
अदालत के मुताबिक 11 सितंबर को रोक लगाने का अंतरिम आदेश आगे भी जारी रहेगा। इस मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 5 अक्टूबर को हिदायत दी थी कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर राजनीति न करे। दूसरे दिन भी सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने अपना रुख सख्त करते हुए इस बात पर भी विचार किया कि निर्माण कार्य न रुकने पर मुख्य सचिव को जेल भेज दिया जाए। मुख्य सचिव को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए उनसे पूछा गया है कि अदालत के आदेश के उल्लंघन के लिए उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों न की जाए। उन्हें 4 नवंबर को व्यक्तिगत रुप से न्यायालय में उपस्थित होने का निर्देश भी दिया गया है।
पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को इस मामले में अदालत की अवमानना की याचिका दाखिल करने का निर्देश दिया है। सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रम्ण्यम को इस मामले में सहायता करने का निर्देश दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस आधार पर अवमानना की कार्रवाई शुरु की है। क्योंकि आठ सितंबर को उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव ने अदालत में दाखिल हलफनामे और 11 सितंबर को निर्माण कार्य रोकने के आदेश का उल्लंघन किया है। सुप्रीम कोर्ट को उत्तर प्रदेश सरकार के प्रति ये सख्त रवैया उस जनहित याचिका पर अपनाना पड़ा जिसमें कहा गया है कि राज्य सरकार कई हजार करोड़ रुपए की लागत से लखनऊ में स्मारक और पार्क बना रही है। यह जनता से मिले टैक्स का दुरुपयोग है।
इस मुकदमें का सबसे चिंताजनक और खेदजनक पहलू ये रहा कि मुख्यमंत्री मायावती ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की लगातार धज्जियां उड़ाई। अदालत ने निर्माण कार्य रोकने का आदेश दिया। लेकिन निर्माण कार्य चालू रहा। स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री मायावती की निगाहों में सर्वोच्च न्यायालय की कोई अहमियत नहीं रही। उन्होंने सोचा कि जनहित के मामलों में तमाम अदालती आदेशों की अवहेलना की तरह इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की तरफ से आखें मूंदी जा सकती हैं।
सत्ता के मद में चूर और लोकतांत्रिक संस्कारों से हीन बसपा सुप्रीमो ये भूल गई कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में कार्यपालिका तथा विधायिका की तरह न्यायपालिका भी एक संवैधानिक ताकत है। जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। न्यायपालिका को प्राप्त अधिकारों की अवहेलना न तो विधायिका कर सकती है और न ही कार्यपालिका। लेकिन हम मायावती की कार्यशैली और शासन प्रणाली का बारीक अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि बुनियादी तौर पर उनकी चाल और चरित्र एक ऐसी नेता का है जो लोकतंत्र में यकीन ही नहीं करती। वो अर्ध तानाशाह हैं। वो न तो लोकतांत्रिक मर्यादाओं में विश्वास करती है औऱ न ही सही अर्थों में लोकतंत्र का पाठ याद किया है। बसपा के संगठनात्मक ढांचे से भी यह बात साफ हो जाती है
उनकी सोच की संकीर्णता की इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि वह बात तो सर्वजन समाज की करती है। लेकिन विशाल भूमि पर जनता की गाढ़ी कमाई से जो पार्क बना रही हैं उसमें प्रतिमाएं सिर्फ दलितों की हैं। चाहे कांशीराम हो, चाहे अंबेडकर हो या स्वयं मायावती। राज्य सरकार का खजाना जिन करों से भरा जाता है उसमें सबसे ज्यादा अंशदान गैर दलित जनता का ही है। सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि मायावती सभी पार्कों में अपनी आदमकद प्रतिमा भी लगवा रही हैं।
ऐसा उदाहरण विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं मिलता कि कोई शासक अपनी तमाम मूर्तियां लगाए और उसका अनावरण भी खुद ही करे। बड़े राजे,महाराजे और सामंतों ने भी अपनी मूर्तियां इस तरह नहीं लगवाईं प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक। विजेताओं ने अपनी विजयों के चिन्ह या प्रतीक के रुप में कहीं-कहीं स्तंभ अवश्य खड़े किए लेकिन अपनी मूर्तियां नहीं लगवाई।
मायावती ऐसे प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं जिसकी गरीबी का ग्राफ लगातार उठता जा रहा है। लेकिन विपक्ष की माने तो वो स्मारकों पर दस हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही हैं। अपनी आदमकद प्रतिमाओं के बारे में माया कहती हैं कि मान्यवर कांशीराम की ऐसी इच्छा थी जिसका वो पालन कर रही हैं। कांशीराम की इच्छा तो गरीबों के उत्थान की भी थी। खासतौर से दलित गरीबों के उत्थान की। उनके समय में सर्वजन समाज की कल्पना नहीं की गई थी। ये कल्पना मायावती की है। क्योंकि वो ये इस निष्कर्ष पर पहुंच चुकी हैं कि दलित समाज उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता पर आसीन नहीं करा सकता। इसके लिए कुछ और जातियों का समर्थन आवश्यक है। और अपने बल पर शासन में आए बिना उनके और अन्य दलित हस्तियों के स्मारक नहीं बनाए जा सकते। उनकी ये योजना सफल हुई। उन्होंने प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्मारकों का निर्माण शुरु ही किया, नोएडा में भी विशाल भूमि पर भव्य स्मारक बनवाए। ये कार्य लगभग पूरा हो चुका है। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने भी उनका साथ दिया। जबकि पर्यावरण संबंधी नियमों की पूरी तरह से उपेक्षा की गई है।
मायावती अपनी प्रतिमा तो लगवा ही रही हैं। अपने चुनाव चिन्ह हाथी की प्रतिमाएं भी बड़ी संख्या में लगवा रही हैं। नोएडा में तो मायावती का हसीन सपना पूरा होने की कगार पर है। देखना ये है कि लखनऊ में स्मारकों का सपना पूरा होता है या नहीं।
1 टिप्पणी:
सर प्रणाम
नाम गुम जाएगा चेहरा ये बदल जाएगा मेरी आवाज ही पहचान है. आपको ब्लाग वाणी पर पहली बार देखा. याद आ गया 1986-7 का वो बनारस, स्वतंत्र भारत और आप. इस समय आई नेक्स्ट लखनऊ में हूं. मेरा ब्लाग rajubindas.blogspot.com
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