शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

अभद्रता की पराकाष्ठा


जब अलजरीरा के एक पत्रकार ने अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश पर जूता फेंका था तो भरतीय मीडिया का मुख्य स्वर कुल मिलाकर सकारात्मक था। पत्रकार के प्रति सहानुभूति थी, हमदर्दी थी और प्रशंसा के भाव थे। इस व्यापक समर्थन से वह हीरो बन गया था। मीडिया ने उसे पत्रकारिता के बुनियादी सरोकारों, पेशेगत नैतिकता और धर्म तथा पत्रकारिता के सिद्धांतों की याद नहीं दिलाई थी। उस पत्रकार के आक्रोश को अमेरिका की कथित अमानवीय चेहरे और ज्यादतियों से जोड़ा था। उसके किए को स्वभाविक और जायज ठहराने की कोशिश हुई थी।


यदि भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंकने की प्रेरणा भारतीय पत्रकार जरनैल सिंह को मिली हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किसी बुरी और अनैतिक घटना को भी जब व्यापक समर्थन मिलता है, उसे सिद्धांतों का जामा पहनाया जाता है, उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की जाती है तो उसकी पुनरावृत्ति की संभावना जन्म ले लेती है। क्योंकि यह एक आदर्श नजीर बन जाती है। व्यक्ति को महिमामंडित हो जाने की। अल जजीरा के जिस पत्रकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूता फेंका था उसके पेशेवर कर्तव्य और उत्तर दायित्व पर उसका धर्म हावी हो गया था। वह एक तरह से धार्मिक उन्माद से ग्रस्त था। उसका पत्रकारिता कर्म कोरी भावुकता के हवाले हो गया था। वो पत्रकार कम था धार्मिक ज्यादा था। इसलिए उसने अपनी नादान हरकत दोहराने का संकल्प व्यक्त किया था।


यही बात जरनैल सिंह के साथ भी थी। वह यह भूल गया था कि एक पत्रकार को अपनी भावुकता पर काबू पाते हुए वस्तुनिष्ठ तथ्यों के आधार पर समाचार संकलित करना चाहिए। समाचार संतुलित, निष्पक्ष और संदेह से परे होना चाहिए। एक पत्रकार के लिए व्यक्तिगत निष्ठा का कोई महत्व नहीं होता। खास तौर पर तब जब वह अपने कर्तव्यपथ पर चल रहा हो। यानि समाचार संकलित कर रहा हो। निजी जीवन और पत्रकार जीवन में बुनियादी तौर पर बहुत फर्क होता है। पत्रकार की निजी दृष्टी उसकी पत्रकारिता पर हावी नहीं होनी चाहिए। जरनैल सिंह ने जब गृह मंत्री पर जूता फेंका तब उसने पत्रकारिता के सारे सिद्धांतो, मुल्यों, प्रतिमानों और मानदंडों की धज्जियां उड़ा दी थी। जिस पत्रकार की लेखनी में धार होती है, जिसके पास शब्द होते हैं, शैली होती है वह इस तरह की ओछी हरकत नहीं कर सकता।


हर पत्रकार का कोई न कोई धर्म तो होता ही है। लेकिन पत्रकारिता धर्म को अपने निजी धर्म से उपर रखता है। ऐसा करने में असमर्थ व्यक्ति को पत्रकारिता छोड़ देनी चाहए। फिर तो वह अपना विरोध दर्ज कराने के तमाम लोकतांत्रिक- गैर लोकतांत्रिक तौर तरीकों में से कोई भी चुनने को स्वतंत्र हो जाता है। यह जरनैल सिंह का पत्रकार ही था कि जिसने उन्हें उनके किए का परिणाम भुगतने से बचा लिया, वर्ना वे जेल के सीखचों में होते। वैसै पत्रकारिता की ढाल के पीछे अपने आपको सुरक्षित रखकर तमाम तरह के अनापशनाप धंधे करने वाले पत्रकारों की कमी नहीं है लेकिन पत्रकारिता की विश्वसनीयता बचाए रखने के लिए जहां तक संभव हो इससे बचना चाहिए।


इस बात से असहमत होना कठिन है कि सीबीआई केंद्र सरकार दबाव में या फिर निर्देश पर काम करती है। केंद्र सरकार लाख सफाई दे कि सीबीआई के कार्यों में वह हस्तक्षेप नहीं करती। लेकिन किसी को उसपर यकीन नहीं होता। सीबीआई का इस्तेमाल केंद्र सरकारों ने जिस तरह अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ किया है। उसने सीबीआई की विश्वसनीयता को तार तार कर दिया है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब सपा नेता मुलायम सिंह यादव और उनके परिजनों के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में सीबीआई रवैया उस समय बदल गया सपा ने परमाणु डील पर केंद्र सरकार का समर्थन किया। इस रवैये पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को फटकारा था।


जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट देने से पहले सीबीआई प्रमुख ने गृहमंत्री से गुफ्तगू की थी, यह खबर मीडिया में छपी थी। सिख विरोधी दंगे में जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार की संलिप्तता को लेकर किसी के मन में संदेह नहीं है। इसलिए सीबीआई भले जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट दे दे। लेकिन जनता उन्हें किसी भी हालत में निर्दोष नहीं मान सकती। इससे सिख समुदाय की भावनाएं आहत हुई हैं। उनमें आक्रोश है। यह स्वाभाविक है। गृहमंत्री औऱ सीबीआई संदेह के कठघरे में खड़े हैं। सीबीआई को यह गलत निर्णय लेने के लिए इस लिए बाध्य किया गया ताकि जगदीश टाइटलर को लोक सभा का उम्मीदवार बनाया जा सके। लेकिन सिख समुदाय ने इतना व्यापक और गहरा आक्रोश है कि यह निर्णय केंद्र सरकार और कांग्रेस के गले की फांस बन गया। सिख संगठन अपने तरीके से आक्रोश व्यक्त भी कर रहे हैं।


लेकिन जरनैल सिंह ने आक्रोश व्यक्त करने का जो तरीका अपनाया उससे पत्रकारिता कलंकित हुई है। यदि यह सिलसिला चल पड़ा तो इस पवित्र पेशे का क्या होगा इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। समाचार संकलन के बहुत सारे श्रोत मुश्किल में पड़ सकते हैं। मान्यता प्राप्त पत्रकारों को भी परीक्षा की जटिलता से गुजरना पड़ सकता है। जो स्वतंत्रता उन्हें इस समय प्राप्त है उस पर ग्रहण लग सकता है। पत्रकारों के हित में यही होगा कि वो पत्रकारिता की मर्यादा और अपनी सीमाएं बखूबी समझें। कर्तव्यबोध का दामन न छोड़े और अपनी कलम पर भरोसा रखे।

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