पुराना साल भले ही कुछ भद्र पुरुषों को खामोश परिवर्तन का साल लगा हो लेकिन इसमें खामोश चीखें भी थी जिसे भद्रलोक सुन नहीं पाया, सुनना भी नहीं चाहता। ये चीखें उस तरफ से आ रही थी जिधर लोग भूख और दरिद्रता से वक्तिगत तौर पर छुटकारा पाने के लिए अपने मासूम बच्चे को किसी सम्पन्न व्यक्ति के हाथों बेच दे रहे थे। जिनकी मासूम बेटियों को दरिंदगी का शिकार बनाने के बाद बेजान कर दिया जाता था और झाड़ झंखाड़ या नालों में फेंक दिया जाता था। ये बदनसीब बेटियां देह व्यापार में उतार दी जाती थीं। खामोश चीखें देश की एक तिहाई आबादी की तरफ से आती थीं जिनके सिर पर न छत है और न पैरों के नीचे जमीन। यदि कभी कोई घोसला लगता भी है तो विकास और सुंदरीकरण के नाम पर उसे उजाड़ दिया जाता है। इन घोसलों में पल रहे चूजे जब अपने पैरों पर चलना शुरू करते हैं तभी इन्हें पेट की चिंता सताने लगती है। ये कूड़े के ढेर में भाग्य की तलाश करने लगते हैं। भद्र लोगों के सामने हाथ फैलाने लगते हैं। झिड़कियां सुनकर सकपका जाते हैं। अपराध की दुनिया में उतार दिए जाते हैं। उनका मासूम बचपन तरह-तरह की कुठांओं, मानसिक-शारीरिक विकृतियों और अंतत: पशुवत आचरण का शिकार हो जाता है। और तब हम उन्हें अपराधी और समाज विरोधी कहकर दुत्कार देते हैं। क्या देश की अर्थव्यवस्था की बढ़ती विकास दर ऐसे लोगों की किस्मत बदल सकती है।
जब विकास और प्रगति का पैमाना ही बदल दिया गया हो तब ऐसे दुर्भाग्यशाली लोगों के भाग्य कैसे संवर सकते हैं। प्रगति का मतलब है शहरों की चमचमाती सड़कें, खूबसूरत उद्यान मॉडल स्कूल, मध्यम वर्ग के काम आने वाले नए-नए उपकरण, कारों के नए-नए मॉडल, नयी बाइक और तमाम ऐसी चीजें जो नौकरीपेशा मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग के जीवन को ज्यादा से ज्यादा आरामदायक बना सके।
ऐसे आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पन्न विद्यालय जहां पश्चिमि मानसिकता की पौध तैयार हो सके। ऐसी पौध जिन्हें देश की जमीनी हकीकत की ज्ञान न हो, सरोकार न हो। जो जमीनी लोगों को निपट गंवार, घृणित, त्याज्या चीज समझ कर उन्हें हिकारत की दृष्टि से देखने के आभिज्यत्य संस्कारों से लबरेज हों। ऐसी नर्सरी को अगर देश के विकास का प्रतीक माना जाए तो देश के समग्र विकास का सपना कैसे पूरा होगा। लेकिन दुर्भाग्यवश हम ऐसी ही संकीर्ण मानसिकता और सोच के साथ नए साल में जा रहे हैं। वो साधारण आदमी हमारी दृष्टि से ओझल है जो आजादी के 60 दशकों बाद भी भूखे पेट सोने के लिए अभिसप्त है। जिनका होना विकास के खूबसूरत चेहरे पर कुरूपता के धब्बे जैसा दिखाई देता है जिसे मिटाना हमारे लिए सबसे जरूरी लगता है।
हम विकास के ऐसे मॉडल की तरफ जा रहे हैं जो देश को अमेरिका बनाएगा- ऐसा महाबली अमेरिका, ऐसा धनी अमेरिका और ऐसा विकसित अमेरिका जहां आज भी हर 8वां आदमी भूखा सोता है। हम ऐसे समय के साथ नए साल में प्रवेश कर रहे हैं जो विद्रूप आधुनिकता के जाल में फंस कर छटपटा रहा है। संसद से सड़क तक सफेदपोश अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। मानवीय संवेदना और मानवीय मूल्य तेजी से छीज रहे हैं। मनुष्य के भीतर बैठा शैतान पूरे उफान पर है। स्त्री, संपत्ति, मौज-मस्ती, ऐयाशी आदि बुनियादी जरूरतें बनती जा रही हैं। इन्हें किसी भी कीमत पर हासिल करना जरूरी होता जा रहा है, चाहे जिस कीमत पर मिले याजे भी कीमत चुकानी पड़े।
सामाजिक और व्यक्तिगत मूल्यों से रहित एक नया आभिजात्य वर्ग तैयार हो रहा है जो लोक जीवन में ऐले द्वीप की तरह उभर रहा है जिसपर कदम रख पाना आम आदमी के लिए बेहद कठिन ही नहीं असंभव है। इस तरह के भिन्न-भिन्न वर्गों, समाजों के बीच से भारतीय समाज लगातार खारिज होता जा रहा है जो सामुहिकता की भावना, एक-दूसरे के सुख-दुख में भागीदारी की प्रवृति और भाईचारे के संबंधों से बनता था। हमारा सारा जोर भौतिक विकास पर है आत्मिक विकास पर एकदम नहीं। भौतिक साज-सामान, भौतिक सुविधाएं जुटाने के लिए लोग मानवता का कत्ल करने में जरा भी नहीं हिचक रहे। संचार के साधन भी समाज को उसी तरफ ले जाने में लगे हैं। दैहिक सौंदर्य का आकर्षण चरम की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है इसलिए देह को सजाने-संवारने की ललक भी बढ़ती जा रही है। अब सौंदर्य का हाट लग रहा है। जितनी खूबसूरत देह उतनी ज्यादा कीमत। मनुष्य आत्महीनता के दौर से गुजर रहा है। वह हिंसक हो रहा है। कामुक हो रहा है। मनुष्यता की हदें लांघकर किसी भी सीमा तक जाने को आतुर दिख रहा है। मूल्यहीनता की ऐसी स्थिति में जो नया समाज बन रहा है क्या उसे ही लेकर हम नए साल में जा रहे हैं। क्या ये समाज हमारा अभीष्ट होगा। काम्य होगा। हम इसी समाज में जीने के लिए अभिशप्त हो चुके हैं। हमने यही समाज चुना है जिसे नए साल में विसतार देंगे, व्यापकता देंगे, सर्वस्वीकार्य बनाएंगे। यदि ऐसा है तो इसे शुभ तो नहीं ही माना जा सकता। हो सके तो पश्चिम के अंधानुकरण से बचें। भारतीय समाज के सदियों पुराने ताने-बाने को सुरक्षित करने का यत्न करें।
शनिवार, 2 जनवरी 2010
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1 टिप्पणी:
अब शायद इस से बचना बहुत मुश्किल हो चुका है कि हम पश्चिमी प्रभाव से बच सकेगें....देश एक अंधी दोड़ मे शामिल हो चुका है...जो हमे कहाँ ले जाएगी यह कोई नही जानता। अब तो बस देख सकते हैं...कुछ कर नही सकते......क्योकि कोई किसी की सुनने को तैयार ही नही है.....आप की चिंता वाजिब है...
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