सोमवार, 1 जून 2009

राह के कांटे

मनमोहन सिंह की सरकार ने कामकाज करना शुरू कर दिया है। जवाहरलाल नेहरू के बाद डॉक्टर मनमोहन सिंह लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले पहले राजनेता हैं और किसी गठबंधन सरकार के लिए दुबारा सत्तारुढ़ होना भी पहली बार हुआ है। वामपंथी दल इस बार सरकार में नहीं हैं, इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि देश में आर्थिक सुधारों की गति बढ़ेगी। रास्ते का प्रमुख अवरोध हट गया है लेकिन सरकार के पास चुनौतियां कम नहीं है। आर्थिक सुधार का पश्चिमी मॉडल लागू करते समय सरकार को देश की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखना पड़ेगा।

किसान
यदि सेज के लिए बिना सोचे-समझे अनुमित दी गई तो इससे लाखों किसान परिवार उजड़ेंगे, बेरोजगार होंगे और दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए मजबूर होंगे। आर्थिक सुधारों के बावजूद यूपीए सरकार के पिछले कार्यकाल में तमाम किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी थी। क्योंकि वे उन्नत खेती के लोभ में कर्ज के जाल में इस बुरी तरह फंस गए थे कि उनके सामने आत्महत्या के सिवा कोई चारा नहीं रह गया था। असम के किसानों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इस आश्वासन पर कि जो भी टमाटर किसान पैदा करेंगे, उसे वह खरीद लेगी, किसानों ने टमाटर के महंगे बीच लेकर बोए जब जब खेतों में टमाटर तैयार हुआ तो कंपनियों ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया। किसान भींगी आखों से टमाटरों का सड़ना देखते रहें। कईयों ने आत्महत्या कर ली। वे इस खौफनाक सदमें को बर्दाश्त नहीं कर सके। दूसरी समस्या उनके सामने कर्ज चुकाने की थी। इसिलिए डॉक्टर मनमोहन सिंह को खास तौर पर किसानों के बारे में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू करते समय अमेरिका और भारत के फर्क को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि अमेरिका के किसान बड़े खेतिहर हैं जबकि भारत के किसान लघु और सीमांत खेतिहर हैं।

रोजगार

दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है वैश्विक आर्थिक मंदी जिसे स्वयं प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च प्राथमिकता दी है वैसे इसका सबसे ज्यादा असर अमेरिका जैसे विकसित देश में हैं लेकिन भारत जैसा विकासशील देश भी इससे अछूता नहीं है। अभी तक कोई उद्योग बंद तो नहीं हुआ है। लेकिन हजारों लाखों कर्मचारियों की छंटनी कर दी गई है। रोजगार के अवसर लगभग बंद हो गए हैं। इससे देश में बेरोजगारी बढ़ रही है। शिक्षित युवकों का उत्साह फीका पड़ता जा रहा है।

महंगाई

आर्थिक मंदी के साथ महंगाई भी बढ़ रही है। खाने-पीने और रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों के मूल्य इस कदर बढ़ते जा रहे हैं कि आम आदमी का जीवन मुश्किलों से घिरता जा रहा है। उपर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की कोशिशें की जा रही हैं। पेट्रोल कंपनियों ने यदि अधिक मुनाफा लेने के चक्कर में कीमतें बढ़ाई तो उपभोक्ता वस्तुओं में कीमतों में इजाफा तय है। इसका गंभीर असर गरीब आदमी के निवाले पर पड़ेगा।

बिजली

सबसे विकट समस्या बिजली की है जिसने खासतौर पर शहरी जीवन को नर्क बना दिया है। वामदलों से पीछा छुड़ाने के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि अमेरका से परमाणु करार की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ेगी और देश परमाणु बिजली घर में यथाशीघ्र आत्मनिर्भर बनेगा। इससे बिजली की समस्या से निजात मिलेगी और लोग सुकून की जिंदगी जी सकेंगे।


काला धन

विदेशी बैंको में जमा धन स्वेदश लाना भी सरकार के समझ कड़ी चुनौती है। इस दिशा में पिछली सरकार ने जो भी प्रयास किए हैं उन्हें जाहिर नहीं किया गया है। इस दिशा में शुरु की गई प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है। ताकि देश के लोग भी वास्तविकता से अवगत हो सकें।


गरीब तक गेहूं और चावल

कांग्रेस ने गरीबों को तीन रुपए किलो के भाव पर हर माह 25 किलो गेहूं और चावल देने का वादा किया है। इसमें कोई नई बात नहीं है। गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वालों को पहले से ही सस्ते अनाज मिल रहे हैं। इस मामले में असल चुनौती यह है कि गरीबों तक सस्ता अनाज पहुंचे कैसे? मौजूदा हालात यह है कि गरीबों का अनाज धड़ल्ले से चोर बाजारी में बिक रहा है और कोटेदार से लेकर आला अफसर तथा मंत्री की तिजोरियां भर रही हैं। वास्तव में यह योजना सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है। हजारों क्विंटल अनाज तो सीधे एफसीआई के गोदामों से बाजार पहुंच जा रहा है। इसके अलावा जो कोटेदारों को वितरण के लिए दिया जाता है, वह भी चोरबाजारी में चला जाता है। कोटेदार से लेकर खाद्य और आपूर्ति विभाग के कर्मचारी और अफसर मालामाल हो रहे हैं। गरीब आदमी के हाथ कुछ नहीं आ रहा है। इसलिए सरकार को प्राथमिकता के आधार पर इसकी सख्त मॉनिटरिंग की व्यवस्था करनी होगी अन्यथा इस आकर्षक योजना की विफलता तय है।

बदमिजाज पड़ोसी

पड़ोसी देशों में आतंकवाद और राजनीतिक अस्थिरता का वतावरण तो है ही पाकिस्तान द्वारा परमाणु हथियार का जखीरा बढ़ाने की नई कोशिशों का खुलासा भी भारत के लिए चिंता का विषय़ है। भारतीय कूटनीति इस विषय पर कितनी कारगर होती है यह भविष्य बताएगा।

अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री

बढ़ता वित्तीय घाटा और घटता निर्यात विद्वान अर्थाशास्त्री प्रधानमंत्री के समक्ष एक गंभीर चुनौती है। इसे सुलझाने के साथ ही उन्हें घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों के बारे में ठोस नीति बनानी होगी ताकि जो धन घाटे की भरपाई में खर्च हो रहा है उसे विकास के कार्यों में लगाया जा सके।


नजर रखना

प्रधानमंत्री इन सारी चुनौतियों का मुकाबला किस तरह से करते हैं, इस पर हमें बेहद सतर्क नजर रखनी होगी।

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