सोमवार, 25 मई 2009

कलंक से बच गई काशी

पाप नाशनी, मोक्षदायनी, अमृतजलधारा वाली गंगा चाहे जितनी प्रदूषित हो गई हो लेकिन देश के आम लोगों के लिए आज भी उनका वही स्वरुप है, जो पहले कभी रहा होगा। टिहरी में कैद होने से पहले या तमाम तटवर्ती कचरे और मल को आत्मसात करने से पहले। इसी गंगा के पावन तट पर बसा है काशी। देवाधिदेव भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिकी काशी। देश की धार्मिक और सांस्कृतिक राजधानी। जहां का कंकड़ भी शंकर हैं। यह वही काशी है जहां एक चाण्डाल ने आदि शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया था। वैष्णव धर्माचार्य रामानंद ने कबीर को ‘कबीर’ बना दिया था। जिसके बारे में एक कवि ने कहा था ‘खाक भी जिसका पारस है, वही बनारस है’।

काशी ने विश्व को एक विशिष्ट संस्कृति दी है। पहचान दी है। यहां की रईसी मशहूर है तो गुंडई भी मशहूर है। गायकी मशहूर है तो मस्ती और अक्खड़पन भी मशहूर है। काशी की संस्कृति को संवारने में कई विभूतियों ने अपना पूरा जीवन साधना को समर्पित कर दिया। काशी धनाढ्यों को प्रश्रय देती है तो विधवाओं को मोक्ष के लिए आश्रय देती है। कहते हैं काशी में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता है। ‘चना-चबैना-गंगाजल’ यहां हमेशा मौजूद रहता है। यतीम लोगों की क्षुधा शांत करने के लिए।

लोकसभा में या दुनिया के किसी कोने में जो व्यक्ति काशी का प्रतिनिधित्व करता है वह काशी से धन्य हो जाता है। काशी उससे धन्य नहीं होती। काशी उदात्त मूल्यों के साथ जी रही है। काशी का स्वरुप भले बदल गया हो, बदलता जाए लेकिन उसके बुनियादी मूल्य कभी नहीं बदलेंगे ऐसा विश्वास यहां के लोगों में कूट-कूट कर भरा हुआ है। इतिहास गवाह है कि देश की सर्वोच्च संस्था लोकसभा में काशी ने कभी किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं भेजा है जो काशी की गरिमा के अनुरुप न हो। उसी व्यक्ति ने काशी का प्रतिनिधित्व किया है जिसने अपने भीतर काशी के मूल्यों को समाहित कर लिया है। जो काशी के मूल्यों के साथ जीता रहा है। रहने वाला कहीं का हो, पैदा कहीं हुआ हो लेकिन काशी की संस्कृति का कोई न कोई तत्व उसके भीतर मौजूद अवश्य हो।

पंद्रहंवी लोकसभा में काशी का प्रतिनिधित्व करने वाले डॉ. मुरली मनोहर जोशी उसी परंपरा की एक कड़ी हैं जिसमें पं. कमालपति त्रिपाठी, डॉक्टर रघुनाथ सिंह जैसे लोग थे। यदि वैज्ञानिक सिर्फ वैज्ञानिक, भौतिकवादी हो, वस्तुवादी हो तो कोई विशेष बात नहीं है। लेकिन वह वैज्ञानिक होने के साथ ही यदि धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, आस्थावान हो और देश की मिट्टी की तासीर को पहचानता हो, अपनी परंपरा और गौरवमय अतीत की उपलब्धियों पर गर्व महसूस करता हो तो निश्चित रुप से वह विशिष्ठ है।

विज्ञान तो हमारे धर्म में भी है। हमारे जीवन दर्शन में भी है और हमारे संस्कृति में भी है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यही है। हमारी संस्कृति विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसी गई और खरी उतरी है। हमारा अध्यात्म विज्ञान भी है और दर्शन भी। तभी तो गुरु रवींद्रनाथ टैगोर से लंबी बहस के बाद आइंस्टीन ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार की थी।

डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी पर्वतीय हैं। देवभूमि के हैं। वे इलाहबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर रहे। यह उनका पेशा था लेकिन भीतर से आध्यात्मिक रहे। उन्होंने विज्ञान को अपनी भौतिकता पर कभी हावी नहीं होने दिया। इसके विपरीत उनके विज्ञान पर उनकी आध्यात्मिकता हमेशा हावी रही। डॉ. जोशी भले ही काशी के नहीं रहे हों लेकिन काशीमय हैं। काशी का बीजतत्व उनके भीतर अंकुरित है। वह सच्चे अर्थों में काशीवासियों के नीर-क्षीर-विवेक शक्ति के सच्चे प्रतिमान हैं। काशी ने एक ऐसे व्यक्ति को नकारा है जिसने यहां की धरती को इंसानों के खून से लाल किया था। क्या मुख्तार अंसारी कहीं से भी काशी का प्रतिनिधित्व करने लायक था? सत्ता का घिनौना खेल खेलने वाले भले ही उसे क्लीन चिट दे दें। लेकिन काशीवासियों का अपना विवेक तो जागृत है ही। उसे कुहासे की परतों से ढका नहीं जा सकता।

भली सभा में मायावती ने मुख्तार को भलेमानुस का सर्टिफिकेट दिया। उसे मसीहा बना दिया। ये काशीवासियों की मेधा का अपमान था। काशीवासियों की निजता को चुनौती थी। काशी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। और अपनी परंपरा का निर्वाह किया। अपनी अस्मिता की रक्षा की। काशी के लिए यह चुनाव साधारण चुनाव नहीं था। उसे सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुजरना था। काशी इस अग्निपरीक्षा में सफल हुई। उसने मौजूदा प्रत्याशियों में से सर्वश्रेष्ठ को चुना और यही काशी की गरिमा और गौरवशाली परंपरा के अनुकूल भी था। भगवान शंकर की कृपा से काशी एक बहुत बड़े कलंक से बच गई।

इसे हम काशी की महिमा का असर मान सकते हैं। दुनिया के लोग काशी के यदि इस माफिया राष्ट्रीय प्रतिनिधि (जो खुशकिस्मती से नहीं चुना गया) के बारे में जानते तो पूरी काशी उनके सामने सिर झुकाए कठघरे में खड़ी होती। क्या यही है काशी के ज्ञान के चर्मोत्कर्ष का परिणाम? सर्वविद्या की यह राजधानी कैसे लकवाग्रस्त हो गई? इन सवालों से साफ बचनिकलने का श्रेय हम चाहें काशी की आत्याध्मिक चेतने को दें या किसी दैवी शक्ति को या काशी की परंपरा को या अन्य किसी को लेकिन यह बात तो निर्विवाद है कि कासी ने अपने आपको कलंकित होने से बचा लिया।

अब डॉ. जोशी का कर्तव्य है कि काशी ने उनमें जो आस्था व्यक्ति किया है, उसकी रक्षा करने में, उस पर खरा उतरने में, वह अपनी समूची शक्ति और समूची प्रतिभा झोंके दे। अब जोशी काशी के हैं, काशी उनकी है, काशीवासियों की शुभकामनाएं उनके साथ हैं।

2 टिप्‍पणियां:

त्यागी ने कहा…

bahut badia.
it will be good motivation for Joshi ji.
you have proved to write this writup that you have also a substance of kashi.
jai kashi.
jai baba vishvnath

Batangad ने कहा…

काशी कलंक से बच गई बड़ा अच्छा है लेकिन, प्रयाग को जोशी छोड़ चले बड़ी बुरी बात।