सोमवार, 25 मई 2009
कलंक से बच गई काशी
काशी ने विश्व को एक विशिष्ट संस्कृति दी है। पहचान दी है। यहां की रईसी मशहूर है तो गुंडई भी मशहूर है। गायकी मशहूर है तो मस्ती और अक्खड़पन भी मशहूर है। काशी की संस्कृति को संवारने में कई विभूतियों ने अपना पूरा जीवन साधना को समर्पित कर दिया। काशी धनाढ्यों को प्रश्रय देती है तो विधवाओं को मोक्ष के लिए आश्रय देती है। कहते हैं काशी में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता है। ‘चना-चबैना-गंगाजल’ यहां हमेशा मौजूद रहता है। यतीम लोगों की क्षुधा शांत करने के लिए।
लोकसभा में या दुनिया के किसी कोने में जो व्यक्ति काशी का प्रतिनिधित्व करता है वह काशी से धन्य हो जाता है। काशी उससे धन्य नहीं होती। काशी उदात्त मूल्यों के साथ जी रही है। काशी का स्वरुप भले बदल गया हो, बदलता जाए लेकिन उसके बुनियादी मूल्य कभी नहीं बदलेंगे ऐसा विश्वास यहां के लोगों में कूट-कूट कर भरा हुआ है। इतिहास गवाह है कि देश की सर्वोच्च संस्था लोकसभा में काशी ने कभी किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं भेजा है जो काशी की गरिमा के अनुरुप न हो। उसी व्यक्ति ने काशी का प्रतिनिधित्व किया है जिसने अपने भीतर काशी के मूल्यों को समाहित कर लिया है। जो काशी के मूल्यों के साथ जीता रहा है। रहने वाला कहीं का हो, पैदा कहीं हुआ हो लेकिन काशी की संस्कृति का कोई न कोई तत्व उसके भीतर मौजूद अवश्य हो।
पंद्रहंवी लोकसभा में काशी का प्रतिनिधित्व करने वाले डॉ. मुरली मनोहर जोशी उसी परंपरा की एक कड़ी हैं जिसमें पं. कमालपति त्रिपाठी, डॉक्टर रघुनाथ सिंह जैसे लोग थे। यदि वैज्ञानिक सिर्फ वैज्ञानिक, भौतिकवादी हो, वस्तुवादी हो तो कोई विशेष बात नहीं है। लेकिन वह वैज्ञानिक होने के साथ ही यदि धार्मिक हो, सांस्कृतिक हो, आस्थावान हो और देश की मिट्टी की तासीर को पहचानता हो, अपनी परंपरा और गौरवमय अतीत की उपलब्धियों पर गर्व महसूस करता हो तो निश्चित रुप से वह विशिष्ठ है।
विज्ञान तो हमारे धर्म में भी है। हमारे जीवन दर्शन में भी है और हमारे संस्कृति में भी है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यही है। हमारी संस्कृति विज्ञान की कसौटी पर बार-बार कसी गई और खरी उतरी है। हमारा अध्यात्म विज्ञान भी है और दर्शन भी। तभी तो गुरु रवींद्रनाथ टैगोर से लंबी बहस के बाद आइंस्टीन ने ईश्वर की सत्ता स्वीकार की थी।
डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी पर्वतीय हैं। देवभूमि के हैं। वे इलाहबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर रहे। यह उनका पेशा था लेकिन भीतर से आध्यात्मिक रहे। उन्होंने विज्ञान को अपनी भौतिकता पर कभी हावी नहीं होने दिया। इसके विपरीत उनके विज्ञान पर उनकी आध्यात्मिकता हमेशा हावी रही। डॉ. जोशी भले ही काशी के नहीं रहे हों लेकिन काशीमय हैं। काशी का बीजतत्व उनके भीतर अंकुरित है। वह सच्चे अर्थों में काशीवासियों के नीर-क्षीर-विवेक शक्ति के सच्चे प्रतिमान हैं। काशी ने एक ऐसे व्यक्ति को नकारा है जिसने यहां की धरती को इंसानों के खून से लाल किया था। क्या मुख्तार अंसारी कहीं से भी काशी का प्रतिनिधित्व करने लायक था? सत्ता का घिनौना खेल खेलने वाले भले ही उसे क्लीन चिट दे दें। लेकिन काशीवासियों का अपना विवेक तो जागृत है ही। उसे कुहासे की परतों से ढका नहीं जा सकता।
भली सभा में मायावती ने मुख्तार को भलेमानुस का सर्टिफिकेट दिया। उसे मसीहा बना दिया। ये काशीवासियों की मेधा का अपमान था। काशीवासियों की निजता को चुनौती थी। काशी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। और अपनी परंपरा का निर्वाह किया। अपनी अस्मिता की रक्षा की। काशी के लिए यह चुनाव साधारण चुनाव नहीं था। उसे सीता की तरह अग्निपरीक्षा से गुजरना था। काशी इस अग्निपरीक्षा में सफल हुई। उसने मौजूदा प्रत्याशियों में से सर्वश्रेष्ठ को चुना और यही काशी की गरिमा और गौरवशाली परंपरा के अनुकूल भी था। भगवान शंकर की कृपा से काशी एक बहुत बड़े कलंक से बच गई।
इसे हम काशी की महिमा का असर मान सकते हैं। दुनिया के लोग काशी के यदि इस माफिया राष्ट्रीय प्रतिनिधि (जो खुशकिस्मती से नहीं चुना गया) के बारे में जानते तो पूरी काशी उनके सामने सिर झुकाए कठघरे में खड़ी होती। क्या यही है काशी के ज्ञान के चर्मोत्कर्ष का परिणाम? सर्वविद्या की यह राजधानी कैसे लकवाग्रस्त हो गई? इन सवालों से साफ बचनिकलने का श्रेय हम चाहें काशी की आत्याध्मिक चेतने को दें या किसी दैवी शक्ति को या काशी की परंपरा को या अन्य किसी को लेकिन यह बात तो निर्विवाद है कि कासी ने अपने आपको कलंकित होने से बचा लिया।
अब डॉ. जोशी का कर्तव्य है कि काशी ने उनमें जो आस्था व्यक्ति किया है, उसकी रक्षा करने में, उस पर खरा उतरने में, वह अपनी समूची शक्ति और समूची प्रतिभा झोंके दे। अब जोशी काशी के हैं, काशी उनकी है, काशीवासियों की शुभकामनाएं उनके साथ हैं।
शनिवार, 23 मई 2009
एक कदम आगे तो दो कदम पीछे क्यों चलती है भाजपा
भाजपा में फिलहाल कोई ऐसा नेता नहीं है जिसमें चुंबकीय आकर्षण हो। कोई ऐसा थिंक टैंक नहीं है जो चुनावों के लिए प्रभावशाली मुद्दे की तलाश कर सके। कोई युवा चेहरा नहीं है जो देश के युवाओं का रुख पार्टी की ओर मोड़ सके। कोई महिला नेता नहीं है जो महिलाओं को पार्टी की तरफ ला सके। कोई ओजस्वी वक्ता नहीं है जो भीड़ को सम्मोहित कर सके। पार्टी के नेता स्वार्थ केंद्रित राजनीति में बुरी तरह लिप्त हैं। जैसे सामंती जमाने में किसी राजा के सरकार और दरबारी उसके निकम्मेपन का फायदा उठाकर निजी लाभ उठाने में इस कदर मशगूल हो जाते थे कि उन्हें दुश्मन के चढ़ आने की आहट भी नहीं लगती थी।
ऐसा नहीं है कि भाजपा के पास नेताओं का एकदम अकाल हो गया है। पहले भी नहीं था। लेकिन पता नहीं क्यों पार्टी का शीर्ष नेतृत्व व्यक्ति केंद्रित राजनीति में इस कदर उलझ जाता है कि उसे पैरों तले की जमीन भी नहीं देती। उनके निर्णय कभी कभी इतने अटपटे होते हैं, रणनीति इतनी बेजान होती है कि उनकी सोच पर तरस आता है। पता नहीं क्यों पार्टी नया नेतृत्व उभरने ही नहीं देती। यदि किसी में आगे बढ़ने की प्रतिभा होती है तो उसे कुचल दिया जाता है।
वरुण गांधी जैसे आकर्षक व्यक्तित्व के युवा नेता को बहुत दिनों तक कोल्ड स्टोरेज में बंद रखा गया और जब मंच या अवसर दिया गया तो विषवमन का पाठ रटाने के बाद। पीलीभीत में उसने जो कुछ कहा वह देश की जनता को अच्छा नहीं लगा। सराहा तो सिर्फ बाल ठाकरे और संघ के कट्टरवादी तथा सांप्रदायिक नेताओं ने। जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने राजनीतिक लाभ के लिए वरुण पर रासुका लगया तो भाजपा नेताओं ने सोचा की कम से कम उत्तर प्रदेश में इसका लाभ उसे मिलेगा। लेकिन भाजपा और संघ के नेताओं को पता नहीं कब इसका एहसास होगा कि देश की ज्यादातर जनता, सांप्रदायिकता पसंद नहीं करती है। इसलिए वरुण प्रकरण का लाभ न तो भाजपा को मिल पाया, न बसपा को। बसपा को इसलिए नहीं मिला क्योंकि ज्यादातर लोगों को लगा कि मायावती इस युवा वरुण के साथ ज्य़ादती कर रही है।
भाजपा और संघ के नेताओं ने उमा भारती का सार्थक उपयोग करने की बजाय उन्हें एक कोने में ढकेलकर निष्क्रिय कर दिया। कल्याण सिंह जैसे पुराने और निष्ठावान नेता की मामूली बात भी अनसुनी कर दी। और उन्हें पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। बुलंदशहर से उस व्यक्ति को भाजपा ने टिकट दिया जिसने डिबाई विधानसभा क्षेत्र से कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह को पराजित करने में मुख्य भूमिका निभाई थी। कल्याण सिंह नहीं चाहते थे कि बुलंदशहर संसदीय सीट से उसे टिकट दिया जाए क्योंकि यह क्षेत्र उनके प्रभाव में था। लेकिन भाजपा ने उसी अशोक प्रधान को बुलंदशहर से सीट दे दिया और वह चुनाव हार गए। इससे क्षुब्ध होकर कल्याण ने सपा से दोस्ती कर ली यह अलग बात है कि इस दोस्ती का परिणाम सपा के लिए अच्छा नहीं रहा। सपा के सभी मुस्लिम मत कांग्रेस की ओर मुड़ गए और कांग्रेस को शानदार सफलता मिली एकदम चौंकाने वाली।
ले देकर भाजपा के पास एक महिला नेता हैं सुषमा स्वराज। उनका इस्तेमाल तब किया जाता है जब जरुरत पड़ती है। वह ऐसे आलू की तरह हैं जिसे किसी भी सब्जी में फिट किया जा सकता है। सुषमा के पास ऐसा व्यक्तित्व है जो महिलाओं को अपनी ओर आसानी से खींच लाए लेकिन भाजपा महिला नेता के रुप में उनका इस्तेमाल करने में पता नहीं क्यों झिझकती है।
अयोध्या विवाद के बाद भाजपा नेताओं ने क्या कभी ऐसा कार्यक्रम चलाया जो उन्हें आम जनता से जोड़ सके? मंदिर मुद्दे पर जो कार्यक्रम चलाए भी गए वह विश्व हिंदू परिषद ने चलाए थे। भाजपा ने नहीं। अयोध्या में मारे गए लोग विहिप के कार्यकर्ता रहे भाजपा के नहीं। भाजपा नेताओं ने तो सिर्फ मंदिर आंदोलन की मलाई खाई। भाजपा नेता सत्ता सुख के इतने आदी हो गए हैं कि उन्हें सिर्फ आरामतलबी पसंद हैं। वे अब भी आशा रखते हैं कि संघ के आनुषंगिक हिंदू संगठन उन्हें सत्ता तक पहुंचा देंगे और उन्हें बैठे बिठाए सत्ता का लाभ मिलने लगेगा सत्ता की चाह ने भाजपा नेताओं को आंतरिक द्द्व और कलह में बुरी तरह उलझा दिया है। इस उलझाव ने उनके दिमाग को कुंद कर दिया है और आखों पर पट्टी बांध दिया है। वो कुछ सोचने और देखने में असमर्थ हो गए हैं। उस नेतृत्व का हम क्या करे जो समय की इबारत पढ़ने और जलभावनाओं को समझने में असमर्थ रह जाता है।
राहुल गांधी पिछले दो तीन वर्षों से देश में घूम रहे हैं। गरीब लोगों के झोपड़ों में रातें बिताते हैं। उनके साथ रुखा सूखा भोजन करते हैं। उनके दुख दर्द को समझते हैंय़ उनकी हमदर्दी और सहानुभूति प्राप्त करते हैं। सोनिया गांधी भी देश के विभिन्न भागों में जाती रहती है। स्थानीय लोगों से मिलती रहती हैं उनकी समस्याएं गौर से सुनती हैं आम लोगों का दिल जीत लेती हैं। देश में युवकों की संख्या बुजुर्ग मतदाताओं से कम नहीं है। महिलाएं भी खासी संख्या में हैं। क्या इस वर्ग को आकर्षित करने के लिए भाजपा की ओर से किसी को लगाया गया? सुषमा स्वराज, मेनका गांधी, वरुण गांधी कई ऐसे नेता हैं जिनकी उर्जा का इस्तेमाल पार्टी को जन जन तक पहुंचाने में किया जा सकता है। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को पता नहीं क्यों इन नेताओं की लोकप्रियता बढ़ने से डर लगता है।
गोविंदाचार्य, उमा भारती, कल्याण सिंह जैसे लोगों को निकाल तो दिया गया लेकिन उन जैसे कितने नेता पैदा किए गए? एक नेता जब पार्टी छोड़ता है तो उसके ढेर सारे समर्थकों का पार्टी से मोहभंग हो जाता है। चुनावों में एक दो फिसदी मत का भी काफी महत्व होता है। संघ का सिद्धांत शायद ही कभी परवान चढ़े। पिछले वर्षों में भाजपा ने जितने चुनाव जीते हैं उसमें संघ की कोई भूमिका नहीं थी। गुजरात में तो तोगड़िया के कड़े विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी जीते। संघ के नेताओं ने भी उनका साथ नहीं दिया। वे जीते तो विकास कार्यों की बदौलत। संघ भाजपा को फिर अपने अरदब में लेने की कोशिश कर रहा है। वह भाजपा पर पूरा नियंत्रण चाहता है। अटल जी जैसा कोई दूसरा नेता नहीं है जो संघ के नियंत्रण को अस्वीकार कर दे लेकिन यदि भाजपा को जिंदा रहना है तो अटल जी जैसा नेता पैदा करना होगा जो लोग संघ के काडर के नहीं हैं उन्हें भी अहमियत देनी होगी।
बुधवार, 20 मई 2009
फिर बैतलवा डाल पर
गुरुवार, 14 मई 2009
लौह महिला ममता बनर्जी
ममता बनर्जी ने कहा है कि यूपीए सरकार को माकपा के समर्थन की आश्यकता ही नहीं पड़ेगी। हमें और नेताओं का बातों पर भरोसा भले ही न हो। लेकिन ममता बनर्जी की इस बात पर पक्का यकीन है। इतिहास इस बात की गवाही दे रहा है। ममता और माकपा में मेलमिलाप बिल्कुल नामुमकिन है। बंगाल में माकपा काडर के अत्याचारों से ममता बेहद क्षुब्ध रही हैं। जब केंद्र में नरसिंह राव की सरकार थी और माकपा से मधुर रिश्ते बनाए हुए थी तब ममता इसका लगातार विरोध करती रहीं। उनके इसी विरोध के चलते माकपा कार्यकर्ताओं ने उनपर जानलेवा हमला कर दिया। नौबत यहां तक आ गई कि लोकसभा में नरसिंह राव सरकार के विरुद्ध लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के लिए ममता को स्ट्रेचर पर लाया गया। उस समय ममता ने केंद्र सरकार से बंगाल की आतताई वाम मोर्चे की सरकार के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की। लेकिन नरसिंह राव ने उनकी मांग अनसुनी कर दी।
दरअसल नरसिंह राव को केंद्र में बने रहने के लिए माकपा की जरुरत महसूस हो रही थी। ममता पर क्रूर हमले की निंदा भी नरसिंह राव ने नहीं की। एक प्रधानमंत्री के नाते किसी तरह की कार्रवाई करने का आश्वासन भी ममता को नहीं दिया। नरसिंह राव के रवैये और कांग्रेस पार्टी के निकम्मेपन से ममता बेहद क्षुब्ध हुई और उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस के नाम से अलग पार्टी बना ली। ममता वाम मोर्चे की सरकार की जन विरोधी नीतियों का डटकर विरोध करती रहीं।
एक बार जब वह वाम मोर्चे की सरकार के खिलाफ अनिश्चितकालीन धरने पर बैठी थीं, तब माकपा काडर ने उनपर दुबारा जानवेला हमला किया। तीसरा हमला ममता की मां पर उस समय किया गया जब ममता घर पर नहीं थीं। लेकिन ममता तो अपनी शर्तों पर जीने वाली और अपनी शर्तों पर राजनीति करने वाली लौह महिला हैं, वह माकपा काडर की उदंडता. क्रूरता, और अमानवीयता के खिलाफ चट्टान बनकर खड़ी रहीं और बंगाल जैसे राज्य में जहां चप्पे-चप्पे पर माकपा काडर की मौजूदगी हो, ममता अकेले संघर्ष करती रहीं। उनकी दृढ़ता और उनका संकल्प उस समय भी नहीं डिगा जब उनके कुछ साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया।
सिंगूर औऱ नंदीग्राम के किसानों को कुशल नेतृत्व दिया।। इन दोनों स्थानों में माकपा काडरों ने किसानों पर बेइंतहां जुल्म ढाए। सिंगुर के किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रही एक स्थानीय युवती को गायब कर दिया गया। उसका कुछ पता नहीं चला। सिंगुर के किसान टाटा की नैनो कार के कारखाने का विरोध कर थे जो उनकी उपजाऊ जमीन पर लगाया जा रहा था। अंतत: टाटा को अपना कारखाना हटाकर गुजरात ले जाना पड़ा। नंदीग्राम की कीमती और उपजाऊ जमीन बंगाल सरकार एक विदेशी कंपनी को सेज के लिए दे रही थी। वहां के किसान इसका विरोध कर रहे थे। यह गांव मुस्लिम बहुल है। माकपा काडरों मे गांव की महिलाओं के साथ बलात्कार किया। कई को जबरदस्ती उठा ले गए। कई किसानों की हत्याएं की। उनके घर जला दिए। गांव छोड़कर पुलिस की सुरक्षा में बनाए गए शिविरों में रह रहे किसानों को भी माकपा काडरों ने नहीं छोड़ा। वे शिविरों में घुसकर किसानों पर गोलियां बरसाते रहे।
बंगाल की पुलिस में सरकार ने बड़ी संख्या में अपने कार्यकर्ताओं की भर्ती की है वे जानबूझकर आंखे बंद किए रहे। इन अत्याचारों से किसान डिगे नहीं। उनके पीछे ममता बनर्जी की शक्ति थी। यहां भी किसान जीते। सरकार को सेज की योजना रद्द करनी पड़ी। माकपा काडरों द्वारा बाद तक तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं पर हमले किए जाते रहें।
बंगाल के लोग दुर्गा के रुप में देखते हैं। ममता की असीम शक्ति के सामने बंगाल सरकार बार-बार हारती रही। नंदीग्राम विधानसभा क्षेत्र के उप चुनाव में माकपा की शर्मनाक पराजय हई। पंचायत चुनावों में भी तृणमूल कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। अब कांग्रेस और तृणूमूल कांग्रेस एक साथ लोकसभा में अपना दांव खेल चुकी हैं। वैसे दोनों पार्टियों के आने वाले नतीजों से वाम मोर्चे की नींद उड़ी हुई है। अनुमान है कि कम से कम 15 सीटें गठबंधन को मिलेंगी।
यदि ऐसा है तो मानना पड़ेगा कि वाम मोर्चे के पांव बंगाल की धरती से उखड़ रहे हैं। वाम मोर्चे को अगले विधानसभा चुनाव की चिंता सताने लगी है। ममता बनर्जी के लगातार बढ़ते चट्टानी कदमों को रोक पाने में वह अपने आपको असमर्थ पा रही है। तृणमूल कार्यकर्ताओं का उत्साह अत्याचारी माकपा काडरों पर भारी पड़ने लगा है। क्योंकि बंगाल की जनता कहीं न कहीं से माकपा से उब चुकी है। वो अब ममता के साथ खड़ी नजर आ रही है।
ममता ने ऐलान किया है कि इस बार वह राजद सरकार में शामिल नहीं होंगी। उनकी निगाह में भाजपा सांप्रदायिक पार्टी है। यह निर्णय ममता ने बंगाल के मुसलमानों को देखते हुए लिया है। जिनके समर्थन के बिना विधानसभा चुनावों में निर्णायक बढ़त नहीं हासिल की जा सकती है। यदि वाम मोर्च का समर्थन यूपीए ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए लिया तो ममता यूपीए सरकार का समर्थन नहीं करेंगी।
राजग में शामिल होने की गलती वह दुहराएंगी नहीं। ऐसी हालत में वह क्या फैसला लेंगी ये देखना दिलचस्प होगा। बस कुछ दिन और इंतजार करना है।
मंगलवार, 12 मई 2009
केंद्र में नई सरकार-किंतु परंतु के साथ
सोमवार, 4 मई 2009
आखिर कब तक मैं यूं हीं बहता रहूंगा तुम्हारी ओर
रविवार, 3 मई 2009
नेपाल में राजनीतिक संकट
लेकिन एक बात तो सच है कि सेना और सरकार में गंभीर मतभेद पैदा हो गए हैं। इस हद तक कि प्रधानमंत्री 'प्रचंड' सेनाध्यक्ष नवरत्न रुकमांगत कटवाल को नाफरमानी के आरोप में बर्खास्त करना चाहते हैं लेकिन उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि इस फौर कार्रवाई के बाद सेना बगावत न कर दे।
दरअसल 'प्रचंड' चाहते हैं कि उनकी पार्टी के पंद्रह हजार हथियारबंद लड़ाकों को सेना में शामिल कर लिया जाए। इससे दो फायदे होंगे एक तो सेना पर उनकी पकड़ मजबूत हो जाएगी और दूसरे निठल्लों को नियमित रोजगार मिल जाएगा।
सेनाध्यक्ष कटवाल इसके लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि सेना में भर्ती नियमानुसार ही की जा सकती है। माओवादी कैडर के लोग थोक के भाव में सेना में शामिल नहीं किए जा सकते। इस प्रकार प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच अविश्वास की इतनी गहरी खाई पैदा हो गई है कि उसे पाट पाना अब किसी के बस का नहीं रह गया हैं। या अविश्वास बहुआयामी है। सरकार और सेना के बीच तो है ही सरकार के घटक दलों के बीच , सरकार और विपक्ष के बीच तथा सेना के जनरलों के बीच भी है।
नेपाल में चीन की दिलचस्पी तो जगजाहिर है ही, भारत की सुस्ती और निश्चिंतता भी जगजाहिर है।
चीन की कोशिश है कि नेपाल में पूरी तरह माओवादियों का शासन स्थापित हो जाए और सरकार तथा सेना में जो भी थोड़े बहुत भारत समर्थक तत्व हैं उनका सफाया कर दिया जाए। इसीलिए वह नेपाल के माओवादियों को हथियारों की सप्लाई तो देता ही रहा उन्हें आर्थिक मदद भी देता रहा। लेकिन दुर्भाग्यवश नेपाल में अभी माओवादियों की जड़ें इतनी मजबूत नहीं हो पाई हैं कि वहां की जनता पर उनका अकाधिपत्य स्थापित हो जाए।
'प्रचंड' को अपनी नीतियां लागू करने में सरकार के गैर कम्युनिस्ट घटक दलों की अड़ंगेबाजी का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन नेपाल के शासकों का चीन के साथ संपर्क लगातार बना हुआ है। चीन नेपाल को सीधे रेलवे लाइन से जोड़ने के प्रयास में भी है ताकि मौका आने पर वह नेपाल की सैनिक और आर्थिक मदद फौरी तौर पर कर सके। चीन भी नेपाल सरकर पर दबाव बना रहा है कि वहा माओवादी कैडर को सेना में शामिल करने में शीघ्रता बरते। लेकिन सेनाध्यक्ष कटवाल के रहते यह संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए सरकार उनसे जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहती है और लेफ्टिनेंट जनरल कुल बहादुर खड़का को सेनाध्यक्ष बनाना चाहती है। जनरल कटवाल अगले सितंबर महीने में अवकाश ग्रहण करने वाले हैं।
नेपाल के माओवादी भारत की तरफ से इसलिए निश्चिंत हैं क्योंकि वे मानते हैं कि भारत एक नरमपंथी देश हैं इसलिए उससे नेपाल के मामले में कारगर हस्तक्षेप की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन शायद नेपाल को यह पता नहीं है कि भारत के रुचि लिए बिना ही नेपाल में शांति प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकती है। इस बीच नेपाल सरकार ने सेना में फूट डालने की कोशिशें तेज कर दी हैं। वह ऐसे हालात पैदा करना चाहती है कि सेनाध्यक्ष कटवाल खुद पद छोड़ दे और वह अपने मन मुताबिक लेफ्टिनेंट जनरल को जनरल बनाकर सेना उसके हवाले कर दे ताकि माओवादी कैडरों और सेना के एकीकरण की प्रक्रिया जल्द पूरी हो जाए।
भारत की जरुरत से ज्यादा निष्क्रियता नेपाल के माओवादियों और चीन की सक्रियता को बढ़ावा दे रही है। भारत की खुफिया एजेंसियां उस समय भी विफल साबित हुई थी जब पोखरा स्थित राजमहल में चीन की खुफिया एजेंसी और ज्ञानेंद्र के बीच तत्कालीन नेपाल नरेश वीरेंद्र को समाप्त करने की योजना बन रही थी और उसे अंतिम रुप दिया जा रहा है था। यह षणयंत्र इतने गुप्त रुप से रचा गया और अंजाम पहुंचाया गया कि भारत की रॉ और अन्य देशों की खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी।
चीन महाराज वीरेंद्र की लोकप्रियता को अच्छी तरह समझ रहा था और इस नतीजे पर भी पहुंचा था कि महाराज वीरेंद्र के परिवार का समूल नाश किए बिना नेपाल में पांव जमाना बेहद कठिन है। उसने एक तीर से दो निशाने साधे एक तो महाराज वीरेंद्र का सफाया उनके अनुज ज्ञानेंद्र के हाथों करवाया और दूसरे ज्ञानेंद्र को जनता की नजरों में खलनायक बना दिया। ज्ञानेंद्र ने एक ऐसे शासक के रुप में नेपाल की गद्दी संभाली जिसे जनता घृणा की निगाह से देखती थी। अब चीन और नेपाल में सक्रिय माओवादियों के लिए जन समर्थन प्राप्त करना और अपना सशस्त्र अभियान चलाना आसान हो गया। चीन अपने उद्देश्य में सफल हो गया। लेकिन अभी भी उसके लिए बहुत कुछ करना शेष है।
भारत सरकार अगर इसी तरह उदासीन रही तो रही सही कसर भी पूरी हो जाएगी।