समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसकी घोषणा उन्होंने दुबई में की जहां वो दुनिया के सबसे ऊंचे भवन के उद्धाटन समारोह में शामिल होने गए थे। उनके इस्तीफे से पार्टी में कोई खास हलचल देखने को नहीं मिली। वास्तविकता यह थी कि वह पार्टी पर बोझ हो गए थे। पार्टी के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह उनकी सलाह आंख मूंद कर मानते गए। और पार्टी रसातल की ओर जाती गई। एक समय ऐसा आ गया जब अमर सिंह पार्टी के सुपर पावर हो गए। मुलायम सिंह की बात एक बार अनसुनी की जा सकती थी लेकिन अमर सिंह की नहीं। अमर सिंह को पार्टी में इतनी अहमियत मिली कि मुलायम सिंह के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले उनके पुराने साथी अपनी उपेक्षा से तंग आकर पार्टी छोड़कर चले गए। इनमें बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर और आजम खां जैसे जमीनी नेता थे। अमर सिंह ने मुलायम को ऐसा हाईटेक नेता बना दिया कि वह अपने कार्यकर्ताओं से भी कटते गए। अमर सिहं के पास बॉलीवुड के अलावा और कोई जनाधार नहीं था और कोई राजनीतिक पार्टी बॉलीवुड के सहारे नहीं चल सकती। अमर सिंह समाजवादी पार्टी में अपने कद का जितना लाभ उठा सकते थे उन्होंने उससे ज्यादा ही उठाया। इससे समाजवादी पार्टी की छवि जनता के निगाहों में गिरती चली गई।
जब उन्होंने बॉलीवुड के दागी और सजायाफ्ता फिल्म स्टार संजय दत्त को पार्टी का महासचिव बनाया तब भी इसे जनता ने अच्छी निगाहों से नहीं देखा। अमर सिंह ने सफाई दी कि संजय दत्त ने एके 56 अपनी सुरक्षा के लिए रखा था इसमें गलत क्या था। लोगों ने अपने आप से पूछा कि क्या हर कोई अपनी सुरक्षा के लिए एके 56 रख सकता है। क्या संजय दत्त की जान को इतना खतरा था कि उन्हें एके 56 रखना पड़ा। और फिर उन्हें ये प्रतिबंधित और खतरनाक राइफल कहां से मिली। यह तो अंडरवर्ल्ड के माफियाओं और खूंखार अपराधियों से ही मिल सकती थी। अमर सिंह को गलतफहमी थी कि उनकी छवि जनता में इतनी साफ सुथरी है या वह इतने लोकप्रिय हैं कि उनके मुखार बिंदु से निकली हुई हर बात लोगों के लिए राम बांण साबित होगी। लेकिन उनकी अपनी छवि इसके बिल्कुल विपरीत स्वार्थलोलुप, दलाल, अय्याश की थी। जिसे आमजन की पीड़ा से कोई सरोकार नहीं था। कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करना और उनके बेटे राजवीर सिंह को पार्टी का महासचिव बनाना अमर सिंह का बेहद आत्मघाती कदम था जिसे वह अपनी महाउपलब्धि समझ बैठे थे। मुलायम सिंह की आंख पर तो उन्होंने पट्टी बांध रखी थी। उनके दिमाग को कुंद कर रखा था। इसलिए वह न तो कुछ देख सकते थे न कुछ सोच सकते थे। उन्होंने कल्याण सिंह को सिर आंखों पर बैठा लिया। और नतीजा यह हुआ कि जिस मुस्लिम मत के लिए उन्होंने अयोध्या में राम भक्तों पर अंधाधुंध गोलियां चलवाईं वह मुस्लिम मत उनके हाथों से निकल गए।
मुलायम की छवि ऐसे अवसरवादी नेता के रूप में बन गई जो अपने स्वार्थों के लिए कुछ भी कर सकता है। अवसर का लाभ उठाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। अखिलेश यादव की पत्नि डिंपल यादव को फिरोजाबाद लोकसभा उप चुनाव में उम्मीदवारी भी निहायत मूर्खतापूर्ण कदम था। कहते हैं इसकी सलाह भी अमरसिंह ने ही दी थी जिसे मुलायम ने बेमन से स्वीकार किया था। डिंपल की उम्मीदवारी से सपा के लिए जरने मरने वाले विश्वसनीय कार्यकर्ताओं का भी मोहभंग हो गया। उनके दिमाग में आया कि मुलायम सिंह सिर्फ अपने परिवार की भलाई के लिए समाजवादी का नारा बुलंद कर रहे हैं। और कार्यकर्ताओं को अपने और अमर सिंह के हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। मुलायम सिंह ने अपने आखों की पट्टी जब खोली तबतक काफी देर हो चुकी थी। गांधारी की तरह महाभारत का युद्ध हारा जा चुका था। गांधारी ने सिर्फ अपने ज्येष्ट पुत्र दुर्योधन को बचाने के लिए आँखों से पट्टी हटाई थी। लेकिन मृत्यु दुर्योधन की नियती थी। इसलिए वह उसका लाभ नहीं उठा सका।
अमर सिंह ने उसी दिन पद त्याग का आधार तैयार कर लिया था जब उन्होंने टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार के दौरान सपा नेताओं खासकर मुलायम सिंह और उनके परिवार को खरी खोटी सुनाई थी. उस समय मुलायम सिंह फिरोजाबाद के उप चुनाव के पराजय के सदमें से उबर भी नहीं पाए थे। ऐसे समय उन्हें सहानुभूति और रचनात्मक सुझाव की जरूरत थी न कि शिकवा शिकायत की। उसी समय अमर सिंह पार्टी में अगल थलग पड़ गए थे। और विवश होकर उन्हें पद त्याग करना पड़ा। अपने इस कदम से वो शायद मुलायम सिंह पर दवाब बनाना चाहते हैं लेकिन इसमें संदेह हैं। बेहतर यही होगा कि वो पार्टी से भी इस्तीफा दे दें और समाजवादी पार्टी में एक नई जान फूंकने के लिए मुलायम सिंह का मार्ग प्रश्स्त करें.