शनिवार, 23 मई 2009

एक कदम आगे तो दो कदम पीछे क्यों चलती है भाजपा

पंद्रहवी लोकसभा का चुनाव जितना यूपीए के लिए अप्रत्याशित रहा उससे ज्यादा राजग के लिए यूपीए सत्तानशीं हो गई जबकि राजग उससे मीलों पीछे नजर आई। राजग को उतनी सीटें भी नहीं मिली जितनी कांग्रेस को अकेले मिलीं है। मैंने पहले भी कई बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पतन की भविष्यवाणी की है। लेकिन अब मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस पार्टी ने पतन की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।

भाजपा में फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है जिसमें चुंबकीय आकर्षण हो। कोई ऐसा थिंक टैंक नहीं है जो चुनावों के लिए प्रभावशाली मुद्दे की तलाश कर सके। कोई युवा चेहरा नहीं है जो देश के युवाओं का रुख पार्टी की ओर मोड़ सके। कोई महिला नेता नहीं है जो महिलाओं को पार्टी की तरफ ला सके। कोई ओजस्वी वक्ता नहीं है जो भीड़ को सम्मोहित कर सके। पार्टी के नेता स्वार्थ केंद्रित राजनीति में बुरी तरह लिप्त हैं। जैसे सामंती जमाने में किसी राजा के सरकार और दरबारी उसके निकम्मेपन का फायदा उठाकर निजी लाभ उठाने में इस कदर मशगूल हो जाते थे कि उन्हें दुश्मन के चढ़ आने की आहट भी नहीं लगती थी।

ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास नेताओं का एकदम अकाल हो गया है। पहले भी नहीं था। लेकिन पता नहीं क्यों पार्टी का शीर्ष नेतृत्व व्यक्ति केंद्रित राजनीति में इस कदर उलझ जाता है कि उसे पैरों तले की जमीन भी नहीं देती। उनके निर्णय कभी कभी इतने अटपटे होते हैं, रणनीति इतनी बेजान होती है कि उनकी सोच पर तरस आता है। पता नहीं क्यों पार्टी नया नेतृत्व उभरने ही नहीं देती। यदि किसी में आगे बढ़ने की प्रतिभा होती है तो उसे कुचल दिया जाता है।


वरुण गांधी जैसे आकर्षक व्यक्तित्व के युवा नेता को बहुत दिनों तक कोल्ड स्टोरेज में बंद रखा गया और जब मंच या अवसर दिया गया तो विषवमन का पाठ रटाने के बाद। पीलीभीत में उसने जो कुछ कहा वह देश की जनता को अच्छा नहीं लगा। सराहा तो सिर्फ बाल ठाकरे और संघ के कट्टरवादी तथा सांप्रदायिक नेताओं ने। जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने राजनीतिक लाभ के लिए वरुण पर रासुका लगया तो भाजपा नेताओं ने सोचा की कम से कम उत्तर प्रदेश में इसका लाभ उसे मिलेगा। लेकिन भाजपा और संघ के नेताओं को पता नहीं कब इसका एहसास होगा कि देश की ज्यादातर जनता, सांप्रदायिकता पसंद नहीं करती है। इसलिए वरुण प्रकरण का लाभ न तो भाजपा को मिल पाया, न बसपा को। बसपा को इसलिए नहीं मिला क्योंकि ज्यादातर लोगों को लगा कि मायावती इस युवा वरुण के साथ ज्य़ादती कर रही है।

भाजपा और संघ के नेताओं ने उमा भारती का सार्थक उपयोग करने की बजाय उन्हें एक कोने में ढकेलकर निष्क्रिय कर दिया। कल्याण सिंह जैसे पुराने और निष्ठावान नेता की मामूली बात भी अनसुनी कर दी। और उन्हें पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। बुलंदशहर से उस व्यक्ति को भाजपा ने टिकट दिया जिसने डिबाई विधानसभा क्षेत्र से कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह को पराजित करने में मुख्य भूमिका निभाई थी। कल्याण सिंह नहीं चाहते थे कि बुलंदशहर संसदीय सीट से उसे टिकट दिया जाए क्योंकि यह क्षेत्र उनके प्रभाव में था। लेकिन भाजपा ने उसी अशोक प्रधान को बुलंदशहर से सीट दे दिया और वह चुनाव हार गए। इससे क्षुब्ध होकर कल्याण ने सपा से दोस्ती कर ली यह अलग बात है कि इस दोस्ती का परिणाम सपा के लिए अच्छा नहीं रहा। सपा के सभी मुस्लिम मत कांग्रेस की ओर मुड़ गए और कांग्रेस को शानदार सफलता मिली एकदम चौंकाने वाली।

ले देकर भाजपा के पास एक महिला नेता हैं सुषमा स्वराज। उनका इस्तेमाल तब किया जाता है जब जरुरत पड़ती है। वह ऐसे आलू की तरह हैं जिसे किसी भी सब्जी में फिट किया जा सकता है। सुषमा के पास ऐसा व्यक्तित्व है जो महिलाओं को अपनी ओर आसानी से खींच लाए लेकिन भाजपा महिला नेता के रुप में उनका इस्तेमाल करने में पता नहीं क्यों झिझकती है।

अयोध्या विवाद के बाद भाजपा नेताओं ने क्या कभी ऐसा कार्यक्रम चलाया जो उन्हें आम जनता से जोड़ सके? मंदिर मुद्दे पर जो कार्यक्रम चलाए भी गए वह विश्व हिंदू परिषद ने चलाए थे। भाजपा ने नहीं। अयोध्या में मारे गए लोग विहिप के कार्यकर्ता रहे भाजपा के नहीं। भाजपा नेताओं ने तो सिर्फ मंदिर आंदोलन की मलाई खाई। भाजपा नेता सत्ता सुख के इतने आदी हो गए हैं कि उन्हें सिर्फ आरामतलबी पसंद हैं। वे अब भी आशा रखते हैं कि संघ के आनुषंगिक हिंदू संगठन उन्हें सत्ता तक पहुंचा देंगे और उन्हें बैठे बिठाए सत्ता का लाभ मिलने लगेगा सत्ता की चाह ने भाजपा नेताओं को आंतरिक द्द्व और कलह में बुरी तरह उलझा दिया है। इस उलझाव ने उनके दिमाग को कुंद कर दिया है और आखों पर पट्टी बांध दिया है। वो कुछ सोचने और देखने में असमर्थ हो गए हैं। उस नेतृत्व का हम क्या करे जो समय की इबारत पढ़ने और जलभावनाओं को समझने में असमर्थ रह जाता है।

राहुल गांधी पिछले दो तीन वर्षों से देश में घूम रहे हैं। गरीब लोगों के झोपड़ों में रातें बिताते हैं। उनके साथ रुखा सूखा भोजन करते हैं। उनके दुख दर्द को समझते हैंय़ उनकी हमदर्दी और सहानुभूति प्राप्त करते हैं। सोनिया गांधी भी देश के विभिन्न भागों में जाती रहती है। स्थानीय लोगों से मिलती रहती हैं उनकी समस्याएं गौर से सुनती हैं आम लोगों का दिल जीत लेती हैं। देश में युवकों की संख्या बुजुर्ग मतदाताओं से कम नहीं है। महिलाएं भी खासी संख्या में हैं। क्या इस वर्ग को आकर्षित करने के लिए भाजपा की ओर से किसी को लगाया गया? सुषमा स्वराज, मेनका गांधी, वरुण गांधी कई ऐसे नेता हैं जिनकी उर्जा का इस्तेमाल पार्टी को जन जन तक पहुंचाने में किया जा सकता है। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को पता नहीं क्यों इन नेताओं की लोकप्रियता बढ़ने से डर लगता है।

गोविंदाचार्य, उमा भारती, कल्याण सिंह जैसे लोगों को निकाल तो दिया गया लेकिन उन जैसे कितने नेता पैदा किए गए? एक नेता जब पार्टी छोड़ता है तो उसके ढेर सारे समर्थकों का पार्टी से मोहभंग हो जाता है। चुनावों में एक दो फिसदी मत का भी काफी महत्व होता है। संघ का सिद्धांत शायद ही कभी परवान चढ़े। पिछले वर्षों में भाजपा ने जितने चुनाव जीते हैं उसमें संघ की कोई भूमिका नहीं थी। गुजरात में तो तोगड़िया के कड़े विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी जीते। संघ के नेताओं ने भी उनका साथ नहीं दिया। वे जीते तो विकास कार्यों की बदौलत। संघ भाजपा को फिर अपने अरदब में लेने की कोशिश कर रहा है। वह भाजपा पर पूरा नियंत्रण चाहता है। अटल जी जैसा कोई दूसरा नेता नहीं है जो संघ के नियंत्रण को अस्वीकार कर दे लेकिन यदि भाजपा को जिंदा रहना है तो अटल जी जैसा नेता पैदा करना होगा जो लोग संघ के काडर के नहीं हैं उन्हें भी अहमियत देनी होगी।

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