काशी डॉ. विश्वनाथ प्रसाद इतनी जल्दी लौकिक जीवन त्याग कर पारलौकिक जगत में आसन जमा लेंगे, ऐसी आशंका किसी को नहीं थी। पता नहीं कब और कैसै कैंसर के विषाणु उनके मस्तिष्क में घुसे, उसका एहसास उन्हें भी नहीं हो पाया। न कभी सिर में दर्द हुआ, न कभी सिर बोझिल हुआ और न कभी चक्कर आया। कैंसर फैलता रहा और डॉक्टर साहब अपना रोजमर्रा का काम- अध्ययन, चिंतन, लेखन सुचारू रुप से करते रहे। लेकिन तब थोड़ा असहज हुए, डॉक्टर के पास गए तब कैंसर जानलेवा बन चुका था। डॉक्टरों ने भी अपने आपको बिल्कुल असमर्थ पाया। एक ही रास्ता शेष रह गया था- सिर्फ मौत का। डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद इस रास्ते पर आगे बढ़ते चले गए.. बढ़ते चले गए और अंतत: अदृश्य हो गए। पता नहीं अपने भीतर के विराट और अछोर संसार को कभी नापने की कोशिश कभी कभी की थी या नहीं, लेकिन जो लोग उनके समीप गए थे और उनके संसार में झांका था उन्हें वो रह कहीं सहजता, सरलता, मधुरता, सौम्यता और मिलनसारिता का अक्षय भंडार देखने को मिलता था। जिसके अंदर जितनी क्षमता थी वह उतना बीन बटोर लेता था। डॉक्टर साहब की तरफ से सभी को खुली छूट थी। स्वतंत्र लेखन और स्वतंत्र चिंतन की बनास की अतुलनीय परंपरा की अंतिम कड़ी थी डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद।
गहन अध्ययन का ओज, निर्भय अभिव्यक्ति का अखंड प्रवाह और विमत को भी तार-तार देने के अद्भुत क्षमता से लैस डॉक्टर साहब जिस मंच या गोष्ठी में होते उसमें उपस्थित श्रोता कभी खाली हाथ नहीं लौटते। उन्हें बेबाक औऱ गंभीर विचार-श्रृंखला का कोई न कोई छोर मिलता जिसे वे अपनने दिल –दिमाग में संजोकर कर रख लेते। चाहरे सहमत होते या असहमत। असहमति के बिंदु भई उनके अपने विचारों को धार देने के काम तो आते ही। उससे एक नया विचार गढ़ लेते थे। इसीलिए असहमति उन्हें सहज स्वीकार थी।
वे शिविरवादी नहीं थे। उनकी अपनी कोई मंडली नहीं थी। किसी मंडली में शामिल होने उन्हें स्वीकार नहीं था। वे साहित्य के आकाश में स्वछंद विचरण करते रहे। उनके स्वच्छंद विचरण का असीम फलक ललित निबंधों में देखा जा सकता है। जो लालित्य उनके व्यक्तित्व में था, उसे उनके निबंधों में देखा जा सकता है। हर सतरें इसकी गवाही देती हुई दिखाई देती हैं। उन्होंने जो कुछ लिखा, जो कुछ सोचा, जो उनकी कल्पनाशक्ति के दायरे में समा पाया, वह अतुलनीय बन गया। बिल्कुल अलग, बिल्कुल परे और बिल्कुल सीमारेखा से बाहर।
उनका उपन्यास ‘बीच की रेत’ पढ़ने के बाद कोई भी पाठक इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है। इस उपन्यास में आंचलिकता की पराकाष्ठा है। एक परिवार की कथा देश के हजारों परिवारों की कथा बन गई है। ऐसे कथानक का ताना-बाना बुनना डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद जैसे कुशल शिल्पी के बस का था। वे एक मजे हुए कारीगर की तरह बीच-बीच में आकर्षक बूटियां उभारते चलते थे। यह उनका अपना शिल्प है, उनकी अपनी कला है। इसकी नकल नहीं की जा सकती है। इस तरह का शिल्प वही गढ़ सकता है जिसे उस परिवेश की यथार्थ अनुभूति हुई होगी। जिसमें उपन्यास के पात्र जीते हैं, जिन मुहावरों को वे अपने जीवन की भाषा बनाते हैं। डॉ. प्रसाद ने अपना वाद्य खुद तैयार किया और उसपर मनचाहे स्वर निकाले। उन्होंने उस जमात में शामिल होने से इनकार कर दिया जो ‘भैरवी’ के समय भी झपताल बजाते रहते हैं।
उनके भीतर जिजीविषा इस कदर समाई हुई थी अपनी कविताओं में मृत्यु को चुनौती देते हुए दिखाई देते हैं। तब उन्हें शायद इस बात का एहसास रहा हो कि मृत्यु उनकी चुनौती इतनी जल्दी स्वीकार कर लेगी और उनपर जीत हासिल कर लेगी। याद नहीं आता कि वे कभी बीमार पड़े थे। साइकिल से चलते थे। रोज एक घंटे पैदल टहलते थे। भोजन बहुत संयमित था। आलू सालों से छोड़ रखा था। इसलिए लंबे जीवन के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त थे। भविष्य के लेखन को लेकर ढेर सारी योजनाएं बना रखा थी। ग्राम्य जीवन पर उपन्यास और कहानियां लिखना चाहते थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- ‘गांव मुझे बुला रहा है।’ लेकिन उनके कदम गांव की तरफ बढ़ते इससे पहले ही, वे कहीं और चले गए। एकदम नजरों से अझोल। लेकिन न जाने कितनी स्मृतियों में जीवित रहेंगे। अमर रहेंगे। उस महान विभूति को हमारी श्रद्धांजलि।
सोमवार, 5 अक्तूबर 2009
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