सपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने भी एक मोर्चा बनाया है। इनमें जो दल शामिल हैं उनमें तेलगु देशम को छोड़ कर किसी का भी अपने प्रदेश में जनाधार नहीं है। उत्तर प्रदेश में तो सपा के अलावा किसी भी अन्य दल का मानो निशान भी नहीं है। आंध्र प्रदेश में तेलगु देसम की कांग्रेस से कड़ी प्रतिस्पर्धा है। सपा महाराष्ट्र में शायद एक- दो सीट निकाल ले लेकिन उसके अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में बसपा से कड़ा मुकाबला है। फिलहाल जो राजनीतिक समीकरण है उसमें बसपा सपा से मीलों आगे है। ऐसी स्थिति में लोक सभा का अगला चुनाव मुलायम सिंह के लिए काफी बोझिल पड़ेगा।
लेकिन उनके निकटतम सहयोगी अमर सिंह ने भरोसा दिलाया है कि राजनीतिक जोड़-तोड़ में अपनी निपुणता के चलते वे मुलायम सिंह को देश का अगला प्रधानमंत्री बना देंगे। अमर सिंह ने कांग्रेस से नजदीकी कायम कर ली है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से साठ-गांठ कर बसपा का मुकाबला करने की योजना बना रहे हैं। सीटों के बटवारे को लेकर एकता न भी संभव हो तो चुनाव के बाद जोड़-तोड़ कर यदि कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनी तो मुलायम सिंह और अमर सिंह केंद्रीय मंत्रीमंडल में होंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री शिवराज पाटील से अमर सिंह की लंबी वार्ता हो चुकी है। जैसा की अमर सिंह की आदत है कि वह हर चाल में पहले अपनी गोटी लाल कर लेते हैं, इस वार्ता में भी उन्होंने अपना निजी हित साध लिया केंद्र सरकार से जेड श्रेणी की सुरक्षा ले ली। भविष्य में राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा इसका आंकलन आज कि तारीख में नामुमकिन है किन्तु अमर सिंह का अपना हित तो सध ही गया।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है 2004 के लोक सभा चुनाव के बाद जितने भी चुनाव हुए सभी में उसे पराजय ही हाथ लगी है। कर्नाटक विधान सभा चुनाव में उसकी हार को हल्के में नहीं लिया जा सकता है। भाजपा नें कर्नाटक के रास्ते दक्षिण भारत के किले में प्रवेश कर लिया है। कर्नाटक में कांग्रेस कि हार को यदि हम भविष्य के लिए संकेत माने तो अगले लोक सभा चुनाव में उसके आसार अच्छे नहीं दिखाई देते। कांग्रेस की गठबंधन की सरकार केंद्र में बने इसके लिए स्वयं कांग्रेस को भाजपा से ज्यादा सीटें प्राप्त करनी होगी। पिछले चुनाव में मात्र 7 या 9 सीटों से पिछड़ने के कारण भाजपा के गठबंध की सरकार बनने से रह गई थी। लगातार चुनावी पराजयों से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है। उसे सोनिया गांधी के करिश्माई नेतृत्व पर भी भरोसा नहीं रह गया है। राहुल गांधी के अपरिपक्व नेतृत्व के प्रति जनता में कोई खास रुझान नहीं है। सोनिया गांधी पता नहीं क्यों प्रियंका को आगे लाना नहीं चाहतीं जबकि राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उनका आकर्षक व्यक्तित्व कांग्रेस की गिरती साख को रोक सकती है या अगले चुनाव में उसकी नैया पार लगा सकती है। लेकिन सोनिया अपने पुत्र मोह के कारण प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाना नहीं चाहती। उन्हे भय है कि प्रियंका राहुल गांधी को पीछे धकेल देंगी। बहरहाल ये नेहरु परिवार का अपना अंदरुनी मामला है लेकिन एक बात तो सच हैं ही कि सोनिया गांधी के कांग्रेस नेतृत्व संभालने के समय कांग्रेस जनो में जो उत्साह था वह अब नहीं दिखाई दे रहा है।
केंद्र सरकार के तमाम उपायों के बावजूद महंगाई के लगातार बढ़ने और पेट्रोलियम पदार्थों में भारी बढोतरी से कांग्रेस के ग्राफ में काफी गिरावट आई है जिसकी भरपाई अगले आम चुनाव में होना बेहद कठिन लग रहा है। इसका असर उन दलों पर पड़ना स्वभाविक है जो पिछला चुनाव कांग्रेस से मिलकर लड़े थे। ये दल अगले चुनाव में क्या रणनीति अपनाते हैं, इस बारे में फिलहाल दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु इनमें से कुछ यदि भाजपा गठबंधन में शामिल हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
उधर मुलायम के लाख प्रयास के बावजूद वामपंथी दल उनके तृतीय मोर्चे में शामिल नहीं हो रहे हैं तो इसका कारण यह है की वे इसके फायदे नुकसान के गणित से पूरी तरह वाकिफ हैं वे जानते हैं कि एक तो मुलायय उन्हें उत्तर प्रदेश में ज्यादा सीटे देंगे नहीं, दूसरे जो सीटे देंगे भी उस पर सपा के भरोसे जीत हासिल नहीं की जा सकती क्योंकि सपा का अपना जनाधार भी काफी खिसक गया है। दूसरे शब्दों में कहे तो अमर सिंह ने मुलायम सिंह कि स्वयं की लोकप्रियता काफी कम कर दी है। अब उनकी छवि जमीनी नेता कि जगह हाई टेक नेता की रह गई है। सपा नेताओं में भी उत्साह कि जगह निराशा ने घर कर लिया है। इसके विपरीत बसपा समर्थक उत्साह से लबालब हैं। कांग्रेस और सपा मिलकर भी बसपा का मुकाबला करने के स्थिति में नहीं है इसलिए वामपंथी दलों में सपा गठबंधने में शामिल होने में कोई रुची नहीं है। सपा कि अलोकप्रियता का इससे बढ़ कर उदाहरण क्या हो सकता है कि कुछ माह पहले उत्तर प्रदेश में हुए लोक सभा और विधान सभा के उप चुनावों में बसपा में न केवल सभी सीटों पर विजय दर्ज की वरन वे सीटें भी जीती जिन पर सपा काबिज थी।
मुलायम सरकार कि धमा चौकड़ी के विपरीत मायावती के एक साल के शासन काल में ना केवल हर क्षेत्र में सुधार के लक्षण दिखाई दे रहें हैं वरन सामाजिक सौहार्द का माहौल भी बना है। सबसे बड़ी बात यह है की मायावती अपनी पार्टी के उन नेताओं को भी कानून का पाठ पढा़ रहीं हैं जो सत्ता के मद में आ कर गैर कानूनी हरकतें कर रहें हैं। हाल ही में उन्होंने अपनी पार्टी के सचिव और झारखण्ड के प्रभारी राम दक्षपाल को जेल में डलवा दिया। जिन्होंने दलितों पर गोली चलवा कर एक की जान ले ली और कई को घायल कर दिया। पार्टी के सांसद रमाकांत यादव तो सरकार बनाने के पहले ही जेल में बंद हैं। उन्हें मायावती ने अपने आवास से गिरफ्तार करवाया था। कुल मिलाकर उनके सरकार के प्रति जनता का रुझान बढा़ है। लोग समझने लगें हैं कि इस बार मायावती सही मायने में सर्वजन हिताए के लिए काम कर रही हैं।
जहां तक भाजपा का सवाल है कर्नाटक में विजय के बाद से उसके मनोबल में काफी इजाफा हुआ है। बनारस नगर निगम के उप चुनाव में एक सीट सपा से छीनने में वह कामयाब हुई है। लोक सभा चुनाव में अपेक्षाकृत बेहतर परिणाम उसे मिल सकते हैं। उत्तर प्रदेश में कई सीटे यदि भाजपा और बसपा अगर मिलकर बांट ले तो अचरज की बात नहीं होगी। कुल मिलाकर यह कि केंद्र तो मुलायम सिंह को मिलने से रहा, उत्तर प्रदेश उनके हाथ से जा रहा है।
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