नए सिरे से पहल शुरू कर दी है। गृहमंत्री पी चिदंबरम हाल ही में कश्मीर गए थे और कुछ नेताओं से बातचीत भी की है। गृहमंत्री के मुताबिक कश्मीर के संबंध में अब किसी समूह से नहीं व्यक्तिगत बातचीत होगी। सैयद अली शाह गिलानी जैसे विघ्नसंतोषी नेताओं को छोड़ दिया जाए तो कश्मीर के अधिकांश नेताओं और संस्थाओं ने गृहमंत्री के पहल का स्वागत किया है। चिदंबरम कश्मीरी नेताओं से बातचीत तो बहुत ही गोपनीय रखेंगे। मीडिया को भी भनक नहीं लगने देंगे। वार्ता में सक्रिय सहयोग के लिए एक वरिष्ठ और अनुभवी नौकरशाह को कश्मीर में नियुक्त किया है। एक संतोष की बात यह है कि कई समूहों के गठबंधन ने भी कश्मीर पर बातचीत का स्वागत किया है और अलगाववादी नेताओं ने वार्ता में पाकिस्तान को शामिल करने का हठ भी छोड़ दिया है। कश्मीर पर संवादहीनता की स्थिति का खत्म होना स्वागत योग्य है।

देश की जनता भले ही यह न जान पाए कि कश्मीरी नेताओं और केंद्र सरकार के बीच क्या खिचड़ी पक रही है। वार्ता का अंतिम परिणाम जब सामने आएगा, तभी जनता निर्णय लेगी कि उसे क्या करना चाहिए, स्वागत या विरोध। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह इसी महीने के अंत में कश्मीर जा रहे हैं। संभव है वहां कुछ महत्वपूर्ण कश्मीरी नेताओं से बातचीत हो। कश्मीर समस्या के सम्माजनक हल इसलिए भी जरुरी है क्योंकि पाकिस्तान इस समस्या पर अतर्राष्ट्रीयकरण करने में सफल हो गया है। कुछ माह पहले हुए इस्लामी संगठन के सम्मेलन में कश्मीर का मुद्दा उठा था। इसी महीने के अंत में कुछ अरब देशों के प्रतिनिधि लंदन में एक बैठक करने वाले हैं जिसमें कश्मीर समस्या पर विचार होना है।

वास्तव में भारत के एक महाशक्ति के रुप में उभरने की संभावनाओं से कुछ समृद्ध देश संशकित हो गए हैं, इसलिए वे कश्मीर समस्या को हवा देने में लगे हुए हैं। वे कश्मीर जैसी अन्य समस्याओं में भारत को उलझाना चाहते हैं। अमेरिका एक तरफ भारत को विश्वसनीय दोस्त होने का आश्वासन देता है, दूसरी तरफ पाकिस्तान को एफ-16 जैसे उच्चस्तरीय युद्धक विमान भी देता है। जाहिर है इस विमान का प्रयोग भारत के खिलाफ ही किया जाएगा। चीन तो पाकिस्तान का दोस्त है ही। वह पाकिस्तान से सामरिक रक्षा संधि भी करने के लिए तैयार हो गया है। यही नहीं मीडिया कर्मियों को बांटे गए एक नक्शे में तो उसने जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करके दिखाया हैं।

ऐसी स्थिति में कश्मीर समस्या भारत की प्रमुखता सूची में आ गया है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। केंद्र सरकार ने कश्मीर को दो केंद्रीय विश्वविद्यालय तो दिया ही है, कश्मीर तक रेल लाइन बिछाने की योजना पर भी शीघ्र ही अमल होने वाला है। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री इसी महीने होने वाली कश्मीर यात्रा के दौरान करेंगे। केंद्र ने कश्मीर के विकास को तेज गति देने का निर्णय लिया है। गृहमंत्री ने कश्मीर में कहा है कि कश्मीर समस्या को लेकर उनके मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं है। इससे हुर्रियत नेताओं का उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है। नरमपंथी हुर्रियत नेता मीरवाइज फारुक ने यहां तक कह डाला कि भारत सरकार अब कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं मानता बल्कि एक मुद्दा मानता है जिसे बातचीत से हल किया जा सकता है।

यदि हुर्रियत नेता का ये बयान सही है तो इससे देशवासी अवश्य चिंतित होंगे। भारत सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। यदि भारत ने इसे स्वीकार कर लिया तो इसके परिणाम घातक और दूरगामी होंगे। पाकिस्तान इस कथित मुद्दे को हल करने के लिए अपनी पुरानी आत्मनिर्णय की मांग जोर शोर से उठा सकता है और हो सकता है कि अरब या अन्य इस्लामी देश उसका साथ दें। कश्मीर के अलगाववादी और उग्रवादी पाकिस्तान की इस पुरानी मांग का समर्थन करें।

अमेरिका एक अरसे से चाहता है कि भारत उसे कश्मीर में सैनिक अड्डा बनाने की अनुमति दे। इस तरह की इच्छा ब्रिटेन भी जाहिर कर चुका है। हो सकता है कि अमेरिका चाहता हो कि कश्मीर पाकिस्तान के हिस्से पड़े ताकि उसकी फौजी अड्डा बनाने की चिर प्रतीक्षित इच्छा पूरी हो सके। बहरहाल अगर भारत सरकार ने कश्मीर को अपनी भूमि मानने की बजाय यदि एक विवादास्पद मुद्दा मान लिया है तो उसके सामने सवालों और उलझनों का पहाड़ खड़ा हो जाएगा। चीन की दिलचस्पी भी कश्मीर ‘मुद्दे’ में बढ़ जाएगी।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत यही है कि सरकारी नीतियों की पुस्तक के सभी अध्याय जनता के लिए खुले हों। यह सही है कि कुछ क्षेत्र गोपनीय रखे जाते हैं लेकिन जब देश के एक भू-भाग के भविष्य का सवाल हो तो जनता जानना चाहेगी कि भारत की सरकार और उसके नेता क्या खिचड़ी पका रहे हैं। संविधान की धारा 370 की तरह कोई और खेल तो नहीं होने जा रहा है?

वैसे भी भारतीय नेता अपनी दरियादिली के लिए विश्व में कुख्यात हैं। इसी दरियादिली के कारण ही भारत की सीमाएं लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। बांग्लादेश को भी कुछ क्षेत्र दान किया गया। पाकिस्तान कश्मीर के एक हिस्से पर जमा ही हुआ है। पिछले दिनों सियाचिन से भारतीय सेना हटा लेने की चर्चा थी। यदि ऐसा होता तो सियाचिन भी पाकिस्तान के कब्जे में होता। चीन 1962 से ही लद्दाख क्षेत्र में तकरीबन 48 हजार वर्ग किलो मीटर जमीन कब्जाए हुए है। यदि इस गुपचुप सहमति में कश्मीर भी भारत के हाथ से निकल जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।

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