सोमवार, 25 मई 2009

कलंक से बच गई काशी

पाप नाशनी, मोक्षदायनी, अमृतजलधारा वाली गंगा चाहे जितनी प्रदूषित हो गई हो लेकिन देश के आम लोगों के लिए आज भी उनका वही स्वरुप है, जो पहले कभी रहा होगा। टिहरी में कैद होने से पहले या तमाम तटवर्ती कचरे और मल को आत्मसात करने से पहले। इसी गंगा के पावन तट पर बसा है काशी। देवाधिदेव भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिकी काशी। देश की धार्मिक और सांस्कृतिक राजधानी। जहां का कंकड़ भी शंकर हैं। यह वही काशी है जहां एक चाण्डाल ने आदि शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया था। वैष्णव धर्माचार्य रामानंद ने कबीर को ‘कबीर’ बना दिया था। जिसके बारे में एक कवि ने कहा था ‘खाक भी जिसका पारस है, वही बनारस है’।

काशी ने विश्व को एक विशिष्ट संस्कृति दी है। पहचान दी है। यहां की रईसी मशहूर है तो गुंडई भी मशहूर है। गायकी मशहूर है तो मस्ती और अक्खड़पन भी मशहूर है। काशी की संस्कृति को संवारने में कई विभूतियों ने अपना पूरा जीवन साधना को समर्पित कर दिया। काशी धनाढ्यों को प्रश्रय देती है तो विधवाओं को मोक्ष के लिए आश्रय देती है। कहते हैं काशी में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता है। ‘चना-चबैना-गंगाजल’ यहां हमेशा मौजूद रहता है। यतीम लोगों की क्षुधा शांत करने के लिए।

लोकसभा में या दुनिया के किसी कोने में जो व्यक्ति काशी का प्रतिनिधित्व करता है वह काशी से धन्य हो जाता है। काशी उससे धन्य नहीं होती। काशी उदात्त मूल्यों के साथ जी रही है। काशी का स्वरुप भले बदल गया हो, बदलता जाए लेकिन उसके बुनियादी मूल्य कभी नहीं बदलेंगे ऐसा विश्वास यहां के लोगों में कूट-कूट कर भरा हुआ है। इतिहास गवाह है कि देश की सर्वोच्च संस्था लोकसभा में काशी ने कभी किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं भेजा है जो काशी की गरिमा के अनुरुप न हो। उसी व्यक्ति ने काशी का प्रतिनिधित्व किया है जिसने अपने भीतर काशी के मूल्यों को समाहित कर लिया है। जो काशी के मूल्यों के साथ जीता रहा है। रहने वाला कहीं का हो, पैदा कहीं हुआ हो लेकिन काशी की संस्कृति का कोई न कोई तत्व उसके भीतर मौजूद अवश्य हो।

पंद्रहंवी लोकसभा में काशी का प्रतिनिधित्व करने वाले डॉ. मुरली मनोहर जोशी उसी परंपरा की एक कड़ी हैं जिसमें पं. कमालपति त्रिपाठी, डॉक्टर रघुनाथ सिंह जैसे लोग थे। यदि वैज्ञानिक सिर्फ वैज्ञानिक, भौतिकवादी हो, वस्तुवादी हो तो कोई विशेष बात नहीं है। लेकिन वह वैज्ञानिक होने के साथ ही यदि धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, आस्थावान हो और देश की मिट्टी की तासीर को पहचानता हो, अपनी परंपरा और गौरवमय अतीत की उपलब्धियों पर गर्व महसूस करता हो तो निश्चित रुप से वह विशिष्ठ है।

विज्ञान तो हमारे धर्म में भी है। हमारे जीवन दर्शन में भी है और हमारे संस्कृति में भी है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यही है। हमारी संस्कृति विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसी गई और खरी उतरी है। हमारा अध्यात्म विज्ञान भी है और दर्शन भी। तभी तो गुरु रवींद्रनाथ टैगोर से लंबी बहस के बाद आइंस्टीन ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार की थी।

डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी पर्वतीय हैं। देवभूमि के हैं। वे इलाहबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर रहे। यह उनका पेशा था लेकिन भीतर से आध्यात्मिक रहे। उन्होंने विज्ञान को अपनी भौतिकता पर कभी हावी नहीं होने दिया। इसके विपरीत उनके विज्ञान पर उनकी आध्यात्मिकता हमेशा हावी रही। डॉ. जोशी भले ही काशी के नहीं रहे हों लेकिन काशीमय हैं। काशी का बीजतत्व उनके भीतर अंकुरित है। वह सच्चे अर्थों में काशीवासियों के नीर-क्षीर-विवेक शक्ति के सच्चे प्रतिमान हैं। काशी ने एक ऐसे व्यक्ति को नकारा है जिसने यहां की धरती को इंसानों के खून से लाल किया था। क्या मुख्तार अंसारी कहीं से भी काशी का प्रतिनिधित्व करने लायक था? सत्ता का घिनौना खेल खेलने वाले भले ही उसे क्लीन चिट दे दें। लेकिन काशीवासियों का अपना विवेक तो जागृत है ही। उसे कुहासे की परतों से ढका नहीं जा सकता।

भली सभा में मायावती ने मुख्तार को भलेमानुस का सर्टिफिकेट दिया। उसे मसीहा बना दिया। ये काशीवासियों की मेधा का अपमान था। काशीवासियों की निजता को चुनौती थी। काशी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। और अपनी परंपरा का निर्वाह किया। अपनी अस्मिता की रक्षा की। काशी के लिए यह चुनाव साधारण चुनाव नहीं था। उसे सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुजरना था। काशी इस अग्निपरीक्षा में सफल हुई। उसने मौजूदा प्रत्याशियों में से सर्वश्रेष्ठ को चुना और यही काशी की गरिमा और गौरवशाली परंपरा के अनुकूल भी था। भगवान शंकर की कृपा से काशी एक बहुत बड़े कलंक से बच गई।

इसे हम काशी की महिमा का असर मान सकते हैं। दुनिया के लोग काशी के यदि इस माफिया राष्ट्रीय प्रतिनिधि (जो खुशकिस्मती से नहीं चुना गया) के बारे में जानते तो पूरी काशी उनके सामने सिर झुकाए कठघरे में खड़ी होती। क्या यही है काशी के ज्ञान के चर्मोत्कर्ष का परिणाम? सर्वविद्या की यह राजधानी कैसे लकवाग्रस्त हो गई? इन सवालों से साफ बचनिकलने का श्रेय हम चाहें काशी की आत्याध्मिक चेतने को दें या किसी दैवी शक्ति को या काशी की परंपरा को या अन्य किसी को लेकिन यह बात तो निर्विवाद है कि कासी ने अपने आपको कलंकित होने से बचा लिया।

अब डॉ. जोशी का कर्तव्य है कि काशी ने उनमें जो आस्था व्यक्ति किया है, उसकी रक्षा करने में, उस पर खरा उतरने में, वह अपनी समूची शक्ति और समूची प्रतिभा झोंके दे। अब जोशी काशी के हैं, काशी उनकी है, काशीवासियों की शुभकामनाएं उनके साथ हैं।

शनिवार, 23 मई 2009

एक कदम आगे तो दो कदम पीछे क्यों चलती है भाजपा

पंद्रहवी लोकसभा का चुनाव जितना यूपीए के लिए अप्रत्याशित रहा उससे ज्यादा राजग के लिए यूपीए सत्तानशीं हो गई जबकि राजग उससे मीलों पीछे नजर आई। राजग को उतनी सीटें भी नहीं मिली जितनी कांग्रेस को अकेले मिलीं है। मैंने पहले भी कई बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पतन की भविष्यवाणी की है। लेकिन अब मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर इस पार्टी ने पतन की ओर कदम बढ़ा दिए हैं।

भाजपा में फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है जिसमें चुंबकीय आकर्षण हो। कोई ऐसा थिंक टैंक नहीं है जो चुनावों के लिए प्रभावशाली मुद्दे की तलाश कर सके। कोई युवा चेहरा नहीं है जो देश के युवाओं का रुख पार्टी की ओर मोड़ सके। कोई महिला नेता नहीं है जो महिलाओं को पार्टी की तरफ ला सके। कोई ओजस्वी वक्ता नहीं है जो भीड़ को सम्मोहित कर सके। पार्टी के नेता स्वार्थ केंद्रित राजनीति में बुरी तरह लिप्त हैं। जैसे सामंती जमाने में किसी राजा के सरकार और दरबारी उसके निकम्मेपन का फायदा उठाकर निजी लाभ उठाने में इस कदर मशगूल हो जाते थे कि उन्हें दुश्मन के चढ़ आने की आहट भी नहीं लगती थी।

ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास नेताओं का एकदम अकाल हो गया है। पहले भी नहीं था। लेकिन पता नहीं क्यों पार्टी का शीर्ष नेतृत्व व्यक्ति केंद्रित राजनीति में इस कदर उलझ जाता है कि उसे पैरों तले की जमीन भी नहीं देती। उनके निर्णय कभी कभी इतने अटपटे होते हैं, रणनीति इतनी बेजान होती है कि उनकी सोच पर तरस आता है। पता नहीं क्यों पार्टी नया नेतृत्व उभरने ही नहीं देती। यदि किसी में आगे बढ़ने की प्रतिभा होती है तो उसे कुचल दिया जाता है।


वरुण गांधी जैसे आकर्षक व्यक्तित्व के युवा नेता को बहुत दिनों तक कोल्ड स्टोरेज में बंद रखा गया और जब मंच या अवसर दिया गया तो विषवमन का पाठ रटाने के बाद। पीलीभीत में उसने जो कुछ कहा वह देश की जनता को अच्छा नहीं लगा। सराहा तो सिर्फ बाल ठाकरे और संघ के कट्टरवादी तथा सांप्रदायिक नेताओं ने। जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने राजनीतिक लाभ के लिए वरुण पर रासुका लगया तो भाजपा नेताओं ने सोचा की कम से कम उत्तर प्रदेश में इसका लाभ उसे मिलेगा। लेकिन भाजपा और संघ के नेताओं को पता नहीं कब इसका एहसास होगा कि देश की ज्यादातर जनता, सांप्रदायिकता पसंद नहीं करती है। इसलिए वरुण प्रकरण का लाभ न तो भाजपा को मिल पाया, न बसपा को। बसपा को इसलिए नहीं मिला क्योंकि ज्यादातर लोगों को लगा कि मायावती इस युवा वरुण के साथ ज्य़ादती कर रही है।

भाजपा और संघ के नेताओं ने उमा भारती का सार्थक उपयोग करने की बजाय उन्हें एक कोने में ढकेलकर निष्क्रिय कर दिया। कल्याण सिंह जैसे पुराने और निष्ठावान नेता की मामूली बात भी अनसुनी कर दी। और उन्हें पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। बुलंदशहर से उस व्यक्ति को भाजपा ने टिकट दिया जिसने डिबाई विधानसभा क्षेत्र से कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह को पराजित करने में मुख्य भूमिका निभाई थी। कल्याण सिंह नहीं चाहते थे कि बुलंदशहर संसदीय सीट से उसे टिकट दिया जाए क्योंकि यह क्षेत्र उनके प्रभाव में था। लेकिन भाजपा ने उसी अशोक प्रधान को बुलंदशहर से सीट दे दिया और वह चुनाव हार गए। इससे क्षुब्ध होकर कल्याण ने सपा से दोस्ती कर ली यह अलग बात है कि इस दोस्ती का परिणाम सपा के लिए अच्छा नहीं रहा। सपा के सभी मुस्लिम मत कांग्रेस की ओर मुड़ गए और कांग्रेस को शानदार सफलता मिली एकदम चौंकाने वाली।

ले देकर भाजपा के पास एक महिला नेता हैं सुषमा स्वराज। उनका इस्तेमाल तब किया जाता है जब जरुरत पड़ती है। वह ऐसे आलू की तरह हैं जिसे किसी भी सब्जी में फिट किया जा सकता है। सुषमा के पास ऐसा व्यक्तित्व है जो महिलाओं को अपनी ओर आसानी से खींच लाए लेकिन भाजपा महिला नेता के रुप में उनका इस्तेमाल करने में पता नहीं क्यों झिझकती है।

अयोध्या विवाद के बाद भाजपा नेताओं ने क्या कभी ऐसा कार्यक्रम चलाया जो उन्हें आम जनता से जोड़ सके? मंदिर मुद्दे पर जो कार्यक्रम चलाए भी गए वह विश्व हिंदू परिषद ने चलाए थे। भाजपा ने नहीं। अयोध्या में मारे गए लोग विहिप के कार्यकर्ता रहे भाजपा के नहीं। भाजपा नेताओं ने तो सिर्फ मंदिर आंदोलन की मलाई खाई। भाजपा नेता सत्ता सुख के इतने आदी हो गए हैं कि उन्हें सिर्फ आरामतलबी पसंद हैं। वे अब भी आशा रखते हैं कि संघ के आनुषंगिक हिंदू संगठन उन्हें सत्ता तक पहुंचा देंगे और उन्हें बैठे बिठाए सत्ता का लाभ मिलने लगेगा सत्ता की चाह ने भाजपा नेताओं को आंतरिक द्द्व और कलह में बुरी तरह उलझा दिया है। इस उलझाव ने उनके दिमाग को कुंद कर दिया है और आखों पर पट्टी बांध दिया है। वो कुछ सोचने और देखने में असमर्थ हो गए हैं। उस नेतृत्व का हम क्या करे जो समय की इबारत पढ़ने और जलभावनाओं को समझने में असमर्थ रह जाता है।

राहुल गांधी पिछले दो तीन वर्षों से देश में घूम रहे हैं। गरीब लोगों के झोपड़ों में रातें बिताते हैं। उनके साथ रुखा सूखा भोजन करते हैं। उनके दुख दर्द को समझते हैंय़ उनकी हमदर्दी और सहानुभूति प्राप्त करते हैं। सोनिया गांधी भी देश के विभिन्न भागों में जाती रहती है। स्थानीय लोगों से मिलती रहती हैं उनकी समस्याएं गौर से सुनती हैं आम लोगों का दिल जीत लेती हैं। देश में युवकों की संख्या बुजुर्ग मतदाताओं से कम नहीं है। महिलाएं भी खासी संख्या में हैं। क्या इस वर्ग को आकर्षित करने के लिए भाजपा की ओर से किसी को लगाया गया? सुषमा स्वराज, मेनका गांधी, वरुण गांधी कई ऐसे नेता हैं जिनकी उर्जा का इस्तेमाल पार्टी को जन जन तक पहुंचाने में किया जा सकता है। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को पता नहीं क्यों इन नेताओं की लोकप्रियता बढ़ने से डर लगता है।

गोविंदाचार्य, उमा भारती, कल्याण सिंह जैसे लोगों को निकाल तो दिया गया लेकिन उन जैसे कितने नेता पैदा किए गए? एक नेता जब पार्टी छोड़ता है तो उसके ढेर सारे समर्थकों का पार्टी से मोहभंग हो जाता है। चुनावों में एक दो फिसदी मत का भी काफी महत्व होता है। संघ का सिद्धांत शायद ही कभी परवान चढ़े। पिछले वर्षों में भाजपा ने जितने चुनाव जीते हैं उसमें संघ की कोई भूमिका नहीं थी। गुजरात में तो तोगड़िया के कड़े विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी जीते। संघ के नेताओं ने भी उनका साथ नहीं दिया। वे जीते तो विकास कार्यों की बदौलत। संघ भाजपा को फिर अपने अरदब में लेने की कोशिश कर रहा है। वह भाजपा पर पूरा नियंत्रण चाहता है। अटल जी जैसा कोई दूसरा नेता नहीं है जो संघ के नियंत्रण को अस्वीकार कर दे लेकिन यदि भाजपा को जिंदा रहना है तो अटल जी जैसा नेता पैदा करना होगा जो लोग संघ के काडर के नहीं हैं उन्हें भी अहमियत देनी होगी।

बुधवार, 20 मई 2009

फिर बैतलवा डाल पर

अमर-मुलायम की समाजवादी पार्टी एक बार फिर उसी हालत में आ गई है, जिस हालत में पिछले लोकसभा चुनाव के बाद थी। उस समय यूपीए को सपा के समर्थन की कोई जरुरत नहीं थी, लेकिन सपा बार-बार दुहरा रही थी कि हमने यूपीए सरकार को बिना शर्त समर्थन दिया है। कांग्रेस लगातार सपा के समर्थन को नकारती रही। सोनिया गांधी की बेरुखी यहां तक थी कि एक बार अमर सिंह उनसे मिलने के लिए बाहर बैठ कर एक घंटे तक इंतजार करते रहें। लेकिन सोनिया ने उनसे मिलना मुनासिब नहीं समझा। अमर सिंह को चाय के लिए भी नहीं पूछा गया और वे उल्टे पांव लौट गए। इस अपमान से झल्लाए अमर सिंह गाहे बगाहे सोनिया जी पर अपनी भड़ास निकलते रहे।

लेकिन सोनिया गांधी इस कहावत को चरितार्थ करती रहीं कि हाथी अपने रास्ते पर चलता जाता है। वह किसी की रोकटोक की परवाह बिल्कुल नहीं करता है। पंद्रवही लोकसभा के चुनाव में गर्व से भरे हुए सपा ने कांग्रेस के महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी दिग्विजय सिंह को कम खरी खोटी नहीं सुनाई। सपा से चुनावी गठबंधन के लिए कांग्रेस ने काफी प्रयास किए। लेकिन बात नहीं बनी। सपा सोलह सीटों से ज्यादा कांग्रेस को देने को तैयार नहीं थी। मुलायम सिंह कहते थे कि कांग्रेस को हारने के लिए सीटें क्यों दी जाएं। दिग्विजय सिंह ने कहा ठीक है लेकिन कुछ सीटों पर कांग्रेस और सपा में दोस्ताना संघर्ष होगा।

सपा को यह मंजूर नहीं था। अमर सिंह का कहना था कि दोस्ताना संघर्ष जैसा कुछ नहीं होता है। या दोस्ती होता है या संघर्ष। उन्होंने दिग्विजय सिंह पर आरोप भी लगाया था कि सपा और कांग्रेस में चुनाव गठबंधन उन्हीं की वजह से नहीं हो पा रहा है। इस संबंध में सोनिया गांधी से भी सपा नेताओं की बात हुई। लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। बातचीत का दौर जारी था तभी सपा ने पचास सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। इसके बाद कांग्रेस ने एकला चलो का रास्ता अपनाया और उसने अपने दम पर लोकसभा की 21 सीटें उत्तर प्रदेश में जीतीं। यानि सपा से सिर्फ दो सीटें कम। दरअसल सपा नेताओं को यकीन था कि केंद्र में कोई भी सरकार उनके सहयोग के बिना नहीं बनेगी। वे किंग मेकर की भूमिका में होंगे। सपा यूपीए सरकार में शामिल होगी और जमकर कीमत वसूलेगी। अमर सिंह का सपना था कि अपने उद्योगपति और बॉलीवुड के दोसेतों के जो भला वह सरकार के बाहर रहकर नहीं कर सके, वह सरकार में रहकर कर सकेंगे।

परमाणु डील के मुद्दे पर वामपंथियों द्वारा यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद बेशक मनमोहन सिंह ने सरकार बचाई थी और भारत अमेरिका से परमाणु डील करने में सफल हुआ था, लेकिन अमर सिंह ने इसकी भरपूर कीमत वसूलने की कोशिश की थी। अपने एक उद्योगपति दोस्त के आत्मसंतोष के लिए मुकेश अंबानी का लाभांश कम कराने का भरसक प्रयास किया था, लेकिन प्रधानमंत्री उनके दबाव के सामने झुके नहीं। आय से ज्यादा संपत्ति की सीबीआई जांच के मामले में सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख से तिलमिलाए अमर सिंह ने चाहा कि सोनिया गांधी कारगर हस्तक्षेप करें। लेकिन सोनिया गांधी के स्पष्ट इनकार से अमर सिंह इस इस कदर बौखला गए कि उनके जुबानी तीर फिर सोनिया पर बरसने लगे।

किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना सोनिया का स्वभाव है। वह इस बात के लिए कमर कसकर तैयार थी कि सपा द्वारा समर्थन वापस ले लेने पर लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करा दिया जाएगा मुलायम सिंह को अपनी पार्टी की लोकप्रियता पर उसी अति विश्वास था, जिस तरह बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान को। इन नेताओं ने मिलकर चौथा मोर्चा बनाया और यूपी तथा बिहार में सभी सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर दिए। उनका लक्ष्य था इन राज्यों में कांग्रेस को पैर मत जमाने दो और यूपीए सरकार से सौदेबाजी करते रहो।

मुलायम और लालू ये नहीं समझ पाए कि जनता इनकी तिकड़मी और स्वार्थ केंद्रित राजनीति से ऊब चुकी है। वह स्थिरता, स्वक्षता ईमानदारी और विकास चाहती है। कांग्रेस ने दोनों ही राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। परिणाम सामने है। मुलायम और लालू यादव कहीं के नहीं रहे। मुलायम ने अमर सिंह की राय को शिरोधार्य करते हुए कल्याण सिंह को भाजपा से तोड़ा, लेकिन पासा उलटा पड़ गया। कल्याण सिर्फ बुलंदशहर और एटी की सीटें जिता पाए। पहली पर सपा जीती और दूसरे पर वो खुद। लेकिन सपा का नुकसान इस हद तक किया कि सारे मुस्लिम वोट कांग्रेस की ओर चले गए।

सोनिया गांधी की खासियत यह है कि वह अपने साथ किए गए छल को भूलती नहीं हैं। वह उस घटना को आज तक नहीं भूली हैं, जब मुलयाम सिंह यादव ने उन्हें विदेशी महिला करार देते हुए समर्थन देने से इंकार कर दिया था और लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता होने के बावजूद न्हें विपक्ष में बैठना पड़ा था। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में चौथे मोर्चे ने उत्तर प्रदेश और बिहार में सारी सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करके उनका जो अपमान किया, उसे भी शायद ही कभी वो भूल पाएं। अब केंद्र सरकार में मुलायम और लालू को हिस्सेदारी की उम्मीद छोड़कर भविष्य की चिंता शुरु कर देनी चाहिए।

गुरुवार, 14 मई 2009

लौह महिला ममता बनर्जी

बंगाल की शेरनी और तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमों ममता बनर्जी ने स्पष्ट किया है कि जहां माकपा होगी वहां वो नहीं होंगी। मतलब ये कि यदि यूपीए सरकार माकपा के समर्थन से बनती है तो तृणमूल कांग्रेस न तो उसे समर्थन देगी। और नहीं उसमें शामिल होगी। इस बीच कांग्रेस ने अपना झुकाव लेफ्ट की तरफ दिखाया है। साथ ही लेफ्ट भी कांग्रेस को लेकर थोड़ी नरम हुई। हांलाकि माकपा के महासचिव प्रकाश करात कहने के लिए कई बार ये कह चुके हैं कि लेफ्ट कांग्रेस के नेतृत्व में बनने वाली सरकार का समर्थन नहीं करेगी। करात और लेफ्ट तीसरे मोर्चे का सपना संजोए हुए हैं। उसके मन में भी शंका है लेकिन फिर भी वो दुनिया से कहते हैं कि उन्हें पूरा विश्वास है कि तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी।

ममता बनर्जी ने कहा है कि यूपीए सरकार को माकपा के समर्थन की आश्यकता ही नहीं पड़ेगी। हमें और नेताओं का बातों पर भरोसा भले ही न हो। लेकिन ममता बनर्जी की इस बात पर पक्का यकीन है। इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है। ममता और माकपा में मेलमिलाप बिल्कुल नामुमकिन है। बंगाल में माकपा काडर के अत्याचारों से ममता बेहद क्षुब्ध रही हैं। जब केंद्र में नरसिंह राव की सरकार थी और माकपा से मधुर रिश्ते बनाए हुए थी तब ममता इसका लगातार विरोध करती रहीं। उनके इसी विरोध के चलते माकपा कार्यकर्ताओं ने उनपर जानलेवा हमला कर दिया। नौबत यहां तक आ गई कि लोकसभा में नरसिंह राव सरकार के विरुद्ध लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के लिए ममता को स्ट्रेचर पर लाया गया। उस समय ममता ने केंद्र सरकार से बंगाल की आतताई वाम मोर्चे की सरकार के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की। लेकिन नरसिंह राव ने उनकी मांग अनसुनी कर दी।

दरअसल नरसिंह राव को केंद्र में बने रहने के लिए माकपा की जरुरत महसूस हो रही थी। ममता पर क्रूर हमले की निंदा भी नरसिंह राव ने नहीं की। एक प्रधानमंत्री के नाते किसी तरह की कार्रवाई करने का आश्वासन भी ममता को नहीं दिया। नरसिंह राव के रवैये और कांग्रेस पार्टी के निकम्मेपन से ममता बेहद क्षुब्ध हुई और उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस के नाम से अलग पार्टी बना ली। ममता वाम मोर्चे की सरकार की जन विरोधी नीतियों का डटकर विरोध करती रहीं।

एक बार जब वह वाम मोर्चे की सरकार के खिलाफ अनिश्चितकालीन धरने पर बैठी थीं, तब माकपा काडर ने उनपर दुबारा जानवेला हमला किया। तीसरा हमला ममता की मां पर उस समय किया गया जब ममता घर पर नहीं थीं। लेकिन ममता तो अपनी शर्तों पर जीने वाली और अपनी शर्तों पर राजनीति करने वाली लौह महिला हैं, वह माकपा काडर की उदंडता. क्रूरता, और अमानवीयता के खिलाफ चट्टान बनकर खड़ी रहीं और बंगाल जैसे राज्य में जहां चप्पे-चप्पे पर माकपा काडर की मौजूदगी हो, ममता अकेले संघर्ष करती रहीं। उनकी दृढ़ता और उनका संकल्प उस समय भी नहीं डिगा जब उनके कुछ साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया।

सिंगूर औऱ नंदीग्राम के किसानों को कुशल नेतृत्व दिया।। इन दोनों स्थानों में माकपा काडरों ने किसानों पर बेइंतहां जुल्म ढाए। सिंगुर के किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रही एक स्थानीय युवती को गायब कर दिया गया। उसका कुछ पता नहीं चला। सिंगुर के किसान टाटा की नैनो कार के कारखाने का विरोध कर थे जो उनकी उपजाऊ जमीन पर लगाया जा रहा था। अंतत: टाटा को अपना कारखाना हटाकर गुजरात ले जाना पड़ा। नंदीग्राम की कीमती और उपजाऊ जमीन बंगाल सरकार एक विदेशी कंपनी को सेज के लिए दे रही थी। वहां के किसान इसका विरोध कर रहे थे। यह गांव मुस्लिम बहुल है। माकपा काडरों मे गांव की महिलाओं के साथ बलात्कार किया। कई को जबरदस्ती उठा ले गए। कई किसानों की हत्याएं की। उनके घर जला दिए। गांव छोड़कर पुलिस की सुरक्षा में बनाए गए शिविरों में रह रहे किसानों को भी माकपा काडरों ने नहीं छोड़ा। वे शिविरों में घुसकर किसानों पर गोलियां बरसाते रहे।

बंगाल की पुलिस में सरकार ने बड़ी संख्या में अपने कार्यकर्ताओं की भर्ती की है वे जानबूझकर आंखे बंद किए रहे। इन अत्याचारों से किसान डिगे नहीं। उनके पीछे ममता बनर्जी की शक्ति थी। यहां भी किसान जीते। सरकार को सेज की योजना रद्द करनी पड़ी। माकपा काडरों द्वारा बाद तक तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर हमले किए जाते रहें।

बंगाल के लोग दुर्गा के रुप में देखते हैं। ममता की असीम शक्ति के सामने बंगाल सरकार बार-बार हारती रही। नंदीग्राम विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव में माकपा की शर्मनाक पराजय हई। पंचायत चुनावों में भी तृणमूल कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। अब कांग्रेस और तृणूमूल कांग्रेस एक साथ लोकसभा में अपना दांव खेल चुकी हैं। वैसे दोनों पार्टियों के आने वाले नतीजों से वाम मोर्चे की नींद उड़ी हुई है। अनुमान है कि कम से कम 15 सीटें गठबंधन को मिलेंगी।

यदि ऐसा है तो मानना पड़ेगा कि वाम मोर्चे के पांव बंगाल की धरती से उखड़ रहे हैं। वाम मोर्चे को अगले विधानसभा चुनाव की चिंता सताने लगी है। ममता बनर्जी के लगातार बढ़ते चट्टानी कदमों को रोक पाने में वह अपने आपको असमर्थ पा रही है। तृणमूल कार्यकर्ताओं का उत्साह अत्याचारी माकपा काडरों पर भारी पड़ने लगा है। क्योंकि बंगाल की जनता कहीं न कहीं से माकपा से उब चुकी है। वो अब ममता के साथ खड़ी नजर आ रही है।

ममता ने ऐलान किया है कि इस बार वह राजद सरकार में शामिल नहीं होंगी। उनकी निगाह में भाजपा सांप्रदायिक पार्टी है। यह निर्णय ममता ने बंगाल के मुसलमानों को देखते हुए लिया है। जिनके समर्थन के बिना विधानसभा चुनावों में निर्णायक बढ़त नहीं हासिल की जा सकती है। यदि वाम मोर्च का समर्थन यूपीए ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए लिया तो ममता यूपीए सरकार का समर्थन नहीं करेंगी।

राजग में शामिल होने की गलती वह दुहराएंगी नहीं। ऐसी हालत में वह क्या फैसला लेंगी ये देखना दिलचस्प होगा। बस कुछ दिन और इंतजार करना है।

मंगलवार, 12 मई 2009

केंद्र में नई सरकार-किंतु परंतु के साथ

15वीं लोकसभा के लिए पांचवें और अंतिम दौर के चुनाव 13 मई को संपन्न हो जाएगा। एक्जिट पोल पर चुनाव आयोग द्वारा लगाए गए प्रतिबंध से किसी पार्टी के बारे में दावे के साथ कोई भविष्यवाणी करना निहायत कठिन है। लेकिन संभावनाओं और अटकलबाजियों का दौर चल पड़ा है। देश की सबसे बड़ी पार्टियां कांग्रेस और भाजपा के प्रवक्ता क्रमश: यूपीए और राजग की सरकारें बनने के दावे कर रहे हैं। मीडिया विशेषज्ञों का आंकलन है कि दोनों पार्टियों में से किसी को लोकसभा में बहुमत नहीं मिल पाएगा। यह भी स्पष्ट रुप से नहीं कहा जा सकता कि दोनों प्रमुख पार्टियों में से किसे ज्यादा सीटें मिलेंगी हालांकि एक कांग्रेस परस्त समाचार पत्र कांग्रेस को बढ़त दिलाने में जुटा हुआ है। यदि इसकी बात मान लें तो कांग्रेस भाजपा से ज्यादा सीटें जीतेगी।

एक बात तो साफ है गठबंधन सरकारों के दौर में राष्ट्रपति और राज्यपालों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। राष्ट्रपति के सामने दो विकल्प होते हैं। एक तो यह कि वह सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करे और लोकसभा में बहुमत साबित करने के लिए समय दे। दूसरा विकल्प यह होता है कि राष्ट्रपति दोनों बड़ी पार्टियों से सरकार बनाने का दावा करने वाली पार्टी से सूची मांगते हैं। जिससे साबित हो सकते कि लोकसभा में उस पार्टी को बहुमत का समर्थन प्राप्त है। चूंकि मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल सत्तारुढ़ दल से संबद्ध रही हैं, इसलिए इसी बात की संभावना ज्यादा है कि यदि भाजपा के मुकाबले कांग्रेस की एक सीट भी ज्यादा रही तो उसे ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें। भाजपा से पिछड़ने के बावजूद वह कांग्रेस को बहुमत जुटाने का समय दे सकती है। ऐसी स्थिति में दोनों ही बड़ी पार्टियां सहयोगी दलों का समर्थन जुटाने में लग जाएंगी।

पहले देखते हैं कि कांग्रेस के साथ मौजूदा समय में कौन सी पार्टी है। पिछली सरकार कांग्रेस ने वाममोर्चे के समर्थन से बनाई थी। इस बार वाम मोर्चा कांग्रेस यानी यूपीए के साथ नहीं है। लालू यादव और रामविलास पासवान यह कहकर कांग्रेस में संकट डाल चुके हैं कि प्रधानमंत्री का चुनाव यूपीए करेगा। सपा स्पष्ट कर चुकी है कि यूपीए को समर्थन के सवाल पर चुनाव परिणाम आने के बाद विचार किया जाएगा। द्रमुक यूपीए के साथ है लेकिन तमिलनाडु की अन्य छोटी पार्टियों के बारे में नहीं कहा जा सकता। महाराष्ट्र में शरद पवार स्वयं प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। यदि तीसरा मोर्चा इस स्थिति में आया कि वह एक-दो पार्टियों का समर्थन लेकर सरकार बना सकता है तो शरद पवार तीसरे मोर्चे के साथ जा सकते हैं। यही हालत बसपा और लालू यादव की भी है। कह सकते हैं कि यूपीए इस वक्त बुरी तरह बिखरा हुआ है। उसे क्षेत्रीय दलों का समर्थन तभी मिलेगा जब वह सरकार बनाने के लिए आमंत्रित की जाएगी या राष्ट्रपति दोनों बड़े दलों को बहुमत जुटाने का समय देंगे।

यूपीए के मुकाबले राजग की स्थिति स्पष्ट है। उसके साथ जदयू, अकाली, शिवसेना, जैसी पार्टियां हैं। साथ ही उसे बीएसपी और अन्नाद्रमुक का भी समर्थन मिल सकता है क्योंकि द्रमुक से कांग्रेस का गठबंधन पहले से ही है। लेकिन इस बार तमिलनाडु में द्रमुक की स्थिति पहले से कमजोर रहेगी। राजनीतिक समीक्षक पंजाब, उड़ीसा, राजस्थान, केरल और बंगाल में कांग्रेस की स्थिति बेहतर मान रहे हैं। उत्तर प्रदेश में उसकी स्थिति पहले के मुकाबले अच्छी रहेगी। मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात और कर्नाटक में भाजपा बेहतर प्रदर्शन करेगी। पंजाब में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने का लाभ कांग्रेस को मिलेगा, इसमें दो राय नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश में भी वह भाजपा से अच्छी स्थिति में रहेगी, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। इस राज्य में सपा पहले की अपेक्षा कमजोर रहेगी। बसपा के कारण उसे झटका लगेगा लेकिन दोनों ही पार्टियों की सीटें लगभग बराबर रहने की संभावना है।

राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला है। जबकि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की स्थिति ज्यादा मजबूत रहेगी। मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, बिहार में कांग्रेस के लिए खाता खोलना मुश्किल होगा। उड़ीसा में भाजपा और बीजद सीटें बांटेगी। आंध्र प्रदेश में फिल्म स्टार चिंरजीवी कांग्रेस को व्यापक क्षति पहुंचा रहे हैं। ऐसी स्थिति में इस बात की संभावना नहीं दिखाई देती कि कांग्रेस भाजपा पर बढ़त बनाने की हालत में होगी। केरल में अवश्य कांग्रेस को इस बार लाभ मिलेगा। तीसरा मोर्चा जब सरकार नहीं बना पाएगा तब उसमें भगदड़ मचेगी। ज्यादा संभावना यही है कि जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, तमिलनाडु की अन्य छोटी पार्टिय़ां भी राजग के साथ हो जाएंगी।

मायावती की बसपा को यदि सरकार में शामिल होना स्वीकार न हो तो वह बाहर से राजग को समर्थन दे सकती हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वाममोर्चा उसके नेतृत्व में बनने वाली किसी भी सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार नहीं होगा। यदि जोड़ तोड़ करने पर वह राजी होगा तो तृणमूल कांग्रेस के समर्थन से यूपीए को हाथ धोना पड़ेगा। दक्षिण या उत्तर पूर्व के जिन राज्यों में कांग्रेस मजबूत स्थिति में है, वहां सीटें बहुत कम है जबकि भाजपा जिन राज्यों में मजबूत हैं वहां सीटें अपेक्षाकृत ज्यादा हैं। भाजपा को इसका लाभ मिलेगा।

दिल्ली में शीला दीक्षित का सौम्य व्यक्तित्व और उनकी लोकप्रियता का लाभ कांग्रेस इस बार भी उठाएगी। उनके मुकाबले विजय़ मल्होत्रा कहीं नहीं ठहरते। उड़ीसा में भी भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा फायदा मिलने की संभावना है। इस संभावना को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता कि राजग के पुराने साथी नवीन पटनायक एक बार फिर राजग के साथ हो लें। लेकिन इन सारी संभावनाओं के बीच एक बात खास तौर पर महत्वपूर्ण है कि देश में ऐसी पार्टियों की कमी नहीं है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष छवि बनाए रखना चाहती है। इस प्रवृत्ति का लाभ यूपीए उठा सकता है।

हम फिर दुहरा दें कि केंद्र में सरकार बनाने में राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। बशर्ते भाजपा और कांग्रेस में से कोई पार्टी अकेले दम पर पूर्ण बहुमत के साथ लोकसभा में न पहुंच जाए। यह करिश्मा उत्तर प्रदेश में बसपा दिखा चुकी है।

सोमवार, 4 मई 2009

बेबाक जुबां: आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा तुम्हारी ओर#links#links

बेबाक जुबां: आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा तुम्हारी ओर

बेबाक जुबां: नेपाल में राजनीतिक संकट

बेबाक जुबां: नेपाल में राजनीतिक संकट

आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा तुम्हारी ओर

शादी होने से लेकर बच्चा पैदा होने तक का
एक चक्र पूरा हो जाएगा
तब नहीं जानता कि उस चक्र में मैं कहां रहूंगा
केंद्र में, परिधि पर या परिधि के बाहर
* ** * * * *
कैसे बताऊं
कि रबर की तरह खींचकर
छोड़ दिए जाने के सिलसिले ने
कितना लहूलुहान किया है मुझे
** ** ** *

नहीं कहता कि
मेरे लहूलुहान होते जाने से
तुम कोई सरोकर रखो
यह भी नहीं चाहता कि मेरे सपनों को
अच्छादित करने वाले अपने स्पर्श को
एक खबर बन जाने दो
तुम सिर्फ एक जगह
तलाश दो मेरे लिए
जहां महसूस कर सकूं
अपने होने की गरमाहट
जब खिलेगा मौसम कहकहाकर
जंगल में एक ठूंठ की तरह
बांटता रहूंगा मैं खुद को
जीने का मुआवजा
** ** ** **
नहीं जानता क्या होगा तब
ढेर सारे निरर्थक शब्दों के बीच
एक मुहावरे जैसा
दिखने की कोशिश का
** ** **

उग आए हैं लोग
कंटीली झाड़ियों की तरह
मेरे इर्दगिर्द
अब कैसे तानू अपनी बाहें
आकाश की ओर
जो दृष्टि के पार थम गया हैं कहीं
** ** ** **
बहुत हो चुका
रंगों का बतरतीब तैरना हवा में
तुम कोई छोर पकड़ कर उछाल दो
मेरी ओर
हो सकता है कोई सुकून मिल जाए
मेरे नाम को भी
** ** ** ** **

तुम्हारी हथेलियों का स्पर्श
लौट आता है बार बार
छा जाता है मेरे सपनों पर
आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा
तुम्हारी ओर

रविवार, 3 मई 2009

नेपाल में राजनीतिक संकट

पडो़सी देश नेपाल में गंभीर राजनीतिक संकट खड़ा हो गया है। इसका अनुमान सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' ने अपनी चीन यात्रा रद्द कर दी। वह दो मई को चीन जाने वाले थे। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि एक दिन तो यह खबर फिजा में तैर गई कि सेना ने 'प्रचंड' का तख्ता पलट दिया। सेना को इस खबर का खंडन करना पड़ा। लेकिन इसने प्रधानमंत्री की नींद तो उड़ा ही दी। उन्होंने मन ही मन स्वीकार किया कि इस उड़ती खबर में कुछ सच्चाई भी हो सकती है और अपनी प्रस्तावित चीन यात्रा रद्द कर दी।
लेकिन एक बात तो सच है कि सेना और सरकार में गंभीर मतभेद पैदा हो गए हैं। इस हद तक कि प्रधानमंत्री 'प्रचंड' सेनाध्यक्ष नवरत्न रुकमांगत कटवाल को नाफरमानी के आरोप में बर्खास्त करना चाहते हैं लेकिन उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि इस फौर कार्रवाई के बाद सेना बगावत न कर दे।
दरअसल 'प्रचंड' चाहते हैं कि उनकी पार्टी के पंद्रह हजार हथियारबंद लड़ाकों को सेना में शामिल कर लिया जाए। इससे दो फायदे होंगे एक तो सेना पर उनकी पकड़ मजबूत हो जाएगी और दूसरे निठल्लों को नियमित रोजगार मिल जाएगा।

सेनाध्यक्ष कटवाल इसके लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि सेना में भर्ती नियमानुसार ही की जा सकती है। माओवादी कैडर के लोग थोक के भाव में सेना में शामिल नहीं किए जा सकते। इस प्रकार प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच अविश्वास की इतनी गहरी खाई पैदा हो गई है कि उसे पाट पाना अब किसी के बस का नहीं रह गया हैं। या अविश्वास बहुआयामी है। सरकार और सेना के बीच तो है ही सरकार के घटक दलों के बीच , सरकार और विपक्ष के बीच तथा सेना के जनरलों के बीच भी है।
नेपाल में चीन की दिलचस्पी तो जगजाहिर है ही, भारत की सुस्ती और निश्चिंतता भी जगजाहिर है।

चीन की कोशिश है कि नेपाल में पूरी तरह माओवादियों का शासन स्थापित हो जाए और सरकार तथा सेना में जो भी थोड़े बहुत भारत समर्थक तत्व हैं उनका सफाया कर दिया जाए। इसीलिए वह नेपाल के माओवादियों को हथियारों की सप्लाई तो देता ही रहा उन्हें आर्थिक मदद भी देता रहा। लेकिन दुर्भाग्यवश नेपाल में अभी माओवादियों की जड़ें इतनी मजबूत नहीं हो पाई हैं कि वहां की जनता पर उनका अकाधिपत्य स्थापित हो जाए।

'प्रचंड' को अपनी नीतियां लागू करने में सरकार के गैर कम्युनिस्ट घटक दलों की अड़ंगेबाजी का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन नेपाल के शासकों का चीन के साथ संपर्क लगातार बना हुआ है। चीन नेपाल को सीधे रेलवे लाइन से जोड़ने के प्रयास में भी है ताकि मौका आने पर वह नेपाल की सैनिक और आर्थिक मदद फौरी तौर पर कर सके। चीन भी नेपाल सरकर पर दबाव बना रहा है कि वहा माओवादी कैडर को सेना में शामिल करने में शीघ्रता बरते। लेकिन सेनाध्यक्ष कटवाल के रहते यह संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए सरकार उनसे जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहती है और लेफ्टिनेंट जनरल कुल बहादुर खड़का को सेनाध्यक्ष बनाना चाहती है। जनरल कटवाल अगले सितंबर महीने में अवकाश ग्रहण करने वाले हैं।
नेपाल के माओवादी भारत की तरफ से इसलिए निश्चिंत हैं क्योंकि वे मानते हैं कि भारत एक नरमपंथी देश हैं इसलिए उससे नेपाल के मामले में कारगर हस्तक्षेप की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन शायद नेपाल को यह पता नहीं है कि भारत के रुचि लिए बिना ही नेपाल में शांति प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकती है। इस बीच नेपाल सरकार ने सेना में फूट डालने की कोशिशें तेज कर दी हैं। वह ऐसे हालात पैदा करना चाहती है कि सेनाध्यक्ष कटवाल खुद पद छोड़ दे और वह अपने मन मुताबिक लेफ्टिनेंट जनरल को जनरल बनाकर सेना उसके हवाले कर दे ताकि माओवादी कैडरों और सेना के एकीकरण की प्रक्रिया जल्द पूरी हो जाए।
भारत की जरुरत से ज्यादा निष्क्रियता नेपाल के माओवादियों और चीन की सक्रियता को बढ़ावा दे रही है। भारत की खुफिया एजेंसियां उस समय भी विफल साबित हुई थी जब पोखरा स्थित राजमहल में चीन की खुफिया एजेंसी और ज्ञानेंद्र के बीच तत्कालीन नेपाल नरेश वीरेंद्र को समाप्त करने की योजना बन रही थी और उसे अंतिम रुप दिया जा रहा है था। यह षणयंत्र इतने गुप्त रुप से रचा गया और अंजाम पहुंचाया गया कि भारत की रॉ और अन्य देशों की खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी।

चीन महाराज वीरेंद्र की लोकप्रियता को अच्छी तरह समझ रहा था और इस नतीजे पर भी पहुंचा था कि महाराज वीरेंद्र के परिवार का समूल नाश किए बिना नेपाल में पांव जमाना बेहद कठिन है। उसने एक तीर से दो निशाने साधे एक तो महाराज वीरेंद्र का सफाया उनके अनुज ज्ञानेंद्र के हाथों करवाया और दूसरे ज्ञानेंद्र को जनता की नजरों में खलनायक बना दिया। ज्ञानेंद्र ने एक ऐसे शासक के रुप में नेपाल की गद्दी संभाली जिसे जनता घृणा की निगाह से देखती थी। अब चीन और नेपाल में सक्रिय माओवादियों के लिए जन समर्थन प्राप्त करना और अपना सशस्त्र अभियान चलाना आसान हो गया। चीन अपने उद्देश्य में सफल हो गया। लेकिन अभी भी उसके लिए बहुत कुछ करना शेष है।

भारत सरकार अगर इसी तरह उदासीन रही तो रही सही कसर भी पूरी हो जाएगी।