क्या इस तरह की घटनाओं और मतदान में लगातार आ रही कमी के बीच कोई संबंध है? क्या नेताओं और लोकतंत्र की विश्वसनीयता दिन प्रतिदिन कम हो रही है और आम आदमी का इस व्यवस्था से मोहभंग हो रहा है? वास्तविकता यही है। लोकतंत्र का मुखौटा लगाए सामंतवाद और परिवारवाद देश में तेजी से पांव पसार रहा है। आम जनता मुसीबतों में उलझती जा रही है और नेता मालामाल हो रहे हैं। नामांकन पत्र के साथ जब कोई प्रत्याशी अपनी संपत्ति का ब्यौरा दाखिल करता है तो मतदाताओं की आखें फटी रह जाती हैं। वह यह देखकर हैरान रह जाता है कि कोई प्रत्याशी अपनी लखपति से कम नहीं है। करोड़पति भी है और अरबपति भी।
ऐसे नेता भी हैं जिनकी तिजोरियां राजनीति में पदार्पण के वक्त या तो खाली थीं या बमुश्किल हजार पांच सौ रुपए ही रहे होंगे। लेकिन कुछ ही सालों में वे तिजोरियां नोटों की गड्डियों से भर गईं। उनमें करोड़ों अरबों रुपए भर गए, उन्होंने अरबों रुपए की संपत्ति अर्जित कर ली। पूरे परिवार को राजनीति में उतारकर सबको मालामाल होने का आसान अवसर प्रदान किया। ऐसे नेताओं के लिए राजनीति जन-सेवा का माध्यम नहीं व्यवसाय बन गई- पुश्तैनी व्यवसाय। पीढ़ी दर पीढ चलने वाला लाभप्रद व्यवसाय।
जनता को सिर्फ भाषणों के लॉलीपॉप दिखाने वाले नेता स्वयं विलासिता में आकंठ डूबे हुए हैं। जनता का काम सिर्फ इतना रह गया है कि वह नेताओं को संसद या विधानसभा में भेजती रहे और खुद फटेहाल बनी रहे। आम आदमी को लच्छेदार भाषण पिलाने वाले इन बहुरुपिए, बाहुबली और धनबली नेताओं को सिर्फ अपने हितों की चिंता रहती है। 'माननीय' बनने के बाद इनका आपराधिक खेल चलता रहता है। संसद या विधानसभा के भीतर और बाहर इनकी चाल और चरित्र एख जैसा है। व्यापारी गुंडा टैक्स देते-देते परेशान है और व्यापारी नेता सत्तासुख भोगने में मशगूल हैं। एक टैक्स सरकार को चुकाता है व्यापारी और दूसरा बाहुबलियों को जिन्हें राजनीतिक पार्टियां संरक्षण देती हैं या लोकसभा या विधानसभा में भेजती हैं।
आम आदमी का फर्ज सिर्फ इतना है कि वह नेताओं की जय-जयकार करता रहे, उसके हितों की रक्षा के लिए धरना-प्रदर्शन करता रहे, पुलिस की लाठियां और गोलियां खाता रहे। जब लोकसभा या विधानसभा में जाने की बात आए तो कोई धनपशु, कोई बाहुबली, कोई फिल्म स्टार, कोई व्यवसायी या कोई ऐसा व्यक्ति आकर खड़ा हो जाए जिसे राजनीति बाप-दादा से विरासत में मिली हो। जनता को सिर ढकने के लिए, पीने के लिए साफ पानी, जीवित रहने के लिए अन्न और दवाएं, गुंडो, बदमाशों और लुटेरों से सुरक्षा, उचित दाम पर खाद, सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी, पहनने के लिए वस्त्र, सस्ती शिक्षा और रोजमर्रा की जरुरत की चीजें उपलब्ध नहीं हो रही हैं।
खाद और बीच पर सब्सिडी देने से सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ता है। उद्यमियों को सेज के लिए किसानों की जमीन जबरद्स्ती छीन ली कर दे दी जाती है लेकिन उजड़े हुए किसानों को पुर्नस्थापित नहीं किया जाता। नेता इतने छिछले होते जा रहे हैं कि वे निर्लज्जतापूर्वक जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐश कर रहे हैं और उससे अपनी तिजोरियां भर रहे हैं। वे इस कदर दिममागी दिवालियेपन के शिकार होते जा रहे हैं कि संसद में बोलने के लिए उनके पास कुछ नहीं रहता। वे प्राय हर छोटे बड़े मुद्दे पर वहां जूतम पैजार करते नजर आते हैं। देश में इतनी समस्याएं हैं लेकिन इस चनाव में उन्हें जनता के सामने रखने के लिए कोई मुद्दा नहीं मिल रहा है।
वे सिर्फ एक दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं। गाली गलौच की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। व्यक्तिगत आक्षेप कर रहे हैं। संसद की लाइब्रेरी में अब अध्ययन या सूचनाएं एकत्रित करने कोई नहीं जाता संसद का सत्र बिना तर्कपूर्ण बहस मुसाहिबे के बीत जाता है। जरुरी सवालों पर भी विचार नहीं हो पाते। जन प्रतिनिधियों के वेतन और विधायकों के वेतन और भत्तों में बढ़ोत्तरी की बात आती है तो सभी पक्षों में अभूतपूर्व एकता दिखाई पड़ती है और संबंधित बिल मिनटों में बिना विरोध के पास हो जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने विधायकों के भत्ते बढ़ाने वाला विधेयक 'सुख सुविधा निधि संशोधन विधेयक 2005'
मात्रा आधा मिनट में पारित कर दिया। इससे सरकार पर 17 करोड़ 58 लाख रुपए का अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ा। सांसद निधि की रकम एक करोड़ से बढ़कर दो करोड़ हो गई। इसी प्रकार विधायक निधि की रकम 50 लाख से बढ़ाकर एक करोड़ 25 लाख रुपए हो गई।
सभी जानते हैं कि इस निधि का पचास प्रतिशत जनप्रतिनिधियों की जेब में जाता है। स्थानीय निकायों को आर्थिक स्वायत्तता देने से भ्रष्टाचार बढ़ा है। विकास और जनकल्याण के कार्यों के लिए सरकारें धन का अभाव का रोना रोती हैं लेकिन फिजूलखर्ची या गैर योजनागत व्यय दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। देश की जनता अब जागरुक हो रही है। शिक्षा का प्रसार बढ़ने से उसकी सोचने समझने की शक्ति में भी इजाफा हो रहा है। वह अपने नेताओं के विकृत वास्तविक चेहरे को पहचानने लगी है। इस व्यवस्था और इसे चलाने वाले नेताओं-नौकरशाहों के प्रति उसके मन में वितृष्णा पैदा होने लगी है। लोकतंत्र के भविष्य के लिए ये संकेत शुभ नहीं है। इसकी परिणति खूनी क्रांति में भी हो सकती है।