राक्षस राज रावण महाप्रतापी था। उसका उद्देश्य था अपनी रक्ष संस्कृति को दूर-दूर तक फैलाना। उसने उस समय के सात भू-भाग में अपनी संस्कृति का सिक्का जमाया भी। राक्षस जाति या रक्ष संस्कृति के लोग तामसी प्रवृति के मांसाहारी थे। वे नरभक्षी भी थे इसलिए आर्य विधि-विधान में विश्वास करने वाले तपस्वी ऋषि-मुनियों को मार कर अपना आहार बनाते थे। लेकिन पूर्वी बारत के कुछ भू-भागो पर रावण अधिकार नहीं कर पाया था। अयोध्या के श्री राम ने रावण को भले ही युद्ध में मार गिराया लेकिन रक्ष संस्क-ति और तामसी प्रवृति का समूल नाश नहीं कर पाए।
द्वापर में रक्ष संस्कृति चरम पर पंहुच गई थी इसलिए उसके विनाश के लिए योगेश्वर कृष्ण को महाभारत जैसे भीषण युद्ध का आयोजन करना पड़ा जिसमें लगभग समूची रक्ष संस्कृति स्वाहा हो गई। हम कल्पना कर सकते हैं कि यदि द्वापर की रक्ष संस्कृति अपने प्राचीन रंग-रूप और प्रवृति के साथ कलयुग में प्रविष्ट हुई होती तो भारत का स्वरूप और समाज कैसा रहा होता। गनीमत थी कि कलयुग आने के पूर्व ही कृष्ण ने अइस राक्षसी और तामसी प्रवृति का सफाया कर दिया था। वरना साधु प्रवृति के व्यक्ति भारतीय समाज में होतेही नहीं। लेकिन जिस भी संस्कृति का विनाश हुआ उसकी जड़े कहीं न कहीं धरतीके भीतर रह गई थी। जो समय के साथ फूटती, पल्लवित और पुष्पित होती जा रही हैं।
हम ध्यान से देखे तो पता चलेगा कि इस रावणी संस्कृति के केंद्र पर्वतीय जनजातीय और जंगली ज्यादा है यानी दुर्गम। अफगानिस्तान और उसके आसपास के इलाके,इंडोनेशियाके दुर्गम क्षेत्र, भारत में झारखंड, छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार, मध्य प्रदेश आन्ध्र और पश्चिम बंगाल के दुर्गम इलाके तथा भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र इन शैतानी ताकतों के गढ़ हैं। मानवीय प्रवृति और मानवीय संवेदना वाले व्यक्ति रावण के इन वंशजों को नहीं सुहाते हैं। जब बी उन्हें मौका मिलता है धावा बोलकर बेकसूर और असहाय लोगों के खून की होली खेलने लगते हैं।
तालिबान हो, अलकायदा हो, नक्सलवादी हों, माओवादी हो, उल्फा हों या अन्य आतंकी संगठन इन सभी को हम रावण के वंशज मान सकते हैं। ये ताकतें रावण द्वारा स्थापित रक्ष संस्कृति के प्रवाह को सतत जारी रखने में जुटी हुई हैं। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे लोग सभ्यता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं वैसे ही वैसे रावणी वृत्ती भी बढ़ती जा रहा है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ मानवीय संवेदनाए मरती जा रहा हैं। संगठित और असंगठित अपराधों का ग्राफ तेजी से ऊपर उठ रहा है। पूरा मैदानी इलाका अपराधियों से ग्रस्त है। मानवीय संबंध तो दूर रक्त संबंध भी तार-तार हो जा रहे हैं।
एक भाई ने अपने भाई के पूरे परिवार की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि वो प्रगति की ओर अग्रसर था। बेटा अपने पिता की हत्या इसलिए कर देता है कि बेटे को पिता की जगह नौकरी मिले या उसके बीमे की राशि हाथ लग जाए। एक व्यक्ति अपने पत्नी और बच्चों की हत्या इसलिए कर देता है क्योंकि उसे अपने पत्नी के चरित्र पर शक होता है और लगता है कि उसके बच्चों का पिता कोई और है। नौजवान बेटियां इसलिए मार दी जाती हैं क्योंकि परिजनों को उनके चरित्र पर शक होता है। अब मानव तस्करी भी होने लगी है और मानव अंगों का व्यापार भी। अस्पतालों से नवजात शिशुओं को चुरा-चुरा कर उन्हें बेचने का कारोबार भी शुरू हो चुका है। कोई युवती, बच्ची या महिला सुनसान इलाके से सकुशल गुजर जाए तो चमत्कार समझिए।
मांस, मदिरा और सेक्स का व्यापार दिन दूना रात चौगुना तरक्की कर रहा है। अपराध के ऐसे-ऐसे तरीके खोजे जा रहे हैं कि कभी –कभी लगता है कि भारतीय समाज बच भी पाएगा या नहीं। पैसा लेकर हत्याएं करने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। माफिया, तस्कर, संगठित गिरोह चलाने वाले अपराधी अब ‘माननीय’ हो रहे हैं। पैसे के लिए सारी सामाजिक मर्यादाएं, नियम कायदों की सरहदें, नैतिकता के मूल्य खंड-खंड किए जा रहे हैं। समाज में हिंसा और कामुकता बेतहाशा बढ़ रही है। इनके लिए व्यक्ति किसी भी पशुवत और घृणित स्तर तक जा सकता है। ये सब रक्ष संस्कृति के लक्षण हैं।
‘राम पराजित हो रहे हैं, रावण जीत रहा है’। रावण के पुतलों का संहार तो हो रहा है लेकिन मनुष्य के भीतर का रावण लगातार और तेज गति से बढ़ राह है। इसका संहार कैसे हो। इसके लिए बोद्धिक समाज में उपायों की कमी नहीं है लेखनी और जुबीन आए दिन सुझाते रहते हैं लेकिन कभी-कभी हमें उस समय हतप्रभ रह जाना पड़ता है जब हम पाते हैं कि हम जो उपाय सुझा रहे हैं उन्हीं के भीतर बैठा हुआ है रावण। वह रक्ष संस्कृति की गिरफ्त में हैं उसके पोषक हैं। इस भवसागर में किस पर यकीन जताए, किस पर भरोसा करें इसलिए बेहतर यही होगा कि हम पहले अपने भीतर झांके। देखें कि कहीं अपनी रक्ष संस्कृति के साथ मायावी रावण कहीं घुस तो नहीं आया है, चोरी-छिपे या भेष बदलकर या अदृश्य रहकर यदि वह दिखाई दे जाए तो उसका लाभ उठाने की बजाय उससे तुरंत निजात पा लें। तभी यह मानव समाज बच पाएगा।
द्वापर में रक्ष संस्कृति चरम पर पंहुच गई थी इसलिए उसके विनाश के लिए योगेश्वर कृष्ण को महाभारत जैसे भीषण युद्ध का आयोजन करना पड़ा जिसमें लगभग समूची रक्ष संस्कृति स्वाहा हो गई। हम कल्पना कर सकते हैं कि यदि द्वापर की रक्ष संस्कृति अपने प्राचीन रंग-रूप और प्रवृति के साथ कलयुग में प्रविष्ट हुई होती तो भारत का स्वरूप और समाज कैसा रहा होता। गनीमत थी कि कलयुग आने के पूर्व ही कृष्ण ने अइस राक्षसी और तामसी प्रवृति का सफाया कर दिया था। वरना साधु प्रवृति के व्यक्ति भारतीय समाज में होतेही नहीं। लेकिन जिस भी संस्कृति का विनाश हुआ उसकी जड़े कहीं न कहीं धरतीके भीतर रह गई थी। जो समय के साथ फूटती, पल्लवित और पुष्पित होती जा रही हैं।
हम ध्यान से देखे तो पता चलेगा कि इस रावणी संस्कृति के केंद्र पर्वतीय जनजातीय और जंगली ज्यादा है यानी दुर्गम। अफगानिस्तान और उसके आसपास के इलाके,इंडोनेशियाके दुर्गम क्षेत्र, भारत में झारखंड, छ्त्तीसगढ़, उड़ीसा, बिहार, मध्य प्रदेश आन्ध्र और पश्चिम बंगाल के दुर्गम इलाके तथा भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र इन शैतानी ताकतों के गढ़ हैं। मानवीय प्रवृति और मानवीय संवेदना वाले व्यक्ति रावण के इन वंशजों को नहीं सुहाते हैं। जब बी उन्हें मौका मिलता है धावा बोलकर बेकसूर और असहाय लोगों के खून की होली खेलने लगते हैं।
तालिबान हो, अलकायदा हो, नक्सलवादी हों, माओवादी हो, उल्फा हों या अन्य आतंकी संगठन इन सभी को हम रावण के वंशज मान सकते हैं। ये ताकतें रावण द्वारा स्थापित रक्ष संस्कृति के प्रवाह को सतत जारी रखने में जुटी हुई हैं। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे लोग सभ्यता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं वैसे ही वैसे रावणी वृत्ती भी बढ़ती जा रहा है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ मानवीय संवेदनाए मरती जा रहा हैं। संगठित और असंगठित अपराधों का ग्राफ तेजी से ऊपर उठ रहा है। पूरा मैदानी इलाका अपराधियों से ग्रस्त है। मानवीय संबंध तो दूर रक्त संबंध भी तार-तार हो जा रहे हैं।
एक भाई ने अपने भाई के पूरे परिवार की हत्या इसलिए कर दी क्योंकि वो प्रगति की ओर अग्रसर था। बेटा अपने पिता की हत्या इसलिए कर देता है कि बेटे को पिता की जगह नौकरी मिले या उसके बीमे की राशि हाथ लग जाए। एक व्यक्ति अपने पत्नी और बच्चों की हत्या इसलिए कर देता है क्योंकि उसे अपने पत्नी के चरित्र पर शक होता है और लगता है कि उसके बच्चों का पिता कोई और है। नौजवान बेटियां इसलिए मार दी जाती हैं क्योंकि परिजनों को उनके चरित्र पर शक होता है। अब मानव तस्करी भी होने लगी है और मानव अंगों का व्यापार भी। अस्पतालों से नवजात शिशुओं को चुरा-चुरा कर उन्हें बेचने का कारोबार भी शुरू हो चुका है। कोई युवती, बच्ची या महिला सुनसान इलाके से सकुशल गुजर जाए तो चमत्कार समझिए।
मांस, मदिरा और सेक्स का व्यापार दिन दूना रात चौगुना तरक्की कर रहा है। अपराध के ऐसे-ऐसे तरीके खोजे जा रहे हैं कि कभी –कभी लगता है कि भारतीय समाज बच भी पाएगा या नहीं। पैसा लेकर हत्याएं करने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। माफिया, तस्कर, संगठित गिरोह चलाने वाले अपराधी अब ‘माननीय’ हो रहे हैं। पैसे के लिए सारी सामाजिक मर्यादाएं, नियम कायदों की सरहदें, नैतिकता के मूल्य खंड-खंड किए जा रहे हैं। समाज में हिंसा और कामुकता बेतहाशा बढ़ रही है। इनके लिए व्यक्ति किसी भी पशुवत और घृणित स्तर तक जा सकता है। ये सब रक्ष संस्कृति के लक्षण हैं।
‘राम पराजित हो रहे हैं, रावण जीत रहा है’। रावण के पुतलों का संहार तो हो रहा है लेकिन मनुष्य के भीतर का रावण लगातार और तेज गति से बढ़ राह है। इसका संहार कैसे हो। इसके लिए बोद्धिक समाज में उपायों की कमी नहीं है लेखनी और जुबीन आए दिन सुझाते रहते हैं लेकिन कभी-कभी हमें उस समय हतप्रभ रह जाना पड़ता है जब हम पाते हैं कि हम जो उपाय सुझा रहे हैं उन्हीं के भीतर बैठा हुआ है रावण। वह रक्ष संस्कृति की गिरफ्त में हैं उसके पोषक हैं। इस भवसागर में किस पर यकीन जताए, किस पर भरोसा करें इसलिए बेहतर यही होगा कि हम पहले अपने भीतर झांके। देखें कि कहीं अपनी रक्ष संस्कृति के साथ मायावी रावण कहीं घुस तो नहीं आया है, चोरी-छिपे या भेष बदलकर या अदृश्य रहकर यदि वह दिखाई दे जाए तो उसका लाभ उठाने की बजाय उससे तुरंत निजात पा लें। तभी यह मानव समाज बच पाएगा।
3 टिप्पणियां:
तालिबान हो, अलकायदा हो, नक्सलवादी हों, माओवादी हो, उल्फा हों या अन्य आतंकी संगठन इन सभी को हम रावण के वंशज मान सकते हैं। ये ताकतें रावण द्वारा स्थापित रक्ष संस्कृति के प्रवाह को सतत जारी रखने में जुटी हुई हैं। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे लोग सभ्यता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं वैसे ही वैसे रावणी वृत्ती भी बढ़ती जा रहा है। शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ मानवीय संवेदनाए मरती जा रहा हैं। संगठित और असंगठित अपराधों का ग्राफ तेजी से ऊपर उठ रहा है। पूरा मैदानी इलाका अपराधियों से ग्रस्त है। मानवीय संबंध तो
दूर रक्त संबंध भी तार-तार हो जा रहे हैं।
poore tarah se sahmat hoon.........
aapka yeh article achcha laga....
महोदय,आश्चर्य है की आप जैसे उम्र दराज इन्सान भी ऐसी बाते कर रहा है,नरभक्षी कोई नहीं था ये सिर्फ टीवी में दिखाए जाने वाले कार्यक्रम ही है जो राक्षसों को नरभक्षी और तम्म्सिक प्रवृति का बबते है,जबकि रावण तो एक महान तपस्वी था जिसने शिव को ताप से प्रसन्न किया था......और मांस भक्षण की बात है तो शायद आप जान ले की बोद्ध काल से पहलेआर्य भी मांस खाया करते थे .......
राक्षस प्राचीन काल के प्रजाति का नाम है। राक्षस वह है जो विधान और मैत्री में विश्वास नहीं रखता और वस्तुओं को हडप करना चाहता है।
रावण ने रक्ष संस्कृति या रक्ष धर्म की स्थापना की थी। रक्ष धर्म को मानने वाले गरीब, कमजोर, विकास के पीछे रह गए लोगों, किसानों व वंचितों की रक्षा करते थे। रक्ष धर्म को मानने वाले राक्षस थे।
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