लेकिन सोनिया गांधी इस कहावत को चरितार्थ करती रहीं कि हाथी अपने रास्ते पर चलता जाता है। वह किसी की रोकटोक की परवाह बिल्कुल नहीं करता है। पंद्रवही लोकसभा के चुनाव में गर्व से भरे हुए सपा ने कांग्रेस के महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी दिग्विजय सिंह को कम खरी खोटी नहीं सुनाई। सपा से चुनावी गठबंधन के लिए कांग्रेस ने काफी प्रयास किए। लेकिन बात नहीं बनी। सपा सोलह सीटों से ज्यादा कांग्रेस को देने को तैयार नहीं थी। मुलायम सिंह कहते थे कि कांग्रेस को हारने के लिए सीटें क्यों दी जाएं। दिग्विजय सिंह ने कहा ठीक है लेकिन कुछ सीटों पर कांग्रेस और सपा में दोस्ताना संघर्ष होगा।
सपा को यह मंजूर नहीं था। अमर सिंह का कहना था कि दोस्ताना संघर्ष जैसा कुछ नहीं होता है। या दोस्ती होता है या संघर्ष। उन्होंने दिग्विजय सिंह पर आरोप भी लगाया था कि सपा और कांग्रेस में चुनाव गठबंधन उन्हीं की वजह से नहीं हो पा रहा है। इस संबंध में सोनिया गांधी से भी सपा नेताओं की बात हुई। लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। बातचीत का दौर जारी था तभी सपा ने पचास सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। इसके बाद कांग्रेस ने एकला चलो का रास्ता अपनाया और उसने अपने दम पर लोकसभा की 21 सीटें उत्तर प्रदेश में जीतीं। यानि सपा से सिर्फ दो सीटें कम। दरअसल सपा नेताओं को यकीन था कि केंद्र में कोई भी सरकार उनके सहयोग के बिना नहीं बनेगी। वे किंग मेकर की भूमिका में होंगे। सपा यूपीए सरकार में शामिल होगी और जमकर कीमत वसूलेगी। अमर सिंह का सपना था कि अपने उद्योगपति और बॉलीवुड के दोसेतों के जो भला वह सरकार के बाहर रहकर नहीं कर सके, वह सरकार में रहकर कर सकेंगे।
परमाणु डील के मुद्दे पर वामपंथियों द्वारा यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद बेशक मनमोहन सिंह ने सरकार बचाई थी और भारत अमेरिका से परमाणु डील करने में सफल हुआ था, लेकिन अमर सिंह ने इसकी भरपूर कीमत वसूलने की कोशिश की थी। अपने एक उद्योगपति दोस्त के आत्मसंतोष के लिए मुकेश अंबानी का लाभांश कम कराने का भरसक प्रयास किया था, लेकिन प्रधानमंत्री उनके दबाव के सामने झुके नहीं। आय से ज्यादा संपत्ति की सीबीआई जांच के मामले में सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख से तिलमिलाए अमर सिंह ने चाहा कि सोनिया गांधी कारगर हस्तक्षेप करें। लेकिन सोनिया गांधी के स्पष्ट इनकार से अमर सिंह इस इस कदर बौखला गए कि उनके जुबानी तीर फिर सोनिया पर बरसने लगे।
किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना सोनिया का स्वभाव है। वह इस बात के लिए कमर कसकर तैयार थी कि सपा द्वारा समर्थन वापस ले लेने पर लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करा दिया जाएगा मुलायम सिंह को अपनी पार्टी की लोकप्रियता पर उसी अति विश्वास था, जिस तरह बिहार में लालू यादव और रामविलास पासवान को। इन नेताओं ने मिलकर चौथा मोर्चा बनाया और यूपी तथा बिहार में सभी सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर दिए। उनका लक्ष्य था इन राज्यों में कांग्रेस को पैर मत जमाने दो और यूपीए सरकार से सौदेबाजी करते रहो।
मुलायम और लालू ये नहीं समझ पाए कि जनता इनकी तिकड़मी और स्वार्थ केंद्रित राजनीति से ऊब चुकी है। वह स्थिरता, स्वक्षता ईमानदारी और विकास चाहती है। कांग्रेस ने दोनों ही राज्यों में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। परिणाम सामने है। मुलायम और लालू यादव कहीं के नहीं रहे। मुलायम ने अमर सिंह की राय को शिरोधार्य करते हुए कल्याण सिंह को भाजपा से तोड़ा, लेकिन पासा उलटा पड़ गया। कल्याण सिर्फ बुलंदशहर और एटी की सीटें जिता पाए। पहली पर सपा जीती और दूसरे पर वो खुद। लेकिन सपा का नुकसान इस हद तक किया कि सारे मुस्लिम वोट कांग्रेस की ओर चले गए।
सोनिया गांधी की खासियत यह है कि वह अपने साथ किए गए छल को भूलती नहीं हैं। वह उस घटना को आज तक नहीं भूली हैं, जब मुलयाम सिंह यादव ने उन्हें विदेशी महिला करार देते हुए समर्थन देने से इंकार कर दिया था और लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता होने के बावजूद न्हें विपक्ष में बैठना पड़ा था। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में चौथे मोर्चे ने उत्तर प्रदेश और बिहार में सारी सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करके उनका जो अपमान किया, उसे भी शायद ही कभी वो भूल पाएं। अब केंद्र सरकार में मुलायम और लालू को हिस्सेदारी की उम्मीद छोड़कर भविष्य की चिंता शुरु कर देनी चाहिए।
2 टिप्पणियां:
सबकी अपनी अपनी स्टाईल है जी!!
अच्छा विश्लेषण किया है.
Kafi badhiya vishlesan kiya hai aapne.
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