गुरुवार, 11 जून 2009

मुलायम- आरएसएस के एजेंट!

मुलायम सिंह यादव के पचीस वर्षों के साथी आजम खां अंतत: समाजवादी पार्टी से निष्कासित कर दिए गए। यह प्रत्याशित था। यदि ऐसा न होता तो जरूर आश्चर्र्यजनक होता। कल्याण-मुलायम कि दोस्ती के बाद से ही आजम खां ने बागी तेवर अपना लिए था। वे लोकसभा चुनाव में पार्टी के प्रचार के लिए घर से नहीं निकले। अपने गृह नगर रामपुर में भी पार्टी प्रत्याशी जयाप्रदा का उग्र विरोध किया। उनके खिलाफ प्रचार भी किया। मुलायम सिंह ने उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की लेकिन वो टस से मस नहीं हुए। चुनाव के बाद उन्होंने पार्टी के महासचिव पद और संसदीय बोर्ड की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। बिना देर किए हुए उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। उन्होंने पार्टी की बैठक में जाना भी बंद कर दिया। हाल में उन्होंने केंद्र सरकार को पत्र लिख कर जयाप्रदा द्वारा चुनावों में अरबों रुपए खर्च किए जाने की जांच सीबीआई से कराने की मांग की है।

कहा जा सकता है कि एक तरह से आजम खां ने मानसिक रुप से इस स्थिति का सामना करने की तैय़ारी कर ली थी। दरअसल कल्याण सिंह से मुलायम की दोस्ती ने तो सिर्फ आग में घी डालने का काम किया है आजम खां के पीड़ा की शुरुआत तो तभी से हो गई थी जब से पार्टी पर अमर सिंह का दबदबा कायम हुआ और आजम खां की उपेक्षा की जाने लगी। अमर सिंह और आजम के बीच शब्द बाणों की वर्षा शुरू हो गई। बात यहां तक पहुंच गई कि अमर सिंह ने धमकी तक दे डाली की पार्टी में या तो वो रहेंगे या आजम खां। आजम खां जानते थे कि इस लड़ाई में उनकी पराजय तय है लेकिन मैदान छोड़कर जाना उन्हें पसंद नहीं था भले ही लड़ते-लड़ते वो जंग हार जाएं। और वो अपने पुराने साथी मुलायम सिंह से पराजित होना चाहते थे क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति को अपने जिगरी दोस्त से लड़ते-लड़ते हारने में एक अलग तरह का सुख मिलता है। हमें उम्मीद है कि आजम सपा से अपने निष्कासन के बाद काफी सुकून महसूस कर रहे होंगे। क्योंकि अब वो अमर सिंह से खुल कर दो-दो हाथ कर सकते हैं जिंन्होंने न केवल पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम कर रखा है वरन मुलायम सिंह को भी अपने चंगुल में जकड़ रखा है।

ये सिलसिला तभी से शुरू हुआ जब से अपर सिंह का पार्टी में पदार्पण हुआ। अमर सिंह ने मुलायम पर इतनी मजबूत पकड़ बना ली कि बेनी प्रसाद वर्मा जैसे मुलायम के सबसे नजदीकी सीथी को भी उनका साथ छोड़ना पड़ा। इसके बाद राजबब्बर भी पार्टी छोड़ गए। मायावती के शासन के पहले जब उत्तर प्रदेश पर मुलायम सिंह राज कर रहे थे तो यह लगता था कि वो तो सिर्फ डमी हैं असली शासन अमर सिंह का ही चल रहा है। सपा के जो 40 विधायक खरीदे गए थे उसमें असली भूमिका अमर सिंह की ही थी। पार्टी और सरकार में एक बार भले ही मुलायम सिंह की बात अनसुनी कर दी जाए मगर अमर सिंह की बात या आदेश का पालन होना ही था। नौकरशाही मुलायम सिंह से ज्यादा अमर सिंह की वफादार थी।

राजनीतिक क्षेत्र में अमर सिंह के सामने मुलायम की विवशता पर हो रही चर्चाओं पर यकीन करें तो इसका सबसे बड़ा कारण है वित्तीय जुगाड़। अनिल अंबानी से अमर सिंह की दांत काटी रोटी की दोस्ती जगजाहिर है। यह दोस्ती इस हद तक है कि अंबानी बंधुओं में बंटवारा हुआ तो मीडिया जगत में चर्चा थी कि ये बंटवारा अमर सिंह ने ही कराया है। ताकि अनिल अंबानी पूरी तरह से उनके चंगुल में आ जाएं। क्योंकि मुकेश के रहते अनिल की चल नहीं पा रही थी। और कारण चाहे जो भी हों लेकिन अमर सिंह पर मुलायम की निर्भरता का सबसे बड़ा कारण यही है कि मुलायम सिंह कभी वित्तीय संकट में नहीं आ पाते।

यदि रामपुर के चुनावों में सपा द्वारा अरबों रुपए खर्च किए जाने का आजम का आरोप सही है तो इतने पैसे का जुगाड़ करना सिर्प अमर सिंह के बूते की बात है। अमर सिंह की सपा की उपलब्धियों पर नजर डालें तो उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार बनवाने के अलावा उनकी और कोई उपलब्धि नहीं है जिसे याद रखा जाए। उत्तर प्रदेश में सपा की सरकार बनवाने में भी अमर सिंह की राजनातिक कूटनीति कम भाजपा के शिखर नेतृत्व खासकर अटल बिहारी बाजपेई की राजनीतिक चूक का ज्यादा हाथ था। उनकी जगह कोई चतुर राजनीतिज्ञ होता तो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन या केंद्रीय शासन के तहत लोकसभा का चुनाव करान बेहतर समझता। मुलायम सिह सरकार के तहत हुए चुनावों में भाजपा इतनी बुरी तरह राजित हुई की उसे मात्र 9 सीटों से ही संतोष करना पड़ा।

जहां तक केंद्र में यूपीए सरकार से सपा के संबन्धों का सवाल है तो 2004 से लेकर आज तक अमर सिंह को सिर्फ मुंह की खानी पड़ी है। पिछली सरकार में भी सपा को कोई खास तवज्जो नहीं दिया गया था और इस सरकार ने भी कोई तवज्जो नहीं दिया। पहले भी सपा बिना शर्त समर्त का राग बार-बार अलापती रही लेकिन यूपीए या कांग्रेस के नेताओं ने उनके समर्थन की कोई परवाह नहीं की। इस बार भी अमर सिंह ने यूपीए सरकार को बिना समर्थन का पत्र राष्ट्रपति को दे दिया लेकिन कांग्रेस ने सपा की बजाय बसपा से समर्थन लेना उचित समझा। सपा के लिए इससे बड़ा अपमान जनक आघात और क्या हो सकता है। अब अमर सिंह उस दिन की तरफ टकटकी लगाए हुए हैं जब बिल्ली के भाग से छींका टूटेगा।

सोनिया गांधी वो दिन भूली नहीं है जब मुलायम सिंह के कारण वह प्रधानमंत्री नहीं बन पाई थीं और लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उन्हें विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा था। इस बार के चुनाव में सपा ने 3 को छोड़कर लगभग सारी सीटों पर प्रत्याशी खड़ा कर कांग्रेस का जो अपमान किया है उसने कोढ़ में खाझ का काम किया है। सोनिया गांधी इस झटके को भी याद रखेंगी और जब भी मौका मिलेगा सपा को सबक देती रहेंगी।

इस बीच आजम खां ने एक बार फिर अपने पुराने दोस्त मुलायम पर निशाना साधा है। आजम का कहना है कि मुलायम आरएसएस के एजेंट हैं। और कल्याण और मुलायम दोनों जानते थे कि मस्जिद गिरने वाली है। आजम के इस नए वार से सपा मुखिया जरूर तिलमिलाए होंगे ऐसे में आजम का सपा में पुनर्रागमन असंभव दिखने लगा है।

सोमवार, 1 जून 2009

राह के कांटे

मनमोहन सिंह की सरकार ने कामकाज करना शुरू कर दिया है। जवाहरलाल नेहरू के बाद डॉक्टर मनमोहन सिंह लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले पहले राजनेता हैं और किसी गठबंधन सरकार के लिए दुबारा सत्तारुढ़ होना भी पहली बार हुआ है। वामपंथी दल इस बार सरकार में नहीं हैं, इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि देश में आर्थिक सुधारों की गति बढ़ेगी। रास्ते का प्रमुख अवरोध हट गया है लेकिन सरकार के पास चुनौतियां कम नहीं है। आर्थिक सुधार का पश्चिमी मॉडल लागू करते समय सरकार को देश की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना पड़ेगा।

किसान
यदि सेज के लिए बिना सोचे-समझे अनुमित दी गई तो इससे लाखों किसान परिवार उजड़ेंगे, बेरोजगार होंगे और दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए मजबूर होंगे। आर्थिक सुधारों के बावजूद यूपीए सरकार के पिछले कार्यकाल में तमाम किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी थी। क्योंकि वे उन्नत खेती के लोभ में कर्ज के जाल में इस बुरी तरह फंस गए थे कि उनके सामने आत्महत्या के सिवा कोई चारा नहीं रह गया था। असम के किसानों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इस आश्वासन पर कि जो भी टमाटर किसान पैदा करेंगे, उसे वह खरीद लेगी, किसानों ने टमाटर के महंगे बीच लेकर बोए जब जब खेतों में टमाटर तैयार हुआ तो कंपनियों ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया। किसान भींगी आखों से टमाटरों का सड़ना देखते रहें। कईयों ने आत्महत्या कर ली। वे इस खौफनाक सदमें को बर्दाश्त नहीं कर सके। दूसरी समस्या उनके सामने कर्ज चुकाने की थी। इसिलिए डॉक्टर मनमोहन सिंह को खास तौर पर किसानों के बारे में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू करते समय अमेरिका और भारत के फर्क को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि अमेरिका के किसान बड़े खेतिहर हैं जबकि भारत के किसान लघु और सीमांत खेतिहर हैं।

रोजगार

दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है वैश्विक आर्थिक मंदी जिसे स्वयं प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च प्राथमिकता दी है वैसे इसका सबसे ज्यादा असर अमेरिका जैसे विकसित देश में हैं लेकिन भारत जैसा विकासशील देश भी इससे अछूता नहीं है। अभी तक कोई उद्योग बंद तो नहीं हुआ है। लेकिन हजारों लाखों कर्मचारियों की छंटनी कर दी गई है। रोजगार के अवसर लगभग बंद हो गए हैं। इससे देश में बेरोजगारी बढ़ रही है। शिक्षित युवकों का उत्साह फीका पड़ता जा रहा है।

महंगाई

आर्थिक मंदी के साथ महंगाई भी बढ़ रही है। खाने-पीने और रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों के मूल्य इस कदर बढ़ते जा रहे हैं कि आम आदमी का जीवन मुश्किलों से घिरता जा रहा है। उपर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की कोशिशें की जा रही हैं। पेट्रोल कंपनियों ने यदि अधिक मुनाफा लेने के चक्कर में कीमतें बढ़ाई तो उपभोक्ता वस्तुओं में कीमतों में इजाफा तय है। इसका गंभीर असर गरीब आदमी के निवाले पर पड़ेगा।

बिजली

सबसे विकट समस्या बिजली की है जिसने खासतौर पर शहरी जीवन को नर्क बना दिया है। वामदलों से पीछा छुड़ाने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि अमेरका से परमाणु करार की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ेगी और देश परमाणु बिजली घर में यथाशीघ्र आत्मनिर्भर बनेगा। इससे बिजली की समस्या से निजात मिलेगी और लोग सुकून की जिंदगी जी सकेंगे।


काला धन

विदेशी बैंको में जमा धन स्वेदश लाना भी सरकार के समझ कड़ी चुनौती है। इस दिशा में पिछली सरकार ने जो भी प्रयास किए हैं उन्हें जाहिर नहीं किया गया है। इस दिशा में शुरु की गई प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है। ताकि देश के लोग भी वास्तविकता से अवगत हो सकें।


गरीब तक गेहूं और चावल

कांग्रेस ने गरीबों को तीन रुपए किलो के भाव पर हर माह 25 किलो गेहूं और चावल देने का वादा किया है। इसमें कोई नई बात नहीं है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वालों को पहले से ही सस्ते अनाज मिल रहे हैं। इस मामले में असल चुनौती यह है कि गरीबों तक सस्ता अनाज पहुंचे कैसे? मौजूदा हालात यह है कि गरीबों का अनाज धड़ल्ले से चोर बाजारी में बिक रहा है और कोटेदार से लेकर आला अफसर तथा मंत्री की तिजोरियां भर रही हैं। वास्तव में यह योजना सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। हजारों क्विंटल अनाज तो सीधे एफसीआई के गोदामों से बाजार पहुंच जा रहा है। इसके अलावा जो कोटेदारों को वितरण के लिए दिया जाता है, वह भी चोरबाजारी में चला जाता है। कोटेदार से लेकर खाद्य और आपूर्ति विभाग के कर्मचारी और अफसर मालामाल हो रहे हैं। गरीब आदमी के हाथ कुछ नहीं आ रहा है। इसलिए सरकार को प्राथमिकता के आधार पर इसकी सख्त मॉनिटरिंग की व्यवस्था करनी होगी अन्यथा इस आकर्षक योजना की विफलता तय है।

बदमिजाज पड़ोसी

पड़ोसी देशों में आतंकवाद और राजनीतिक अस्थिरता का वतावरण तो है ही पाकिस्तान द्वारा परमाणु हथियार का जखीरा बढ़ाने की नई कोशिशों का खुलासा भी भारत के लिए चिंता का विषय़ है। भारतीय कूटनीति इस विषय पर कितनी कारगर होती है यह भविष्य बताएगा।

अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री

बढ़ता वित्तीय घाटा और घटता निर्यात विद्वान अर्थाशास्त्री प्रधानमंत्री के समक्ष एक गंभीर चुनौती है। इसे सुलझाने के साथ ही उन्हें घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों के बारे में ठोस नीति बनानी होगी ताकि जो धन घाटे की भरपाई में खर्च हो रहा है उसे विकास के कार्यों में लगाया जा सके।


नजर रखना

प्रधानमंत्री इन सारी चुनौतियों का मुकाबला किस तरह से करते हैं, इस पर हमें बेहद सतर्क नजर रखनी होगी।