पूरा भारतीय चिंतन ही अंधकार से प्रकाश की ओर अनवरत यात्रा का चिंतन है। जब वातावरण में प्रकाश होता है तो अंतर्मन भी प्रकाशित होता है। ज्योतिपर्व अंतरतम को आलोकित करने का एक प्रतीक पर्व है। इसे हम देश के संदर्भ में देखें तो इस पर्व पर जो बातें सामने आई हैं वो विशेष रुप से आल्हादकारी हैं। फिजां में खुशी की तरंगें घोलती हैं। भीतर से बाहर तक बिखर जाता है प्रकाश पुंज। ज्योतिपर्व पर अर्थ की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। हे देवी! धनधान्य से परिपूर्ण रखना। और इस वर्ष का ज्योतिपर्व धनधान्य से परिपूर्ण करने ही जा रहा है।
इस पर्व के करीब आते ही औद्योगिक और नौकरी पेशा क्षेत्रों से अच्छी खबरें आनी शुरू हो गई हैं। औद्योगिक विकास दर 10.4 प्रतिशत हो गई। उपभोक्ता बाजार में चहल-पहल शुरू हो गई। औद्योगिक उत्पादनों की मांग बढ़ गई है और इसमें और बढ़ोत्तरी के आसार हैं। पिछले साल के अगस्त महीने में औद्योगिक विकास दर महज 1.7 प्रतिशत था। इस साल जुलाई में 7.2 प्रतिशत हुआ और अब 10 प्रतिशत पार कर गया है। यह वैश्विक आर्थिक मंदी से उबरने की प्रकिया भी है। औद्योगिक विकास और उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में वृद्धि से सरकार का राजस्व बढ़ेगा जिससे सरकारी विनिवेश बढ़ेगा, रोजगार के नए-नए अवसर खुलेंगे। निजी क्षेत्रों का भी विस्तार होगा। ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलने से आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ेगी। फिर समृद्धि का एक चक्र बनेगा।
वित्त विशेषज्ञों का अनुमान है कि सूखे और बाढ़ से कृषि क्षेत्र में जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई औद्योगिक क्षेत्र में आई उछाल से हो जाएगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये विश्वास दिलाया है कि मंहगाई का यह दौर समाप्त होने वाला है। जब देश विकास के फर्राटा दौड़ में होगा तो लोगों की जिंदगी में खुशहाली का आना स्वाभाविक है। प्रकाश का विस्तार अपरिहार्य है। जो लोग अपनी न्यूनतम जरूरतें पूरी कर पा रहे हैं उनके पाले में खुछ और लोग भी खड़े दिखाई देंगे, इसमें शक की गुंजाइश नहीं है।
लेकिन यह कहना शायद मुनासिब नहीं होगा कि आम लोगों या मध्यम वर्ग की जिंदगी आसान हो जाएगी। यह एक लंबी प्रकिया है जो अगणित लोगों की बलि लेकर ही पूरी होगी। जिस अनुपात में समाज आर्थिक दृष्टि से संपन्न हो रहा है, सामाजिक दृष्टि से उसका प्रतिष्ठा बढ़ रही है उसी अनुपात में आत्महत्याएं और हत्याएं भी बढ़ रही हैं। कृषि क्षेत्र की विकास दर जहां की तहां है। लघु, सीमान्त और मध्यम वर्ग का किसान नौकरी पेशा लोगों के मुकाबले पीछे छूटता जा रहा है। सरकारी और गैर-सरकारी श्रृण के बोझ तले दबता जा रहा है। दौ़ड़ में लगातार पीछे छूटते जाने के कारण उसके सामने आत्महत्या के सिवा कोई और चारा नहीं बचता।
यह प्रवृत्ति इस लिए बढ़ती जा रही है क्योंकि हम सही मायने में प्रकाश को अपने भीतर नहीं ला पा रहे हैं। उसी में उजाला खोज रहे हैं जो चकाचौंध पैदा करता है। हर कोई चकाचौंध का दीवाना हो गया है, उसी के पीछे भाग रहा है, जहां चकाचौंध नहीं है उसकी अनदेखी की जा रही है। उसे अंधेरा पक्ष मान कर त्याग दे रहे हैं।
जिनके झोपड़ों में ज्योतिपर्व ठहरता नहीं उनकी आबादी एक तिहाई है। समाज के साभ्रांत लोग ज्योतिपर्व की शास्त्रीय विवेचना तक सिमटे रहते हैं और स्वयं को ही उसका वास्तविक हकदार मानते हैं। वे समझने को तैयार नहीं की अपराजेय और सामूहिक उर्जा तभी उपलब्ध होगी जब हर व्यक्ति को हिस्सेदारी के अवसर उपलब्ध होंगे और उसे महसूस होगा कि जो कुछ भी घटता है घट रहा होता है या घट चुका होता है उसमें कहीं न कहीं उसकी मौजूदगी भी रही।
लोग उपेक्षित भले हुए हों निराश नहीं हुए हैं। उनकी आशा की ज्योति अभी भी जल रही है, टिमटिमा रही है। वे हर वर्ष अपनी झोपड़ी में एक दिया अवश्य प्रज्वलित करते हैं इस बात की परवाह किए बिना की उनका जीवन कितनी देर का है। क्षण भर का, घड़ी दो घड़ी का या अगले साल ज्योतिपर्व आने तक के लिए। यह ज्योतिपर्व बहुतों के भीतर उनकी आत्मा में एक दीप जला जाता है। जिसके प्रकाश के सहारे वे अपने जीवन का हर लम्हा आगे सरकाते जाते हैं। ज्योतिपर्व हिंदू धर्म, हिंदू जीवन-दर्शन और जीवन शैली का अनिवार्य उपक्रम है और सिर्फ इसी धर्म में है।
ये एक कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है। अनंत काल तक चलने वाला सिलसिला। कभी न बुझने वाला प्रकाश पुंज। प्रकाश का दीप, आशा का दीप, आंकाक्षा का दीप तब तक जलता रहेगा जब तक मनुष्य के भीतर का अंधेरा छंट नहीं जाता और भीतर की ज्योति बाहर की ज्योति एक दूसरे में विलीन होकर एक ऐसा प्रकाश पुंज नहीं बन जाती जिसके आलोक में हर व्यक्ति खुशहाली की चरम स्थिति न पा ले।
ये ज्योति हमें भारतीय मूल्यों से साक्षात्कार कराती है और उसके साथ जीने को प्रेरित करती है। ज्योतिपर्व की सार्थकता इसी में है कि हम इस प्रेरणा को ग्रहण करें और आगे बढ़े।
इस पर्व के करीब आते ही औद्योगिक और नौकरी पेशा क्षेत्रों से अच्छी खबरें आनी शुरू हो गई हैं। औद्योगिक विकास दर 10.4 प्रतिशत हो गई। उपभोक्ता बाजार में चहल-पहल शुरू हो गई। औद्योगिक उत्पादनों की मांग बढ़ गई है और इसमें और बढ़ोत्तरी के आसार हैं। पिछले साल के अगस्त महीने में औद्योगिक विकास दर महज 1.7 प्रतिशत था। इस साल जुलाई में 7.2 प्रतिशत हुआ और अब 10 प्रतिशत पार कर गया है। यह वैश्विक आर्थिक मंदी से उबरने की प्रकिया भी है। औद्योगिक विकास और उपभोक्ता वस्तुओं की मांग में वृद्धि से सरकार का राजस्व बढ़ेगा जिससे सरकारी विनिवेश बढ़ेगा, रोजगार के नए-नए अवसर खुलेंगे। निजी क्षेत्रों का भी विस्तार होगा। ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिलने से आम आदमी की क्रय शक्ति बढ़ेगी। फिर समृद्धि का एक चक्र बनेगा।
वित्त विशेषज्ञों का अनुमान है कि सूखे और बाढ़ से कृषि क्षेत्र में जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई औद्योगिक क्षेत्र में आई उछाल से हो जाएगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ये विश्वास दिलाया है कि मंहगाई का यह दौर समाप्त होने वाला है। जब देश विकास के फर्राटा दौड़ में होगा तो लोगों की जिंदगी में खुशहाली का आना स्वाभाविक है। प्रकाश का विस्तार अपरिहार्य है। जो लोग अपनी न्यूनतम जरूरतें पूरी कर पा रहे हैं उनके पाले में खुछ और लोग भी खड़े दिखाई देंगे, इसमें शक की गुंजाइश नहीं है।
लेकिन यह कहना शायद मुनासिब नहीं होगा कि आम लोगों या मध्यम वर्ग की जिंदगी आसान हो जाएगी। यह एक लंबी प्रकिया है जो अगणित लोगों की बलि लेकर ही पूरी होगी। जिस अनुपात में समाज आर्थिक दृष्टि से संपन्न हो रहा है, सामाजिक दृष्टि से उसका प्रतिष्ठा बढ़ रही है उसी अनुपात में आत्महत्याएं और हत्याएं भी बढ़ रही हैं। कृषि क्षेत्र की विकास दर जहां की तहां है। लघु, सीमान्त और मध्यम वर्ग का किसान नौकरी पेशा लोगों के मुकाबले पीछे छूटता जा रहा है। सरकारी और गैर-सरकारी श्रृण के बोझ तले दबता जा रहा है। दौ़ड़ में लगातार पीछे छूटते जाने के कारण उसके सामने आत्महत्या के सिवा कोई और चारा नहीं बचता।
यह प्रवृत्ति इस लिए बढ़ती जा रही है क्योंकि हम सही मायने में प्रकाश को अपने भीतर नहीं ला पा रहे हैं। उसी में उजाला खोज रहे हैं जो चकाचौंध पैदा करता है। हर कोई चकाचौंध का दीवाना हो गया है, उसी के पीछे भाग रहा है, जहां चकाचौंध नहीं है उसकी अनदेखी की जा रही है। उसे अंधेरा पक्ष मान कर त्याग दे रहे हैं।
जिनके झोपड़ों में ज्योतिपर्व ठहरता नहीं उनकी आबादी एक तिहाई है। समाज के साभ्रांत लोग ज्योतिपर्व की शास्त्रीय विवेचना तक सिमटे रहते हैं और स्वयं को ही उसका वास्तविक हकदार मानते हैं। वे समझने को तैयार नहीं की अपराजेय और सामूहिक उर्जा तभी उपलब्ध होगी जब हर व्यक्ति को हिस्सेदारी के अवसर उपलब्ध होंगे और उसे महसूस होगा कि जो कुछ भी घटता है घट रहा होता है या घट चुका होता है उसमें कहीं न कहीं उसकी मौजूदगी भी रही।
लोग उपेक्षित भले हुए हों निराश नहीं हुए हैं। उनकी आशा की ज्योति अभी भी जल रही है, टिमटिमा रही है। वे हर वर्ष अपनी झोपड़ी में एक दिया अवश्य प्रज्वलित करते हैं इस बात की परवाह किए बिना की उनका जीवन कितनी देर का है। क्षण भर का, घड़ी दो घड़ी का या अगले साल ज्योतिपर्व आने तक के लिए। यह ज्योतिपर्व बहुतों के भीतर उनकी आत्मा में एक दीप जला जाता है। जिसके प्रकाश के सहारे वे अपने जीवन का हर लम्हा आगे सरकाते जाते हैं। ज्योतिपर्व हिंदू धर्म, हिंदू जीवन-दर्शन और जीवन शैली का अनिवार्य उपक्रम है और सिर्फ इसी धर्म में है।
ये एक कभी न खत्म होने वाला सिलसिला है। अनंत काल तक चलने वाला सिलसिला। कभी न बुझने वाला प्रकाश पुंज। प्रकाश का दीप, आशा का दीप, आंकाक्षा का दीप तब तक जलता रहेगा जब तक मनुष्य के भीतर का अंधेरा छंट नहीं जाता और भीतर की ज्योति बाहर की ज्योति एक दूसरे में विलीन होकर एक ऐसा प्रकाश पुंज नहीं बन जाती जिसके आलोक में हर व्यक्ति खुशहाली की चरम स्थिति न पा ले।
ये ज्योति हमें भारतीय मूल्यों से साक्षात्कार कराती है और उसके साथ जीने को प्रेरित करती है। ज्योतिपर्व की सार्थकता इसी में है कि हम इस प्रेरणा को ग्रहण करें और आगे बढ़े।
1 टिप्पणी:
यह दीप पर्व निश्चित ही असीम आशाएं और हर्ष लाता है, आपका आलेख महत्वपूर्ण लगा.....दीवाली की अनगिन शुभकामनायें...
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