मंगलवार, 5 जनवरी 2010

नेपाल में चीन के बढ़ते कदम

कभी भारत में छिपकर नेपाल में माओवादी संगठन मजबूत करने वाले कमल पुष्प दहल प्रचंड एक बार फिर खुलकर भारत विरोध पर उतर आए हैं। वे अपनी सत्ता जाने के लिए भारत को जिम्मेदार तो ठहराते ही रहे हैं अब नेपाल की जमीन हथियाने का आरोप लगाने लगे हैं। उन्होंने इसके लिए भारत के खिलाफ प्रदर्शन की घोषणा की है। उनका प्रदर्शन नेपाल की कथित सीमा के निकट बनाए जा रहे बांध के खिलाफ भी होगा। प्रचंड के मुताबिक इस बांध से नेपाल का एक बडा़ हिस्सा जलमग्न होगा। माओवादियों का प्रदर्शन नेपाल के काला पानी क्षेत्र में होगा जिसका नेतृत्व प्रचंड करेंगे। इसी कालापानी क्षेत्र में भारत, नेपाल औऱ चीन की सीमाएं मिलती हैं।

प्रचंड अपनी सार्वजनिक सभाओं में भारत के खिलाफ जहर उगल कर नेपाल में भारत विरोधी वातावरण तैयार करने में लगे हुए हैं। वे कहते हैं कि भारत के साथ व्यापार करने में नेपाल को हर साल अरबों रुपए का घाटा हो रहा है प्रचंड चीन में लंबे प्रवास के बाद लौटे हैं और चीनी नेताओं से गुरुमंत्र ले रहे हैं। चीन एक और राजमार्ग नेपाल तक बना रहा है जो पूरा होने के करीब है। ये दूसरा राजमार्ग है। इन्हीं राजमार्गों से चीन नेपाल को अपना निर्यात बढ़ा रहा है। वह भारत के मुकाबले सस्ता सामान बेचकर भारतीय सामान को भारी नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेगा।

नेपाल के प्रधानमंत्री माधव नेपाल भी कम्युनिस्ट हैं और वो प्रचंड से नूरा कुश्ती खेल रहे हैं। वास्तविकता ये है कि दोनों मिलकर नेपाल में कम्युनिस्टों की जड़े मजबूत करने में लगे हुए हैं। माधव नेपाल से हाल ही में प्रचंड की लंबी वार्ता हुई है। जिसके मुताबिक अगले छह महिने में माओवादी लड़ाकों को सेना में शामिल कर लिया जाएगा। इसके बाद नेपाल के संविधान को लिखने की प्रक्रिया शुरु होगी। हो सकता है कि सेना में लगभग 15 हजार लड़ाकुओं के शामिल होने और उनके शस्त्रों से लैस होने के बाद प्रचंड सैनिक विद्रोह द्वारा नेपाल का शासन अपने हाथ में ले ले और फिर अपने मुताबिक नेपाल का नया संविधान तैयार कराए जिसमें सिर्फ एक दलीय शासन की व्यवस्था हो औऱ वो दल हो माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी।

प्रचंड के माओवादी इस समय नेपाल के तराई वाले इलाके में भारत से जाकर बसे मधेशियों पर वर्चस्व स्थापित करने में लगे हुए हैं। यही इलाका नेपाल में एक दलीय कम्युनिस्ट सरकार स्थापित करने के मार्ग में रोडा़ है। नेपाल के माओवादी इस समय दो तरफा मोर्चो खोले हुए हैं। एक मोर्चा संवैधानिक है और दूसरा मोर्चा असंवैधानिक है। दूसरा मोर्चा माओवादियों को सड़कों पर संचालित कर रहा है। एक तरफ नेपाल में चीन औद्योगिक नगर बसा रहा है तो दूसरी तरफ भारतीय उद्योगपतियों को उद्योग धंधे बंद करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। माओवादियों और उनके समर्थक अधिकारी, कर्मचारी भारतीय कारोबारियों से चौथ वसूलते हैं। यह चौथ कारोबारियों के लाभ को हानि में बदल देता है। वो अपना कारोबार समेट कर लौट आने में ही भलाई समझ रहे हैं।

दूसरी तरफ तराई के क्षेत्र में मधेशियों में भी एकजुटता नहीं है। वहां दो-तीन राजनीतिक पार्टियां हैं जो आपस में वोटों का बंटवारा करके इस लायक नहीं रह जाती है कि नेपाल में मुख्य राजनीतिक ताकत बन सकें। इसके विपरित माओवादी और अन्य कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शक्ति में इजाफा करती जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में माओवादियों का खौफ इस कदर बढ़ रहा है कि वे गैर कम्युनिस्ट मतदाताओं को घरों से निकलने ही नहीं देते। पिछले लोकसभा चुनावों के बाद उन्होंने नेपाली कांग्रेस के समर्थकों पर इस कदर जुल्म ढाया था कि उन्हें गांव छोड़कर चले जाना पड़ा था।

माओवादियों ने इस तरह हिंसा में विश्वास रखने वाले कैडर तैयार किए हैं, उस तरह के कार्यकर्ता अन्य किसी पार्टी के पास नहीं है। हालात इस कदर बदतर हैं कि नेपाल की न्यायपालिका पर चीन की हुकूमत चलने लगी है। इस स्थिति पर भारत सरकार की नजर कितनी पैनी है। इसका कोई सार्थक सबूत अभी तक नहीं मिला है। लेकिन भारत की सतर्कता का उदाहरण उसी समय मिल गया था। जब चीन की खुफिया एजेंसी ज्ञानेंद्र से मिलकर तत्कालीन लोकप्रिय नरेश महाराजा वीरेंद्र का सपरिवार सफाया कर देने में कामयाब हो गई थी और भारतीय खुफिया एजेंसियों को इतने बड़े साजिश की भनक तक नहीं लगी थी। महाराजा वीरेंद्र के सपरिवार सफाए के बाद चीन को नेपाल में अपनी पिछलग्गू सरकार स्थापित करने का निष्कंटक रास्ता मिल गया और वह दिन ज्यादा दूर नहीं लगता जब नेपाल में चीन समर्थक सत्ता स्थापित हो जाएगी। भारत सरकार को इस संभावित खतरे का एहसास जितनी जल्दी हो जाए उतना ही भारत के लिए बेहतर होगा। हमें उम्मीद करनी चाहिए की भारत को चीन के बढते पावों की आहट अवश्य सुनाई दे रही होगी। और वह चीन के नापाक मंसूबों को ध्वस्त करने के लिए मुकम्मल कदम उठा रहा होगा।

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