लेकिन एक बात तो सच है कि सेना और सरकार में गंभीर मतभेद पैदा हो गए हैं। इस हद तक कि प्रधानमंत्री 'प्रचंड' सेनाध्यक्ष नवरत्न रुकमांगत कटवाल को नाफरमानी के आरोप में बर्खास्त करना चाहते हैं लेकिन उन्हें इस बात का डर सता रहा है कि इस फौर कार्रवाई के बाद सेना बगावत न कर दे।
दरअसल 'प्रचंड' चाहते हैं कि उनकी पार्टी के पंद्रह हजार हथियारबंद लड़ाकों को सेना में शामिल कर लिया जाए। इससे दो फायदे होंगे एक तो सेना पर उनकी पकड़ मजबूत हो जाएगी और दूसरे निठल्लों को नियमित रोजगार मिल जाएगा।
सेनाध्यक्ष कटवाल इसके लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि सेना में भर्ती नियमानुसार ही की जा सकती है। माओवादी कैडर के लोग थोक के भाव में सेना में शामिल नहीं किए जा सकते। इस प्रकार प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच अविश्वास की इतनी गहरी खाई पैदा हो गई है कि उसे पाट पाना अब किसी के बस का नहीं रह गया हैं। या अविश्वास बहुआयामी है। सरकार और सेना के बीच तो है ही सरकार के घटक दलों के बीच , सरकार और विपक्ष के बीच तथा सेना के जनरलों के बीच भी है।
नेपाल में चीन की दिलचस्पी तो जगजाहिर है ही, भारत की सुस्ती और निश्चिंतता भी जगजाहिर है।
चीन की कोशिश है कि नेपाल में पूरी तरह माओवादियों का शासन स्थापित हो जाए और सरकार तथा सेना में जो भी थोड़े बहुत भारत समर्थक तत्व हैं उनका सफाया कर दिया जाए। इसीलिए वह नेपाल के माओवादियों को हथियारों की सप्लाई तो देता ही रहा उन्हें आर्थिक मदद भी देता रहा। लेकिन दुर्भाग्यवश नेपाल में अभी माओवादियों की जड़ें इतनी मजबूत नहीं हो पाई हैं कि वहां की जनता पर उनका अकाधिपत्य स्थापित हो जाए।
'प्रचंड' को अपनी नीतियां लागू करने में सरकार के गैर कम्युनिस्ट घटक दलों की अड़ंगेबाजी का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन नेपाल के शासकों का चीन के साथ संपर्क लगातार बना हुआ है। चीन नेपाल को सीधे रेलवे लाइन से जोड़ने के प्रयास में भी है ताकि मौका आने पर वह नेपाल की सैनिक और आर्थिक मदद फौरी तौर पर कर सके। चीन भी नेपाल सरकर पर दबाव बना रहा है कि वहा माओवादी कैडर को सेना में शामिल करने में शीघ्रता बरते। लेकिन सेनाध्यक्ष कटवाल के रहते यह संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए सरकार उनसे जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहती है और लेफ्टिनेंट जनरल कुल बहादुर खड़का को सेनाध्यक्ष बनाना चाहती है। जनरल कटवाल अगले सितंबर महीने में अवकाश ग्रहण करने वाले हैं।
नेपाल के माओवादी भारत की तरफ से इसलिए निश्चिंत हैं क्योंकि वे मानते हैं कि भारत एक नरमपंथी देश हैं इसलिए उससे नेपाल के मामले में कारगर हस्तक्षेप की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन शायद नेपाल को यह पता नहीं है कि भारत के रुचि लिए बिना ही नेपाल में शांति प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ सकती है। इस बीच नेपाल सरकार ने सेना में फूट डालने की कोशिशें तेज कर दी हैं। वह ऐसे हालात पैदा करना चाहती है कि सेनाध्यक्ष कटवाल खुद पद छोड़ दे और वह अपने मन मुताबिक लेफ्टिनेंट जनरल को जनरल बनाकर सेना उसके हवाले कर दे ताकि माओवादी कैडरों और सेना के एकीकरण की प्रक्रिया जल्द पूरी हो जाए।
भारत की जरुरत से ज्यादा निष्क्रियता नेपाल के माओवादियों और चीन की सक्रियता को बढ़ावा दे रही है। भारत की खुफिया एजेंसियां उस समय भी विफल साबित हुई थी जब पोखरा स्थित राजमहल में चीन की खुफिया एजेंसी और ज्ञानेंद्र के बीच तत्कालीन नेपाल नरेश वीरेंद्र को समाप्त करने की योजना बन रही थी और उसे अंतिम रुप दिया जा रहा है था। यह षणयंत्र इतने गुप्त रुप से रचा गया और अंजाम पहुंचाया गया कि भारत की रॉ और अन्य देशों की खुफिया एजेंसियों को भनक तक नहीं लगी।
चीन महाराज वीरेंद्र की लोकप्रियता को अच्छी तरह समझ रहा था और इस नतीजे पर भी पहुंचा था कि महाराज वीरेंद्र के परिवार का समूल नाश किए बिना नेपाल में पांव जमाना बेहद कठिन है। उसने एक तीर से दो निशाने साधे एक तो महाराज वीरेंद्र का सफाया उनके अनुज ज्ञानेंद्र के हाथों करवाया और दूसरे ज्ञानेंद्र को जनता की नजरों में खलनायक बना दिया। ज्ञानेंद्र ने एक ऐसे शासक के रुप में नेपाल की गद्दी संभाली जिसे जनता घृणा की निगाह से देखती थी। अब चीन और नेपाल में सक्रिय माओवादियों के लिए जन समर्थन प्राप्त करना और अपना सशस्त्र अभियान चलाना आसान हो गया। चीन अपने उद्देश्य में सफल हो गया। लेकिन अभी भी उसके लिए बहुत कुछ करना शेष है।
भारत सरकार अगर इसी तरह उदासीन रही तो रही सही कसर भी पूरी हो जाएगी।
3 टिप्पणियां:
नेपाल की घटनाएँ भारतीय कूटनीति की विफलता की कहानी कह रही हैं
आपके आलेख अनुसार बुरी खबर 'कटवाल बर्खास्त हो गए और खड़का कार्यवाहक प्रमुख बन गए. भारत को पैदा होने वाली जो आहट आपको सुनाई दे रही है, शायद हमारे कानों की सुनन दृष्टि खो चुके नेताओं को नहीं सुनाई देगी....
ठीक है कि नेपाल में घटित हालात हमारी खूफीया एजंसीयों की नाकामी के चलते हुए और हो सकता है कि चीन नेपाल तक आ भी जाए मगर एक बात आज सपष्ट है कि भारत 1962 का भारत नहीं है और दूसरी बात कि हमारे भारत वर्ष में भी ऐसे लोग बैठे हैं जो देश को बचाने में लगे हुए हैं.वो कहते हैं ना कि कभी बंजर भूमि का भी समय आता है, ठीक वैसे ही यदि आज चीन का समय है तो हमारा समय भी आएगा.
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