शनिवार, 9 जनवरी 2010

पार्टी भी छोड़ो अमर!


समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसकी घोषणा उन्होंने दुबई में की जहां वो दुनिया के सबसे ऊंचे भवन के उद्धाटन समारोह में शामिल होने गए थे। उनके इस्तीफे से पार्टी में कोई खास हलचल देखने को नहीं मिली। वास्तविकता यह थी कि वह पार्टी पर बोझ हो गए थे। पार्टी के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह उनकी सलाह आंख मूंद कर मानते गए। और पार्टी रसातल की ओर जाती गई। एक समय ऐसा आ गया जब अमर सिंह पार्टी के सुपर पावर हो गए। मुलायम सिंह की बात एक बार अनसुनी की जा सकती थी लेकिन अमर सिंह की नहीं। अमर सिंह को पार्टी में इतनी अहमियत मिली कि मुलायम सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले उनके पुराने साथी अपनी उपेक्षा से तंग आकर पार्टी छोड़कर चले गए। इनमें बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर और आजम खां जैसे जमीनी नेता थे। अमर सिंह ने मुलायम को ऐसा हाईटेक नेता बना दिया कि वह अपने कार्यकर्ताओं से भी कटते गए। अमर सिहं के पास बॉलीवुड के अलावा और कोई जनाधार नहीं था और कोई राजनीतिक पार्टी बॉलीवुड के सहारे नहीं चल सकती। अमर सिंह समाजवादी पार्टी में अपने कद का जितना लाभ उठा सकते थे उन्होंने उससे ज्यादा ही उठाया। इससे समाजवादी पार्टी की छवि जनता के निगाहों में गिरती चली गई।

जब उन्होंने बॉलीवुड के दागी और सजायाफ्ता फिल्म स्टार संजय दत्त को पार्टी का महासचिव बनाया तब भी इसे जनता ने अच्छी निगाहों से नहीं देखा। अमर सिंह ने सफाई दी कि संजय दत्त ने एके 56 अपनी सुरक्षा के लिए रखा था इसमें गलत क्या था। लोगों ने अपने आप से पूछा कि क्या हर कोई अपनी सुरक्षा के लिए एके 56 रख सकता है। क्या संजय दत्त की जान को इतना खतरा था कि उन्हें एके 56 रखना पड़ा। और फिर उन्हें ये प्रतिबंधित और खतरनाक राइफल कहां से मिली। यह तो अंडरवर्ल्ड के माफियाओं और खूंखार अपराधियों से ही मिल सकती थी। अमर सिंह को गलतफहमी थी कि उनकी छवि जनता में इतनी साफ सुथरी है या वह इतने लोकप्रिय हैं कि उनके मुखार बिंदु से निकली हुई हर बात लोगों के लिए राम बांण साबित होगी। लेकिन उनकी अपनी छवि इसके बिल्कुल विपरीत स्वार्थलोलुप, दलाल, अय्याश की थी। जिसे आमजन की पीड़ा से कोई सरोकार नहीं था। कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करना और उनके बेटे राजवीर सिंह को पार्टी का महासचिव बनाना अमर सिंह का बेहद आत्मघाती कदम था जिसे वह अपनी महाउपलब्धि समझ बैठे थे। मुलायम सिंह की आंख पर तो उन्होंने पट्टी बांध रखी थी। उनके दिमाग को कुंद कर रखा था। इसलिए वह न तो कुछ देख सकते थे न कुछ सोच सकते थे। उन्होंने कल्याण सिंह को सिर आंखों पर बैठा लिया। और नतीजा यह हुआ कि जिस मुस्लिम मत के लिए उन्होंने अयोध्या में राम भक्तों पर अंधाधुंध गोलियां चलवाईं वह मुस्लिम मत उनके हाथों से निकल गए।

मुलायम की छवि ऐसे अवसरवादी नेता के रूप में बन गई जो अपने स्वार्थों के लिए कुछ भी कर सकता है। अवसर का लाभ उठाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। अखिलेश यादव की पत्नि डिंपल यादव को फिरोजाबाद लोकसभा उप चुनाव में उम्मीदवारी भी निहायत मूर्खतापूर्ण कदम था। कहते हैं इसकी सलाह भी अमरसिंह ने ही दी थी जिसे मुलायम ने बेमन से स्वीकार किया था। डिंपल की उम्मीदवारी से सपा के लिए जरने मरने वाले विश्वसनीय कार्यकर्ताओं का भी मोहभंग हो गया। उनके दिमाग में आया कि मुलायम सिंह सिर्फ अपने परिवार की भलाई के लिए समाजवादी का नारा बुलंद कर रहे हैं। और कार्यकर्ताओं को अपने और अमर सिंह के हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। मुलायम सिंह ने अपने आखों की पट्टी जब खोली तबतक काफी देर हो चुकी थी। गांधारी की तरह महाभारत का युद्ध हारा जा चुका था। गांधारी ने सिर्फ अपने ज्येष्ट पुत्र दुर्योधन को बचाने के लिए आँखों से पट्टी हटाई थी। लेकिन मृत्यु दुर्योधन की नियती थी। इसलिए वह उसका लाभ नहीं उठा सका।
अमर सिंह ने उसी दिन पद त्याग का आधार तैयार कर लिया था जब उन्होंने टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार के दौरान सपा नेताओं खासकर मुलायम सिंह और उनके परिवार को खरी खोटी सुनाई थी. उस समय मुलायम सिंह फिरोजाबाद के उप चुनाव के पराजय के सदमें से उबर भी नहीं पाए थे। ऐसे समय उन्हें सहानुभूति और रचनात्मक सुझाव की जरूरत थी न कि शिकवा शिकायत की। उसी समय अमर सिंह पार्टी में अगल थलग पड़ गए थे। और विवश होकर उन्हें पद त्याग करना पड़ा। अपने इस कदम से वो शायद मुलायम सिंह पर दवाब बनाना चाहते हैं लेकिन इसमें संदेह हैं। बेहतर यही होगा कि वो पार्टी से भी इस्तीफा दे दें और समाजवादी पार्टी में एक नई जान फूंकने के लिए मुलायम सिंह का मार्ग प्रश्स्त करें.

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

नेपाल में चीन के बढ़ते कदम

कभी भारत में छिपकर नेपाल में माओवादी संगठन मजबूत करने वाले कमल पुष्प दहल प्रचंड एक बार फिर खुलकर भारत विरोध पर उतर आए हैं। वे अपनी सत्ता जाने के लिए भारत को जिम्मेदार तो ठहराते ही रहे हैं अब नेपाल की जमीन हथियाने का आरोप लगाने लगे हैं। उन्होंने इसके लिए भारत के खिलाफ प्रदर्शन की घोषणा की है। उनका प्रदर्शन नेपाल की कथित सीमा के निकट बनाए जा रहे बांध के खिलाफ भी होगा। प्रचंड के मुताबिक इस बांध से नेपाल का एक बडा़ हिस्सा जलमग्न होगा। माओवादियों का प्रदर्शन नेपाल के काला पानी क्षेत्र में होगा जिसका नेतृत्व प्रचंड करेंगे। इसी कालापानी क्षेत्र में भारत, नेपाल औऱ चीन की सीमाएं मिलती हैं।

प्रचंड अपनी सार्वजनिक सभाओं में भारत के खिलाफ जहर उगल कर नेपाल में भारत विरोधी वातावरण तैयार करने में लगे हुए हैं। वे कहते हैं कि भारत के साथ व्यापार करने में नेपाल को हर साल अरबों रुपए का घाटा हो रहा है प्रचंड चीन में लंबे प्रवास के बाद लौटे हैं और चीनी नेताओं से गुरुमंत्र ले रहे हैं। चीन एक और राजमार्ग नेपाल तक बना रहा है जो पूरा होने के करीब है। ये दूसरा राजमार्ग है। इन्हीं राजमार्गों से चीन नेपाल को अपना निर्यात बढ़ा रहा है। वह भारत के मुकाबले सस्ता सामान बेचकर भारतीय सामान को भारी नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेगा।

नेपाल के प्रधानमंत्री माधव नेपाल भी कम्युनिस्ट हैं और वो प्रचंड से नूरा कुश्ती खेल रहे हैं। वास्तविकता ये है कि दोनों मिलकर नेपाल में कम्युनिस्टों की जड़े मजबूत करने में लगे हुए हैं। माधव नेपाल से हाल ही में प्रचंड की लंबी वार्ता हुई है। जिसके मुताबिक अगले छह महिने में माओवादी लड़ाकों को सेना में शामिल कर लिया जाएगा। इसके बाद नेपाल के संविधान को लिखने की प्रक्रिया शुरु होगी। हो सकता है कि सेना में लगभग 15 हजार लड़ाकुओं के शामिल होने और उनके शस्त्रों से लैस होने के बाद प्रचंड सैनिक विद्रोह द्वारा नेपाल का शासन अपने हाथ में ले ले और फिर अपने मुताबिक नेपाल का नया संविधान तैयार कराए जिसमें सिर्फ एक दलीय शासन की व्यवस्था हो औऱ वो दल हो माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी।

प्रचंड के माओवादी इस समय नेपाल के तराई वाले इलाके में भारत से जाकर बसे मधेशियों पर वर्चस्व स्थापित करने में लगे हुए हैं। यही इलाका नेपाल में एक दलीय कम्युनिस्ट सरकार स्थापित करने के मार्ग में रोडा़ है। नेपाल के माओवादी इस समय दो तरफा मोर्चो खोले हुए हैं। एक मोर्चा संवैधानिक है और दूसरा मोर्चा असंवैधानिक है। दूसरा मोर्चा माओवादियों को सड़कों पर संचालित कर रहा है। एक तरफ नेपाल में चीन औद्योगिक नगर बसा रहा है तो दूसरी तरफ भारतीय उद्योगपतियों को उद्योग धंधे बंद करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। माओवादियों और उनके समर्थक अधिकारी, कर्मचारी भारतीय कारोबारियों से चौथ वसूलते हैं। यह चौथ कारोबारियों के लाभ को हानि में बदल देता है। वो अपना कारोबार समेट कर लौट आने में ही भलाई समझ रहे हैं।

दूसरी तरफ तराई के क्षेत्र में मधेशियों में भी एकजुटता नहीं है। वहां दो-तीन राजनीतिक पार्टियां हैं जो आपस में वोटों का बंटवारा करके इस लायक नहीं रह जाती है कि नेपाल में मुख्य राजनीतिक ताकत बन सकें। इसके विपरित माओवादी और अन्य कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शक्ति में इजाफा करती जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में माओवादियों का खौफ इस कदर बढ़ रहा है कि वे गैर कम्युनिस्ट मतदाताओं को घरों से निकलने ही नहीं देते। पिछले लोकसभा चुनावों के बाद उन्होंने नेपाली कांग्रेस के समर्थकों पर इस कदर जुल्म ढाया था कि उन्हें गांव छोड़कर चले जाना पड़ा था।

माओवादियों ने इस तरह हिंसा में विश्वास रखने वाले कैडर तैयार किए हैं, उस तरह के कार्यकर्ता अन्य किसी पार्टी के पास नहीं है। हालात इस कदर बदतर हैं कि नेपाल की न्यायपालिका पर चीन की हुकूमत चलने लगी है। इस स्थिति पर भारत सरकार की नजर कितनी पैनी है। इसका कोई सार्थक सबूत अभी तक नहीं मिला है। लेकिन भारत की सतर्कता का उदाहरण उसी समय मिल गया था। जब चीन की खुफिया एजेंसी ज्ञानेंद्र से मिलकर तत्कालीन लोकप्रिय नरेश महाराजा वीरेंद्र का सपरिवार सफाया कर देने में कामयाब हो गई थी और भारतीय खुफिया एजेंसियों को इतने बड़े साजिश की भनक तक नहीं लगी थी। महाराजा वीरेंद्र के सपरिवार सफाए के बाद चीन को नेपाल में अपनी पिछलग्गू सरकार स्थापित करने का निष्कंटक रास्ता मिल गया और वह दिन ज्यादा दूर नहीं लगता जब नेपाल में चीन समर्थक सत्ता स्थापित हो जाएगी। भारत सरकार को इस संभावित खतरे का एहसास जितनी जल्दी हो जाए उतना ही भारत के लिए बेहतर होगा। हमें उम्मीद करनी चाहिए की भारत को चीन के बढते पावों की आहट अवश्य सुनाई दे रही होगी। और वह चीन के नापाक मंसूबों को ध्वस्त करने के लिए मुकम्मल कदम उठा रहा होगा।

शनिवार, 2 जनवरी 2010

नए साल का समाज

पुराना साल भले ही कुछ भद्र पुरुषों को खामोश परिवर्तन का साल लगा हो लेकिन इसमें खामोश चीखें भी थी जिसे भद्रलोक सुन नहीं पाया, सुनना भी नहीं चाहता। ये चीखें उस तरफ से आ रही थी जिधर लोग भूख और दरिद्रता से वक्तिगत तौर पर छुटकारा पाने के लिए अपने मासूम बच्चे को किसी सम्पन्न व्यक्ति के हाथों बेच दे रहे थे। जिनकी मासूम बेटियों को दरिंदगी का शिकार बनाने के बाद बेजान कर दिया जाता था और झाड़ झंखाड़ या नालों में फेंक दिया जाता था। ये बदनसीब बेटियां देह व्यापार में उतार दी जाती थीं। खामोश चीखें देश की एक तिहाई आबादी की तरफ से आती थीं जिनके सिर पर न छत है और न पैरों के नीचे जमीन। यदि कभी कोई घोसला लगता भी है तो विकास और सुंदरीकरण के नाम पर उसे उजाड़ दिया जाता है। इन घोसलों में पल रहे चूजे जब अपने पैरों पर चलना शुरू करते हैं तभी इन्हें पेट की चिंता सताने लगती है। ये कूड़े के ढेर में भाग्य की तलाश करने लगते हैं। भद्र लोगों के सामने हाथ फैलाने लगते हैं। झिड़कियां सुनकर सकपका जाते हैं। अपराध की दुनिया में उतार दिए जाते हैं। उनका मासूम बचपन तरह-तरह की कुठांओं, मानसिक-शारीरिक विकृतियों और अंतत: पशुवत आचरण का शिकार हो जाता है। और तब हम उन्हें अपराधी और समाज विरोधी कहकर दुत्कार देते हैं। क्या देश की अर्थव्यवस्था की बढ़ती विकास दर ऐसे लोगों की किस्मत बदल सकती है।

जब विकास और प्रगति का पैमाना ही बदल दिया गया हो तब ऐसे दुर्भाग्यशाली लोगों के भाग्य कैसे संवर सकते हैं। प्रगति का मतलब है शहरों की चमचमाती सड़कें, खूबसूरत उद्यान मॉडल स्कूल, मध्यम वर्ग के काम आने वाले नए-नए उपकरण, कारों के नए-नए मॉडल, नयी बाइक और तमाम ऐसी चीजें जो नौकरीपेशा मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग के जीवन को ज्यादा से ज्यादा आरामदायक बना सके।

ऐसे आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पन्न विद्यालय जहां पश्चिमि मानसिकता की पौध तैयार हो सके। ऐसी पौध जिन्हें देश की जमीनी हकीकत की ज्ञान न हो, सरोकार न हो। जो जमीनी लोगों को निपट गंवार, घृणित, त्याज्या चीज समझ कर उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखने के आभिज्यत्य संस्कारों से लबरेज हों। ऐसी नर्सरी को अगर देश के विकास का प्रतीक माना जाए तो देश के समग्र विकास का सपना कैसे पूरा होगा। लेकिन दुर्भाग्यवश हम ऐसी ही संकीर्ण मानसिकता और सोच के साथ नए साल में जा रहे हैं। वो साधारण आदमी हमारी दृष्टि से ओझल है जो आजादी के 60 दशकों बाद भी भूखे पेट सोने के लिए अभिसप्त है। जिनका होना विकास के खूबसूरत चेहरे पर कुरूपता के धब्बे जैसा दिखाई देता है जिसे मिटाना हमारे लिए सबसे जरूरी लगता है।

हम विकास के ऐसे मॉडल की तरफ जा रहे हैं जो देश को अमेरिका बनाएगा- ऐसा महाबली अमेरिका, ऐसा धनी अमेरिका और ऐसा विकसित अमेरिका जहां आज भी हर 8वां आदमी भूखा सोता है। हम ऐसे समय के साथ नए साल में प्रवेश कर रहे हैं जो विद्रूप आधुनिकता के जाल में फंस कर छटपटा रहा है। संसद से सड़क तक सफेदपोश अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। मानवीय संवेदना और मानवीय मूल्य तेजी से छीज रहे हैं। मनुष्य के भीतर बैठा शैतान पूरे उफान पर है। स्त्री, संपत्ति, मौज-मस्ती, ऐयाशी आदि बुनियादी जरूरतें बनती जा रही हैं। इन्हें किसी भी कीमत पर हासिल करना जरूरी होता जा रहा है, चाहे जिस कीमत पर मिले याजे भी कीमत चुकानी पड़े।

सामाजिक और व्यक्तिगत मूल्यों से रहित एक नया आभिजात्य वर्ग तैयार हो रहा है जो लोक जीवन में ऐले द्वीप की तरह उभर रहा है जिसपर कदम रख पाना आम आदमी के लिए बेहद कठिन ही नहीं असंभव है। इस तरह के भिन्न-भिन्न वर्गों, समाजों के बीच से भारतीय समाज लगातार खारिज होता जा रहा है जो सामुहिकता की भावना, एक-दूसरे के सुख-दुख में भागीदारी की प्रवृति और भाईचारे के संबंधों से बनता था। हमारा सारा जोर भौतिक विकास पर है आत्मिक विकास पर एकदम नहीं। भौतिक साज-सामान, भौतिक सुविधाएं जुटाने के लिए लोग मानवता का कत्ल करने में जरा भी नहीं हिचक रहे। संचार के साधन भी समाज को उसी तरफ ले जाने में लगे हैं। दैहिक सौंदर्य का आकर्षण चरम की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है इसलिए देह को सजाने-संवारने की ललक भी बढ़ती जा रही है। अब सौंदर्य का हाट लग रहा है। जितनी खूबसूरत देह उतनी ज्यादा कीमत। मनुष्य आत्महीनता के दौर से गुजर रहा है। वह हिंसक हो रहा है। कामुक हो रहा है। मनुष्यता की हदें लांघकर किसी भी सीमा तक जाने को आतुर दिख रहा है। मूल्यहीनता की ऐसी स्थिति में जो नया समाज बन रहा है क्या उसे ही लेकर हम नए साल में जा रहे हैं। क्या ये समाज हमारा अभीष्ट होगा। काम्य होगा। हम इसी समाज में जीने के लिए अभिशप्त हो चुके हैं। हमने यही समाज चुना है जिसे नए साल में विसतार देंगे, व्यापकता देंगे, सर्वस्वीकार्य बनाएंगे। यदि ऐसा है तो इसे शुभ तो नहीं ही माना जा सकता। हो सके तो पश्चिम के अंधानुकरण से बचें। भारतीय समाज के सदियों पुराने ताने-बाने को सुरक्षित करने का यत्न करें।