सोमवार, 4 मई 2009

आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा तुम्हारी ओर

शादी होने से लेकर बच्चा पैदा होने तक का
एक चक्र पूरा हो जाएगा
तब नहीं जानता कि उस चक्र में मैं कहां रहूंगा
केंद्र में, परिधि पर या परिधि के बाहर
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कैसे बताऊं
कि रबर की तरह खींचकर
छोड़ दिए जाने के सिलसिले ने
कितना लहूलुहान किया है मुझे
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नहीं कहता कि
मेरे लहूलुहान होते जाने से
तुम कोई सरोकर रखो
यह भी नहीं चाहता कि मेरे सपनों को
अच्छादित करने वाले अपने स्पर्श को
एक खबर बन जाने दो
तुम सिर्फ एक जगह
तलाश दो मेरे लिए
जहां महसूस कर सकूं
अपने होने की गरमाहट
जब खिलेगा मौसम कहकहाकर
जंगल में एक ठूंठ की तरह
बांटता रहूंगा मैं खुद को
जीने का मुआवजा
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नहीं जानता क्या होगा तब
ढेर सारे निरर्थक शब्दों के बीच
एक मुहावरे जैसा
दिखने की कोशिश का
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उग आए हैं लोग
कंटीली झाड़ियों की तरह
मेरे इर्दगिर्द
अब कैसे तानू अपनी बाहें
आकाश की ओर
जो दृष्टि के पार थम गया हैं कहीं
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बहुत हो चुका
रंगों का बतरतीब तैरना हवा में
तुम कोई छोर पकड़ कर उछाल दो
मेरी ओर
हो सकता है कोई सुकून मिल जाए
मेरे नाम को भी
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तुम्हारी हथेलियों का स्पर्श
लौट आता है बार बार
छा जाता है मेरे सपनों पर
आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा
तुम्हारी ओर

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